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Last Modified: गुरुवार, 1 दिसंबर 2022 (11:32 IST)

गीता जयंती कब है? जानिए गीता के 25 संदेश संक्षेप में

गीता जयंती कब है? जानिए गीता के 25 संदेश संक्षेप में - 25 messages of Gita
Geeta Jayanti 2022: मार्गशीर्ष माह में शुक्ल पक्ष की एकादशी को मोक्षदा एकादशी भी कहते हैं। इस एकादशी का व्रत रखने से व्रती को मोक्ष मिलता है। क्योंकि इसी दिन भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत युद्ध के समय अपने प्रिय अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश दिया था। इस दिन श्रीहरि विष्णु के साथ श्रीकृष्ण की पूजा करने का खासा महत्व है।
 
गीता जयंती कब है? मार्गशीर्ष माह में शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती मनाई जाती है। अंग्रेजी कलैंडर के अनुसार यह जयंती 4 दिसंबर को रहेगी। इसके 15 दिन पूर्व ही गीत जयंती का उत्सव प्रारंभ हो जाएगा। गीता की गणना उपनिषदों में की जाती है। इसी‍लिये इसे गीतोपनिषद् भी कहा जाता है। दरअसल, यह महाभारत के भीष्म पर्व का हिस्सा है। वेदों का सार अर्थात संक्षिप्त रूप है उपनिषद्ध और उपनिषदों का सार है गीता। गीता सभी हिन्दू ग्रंथों का निचोड़ और सारतत्व है इसीलिए यह सर्वमान्य हिन्दू धर्मग्रंथ है। 
 
गीता के 25 संदेश | 25 messages of Gita:
 
1. आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है। यह अजर-अमर और शाश्वत है।
 
2. एक न एक दिन सभी मारे जाएंगे। कोई आज मर रहा है तो कोई कल मरेगा। यह मृत्युलोक है। मृत्यु को छोड़कर अमृत के बारे में सोचो। 
 
3. आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।
 
4. कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, लेकिन कर्म के फलों में कभी नहीं...इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो और न ही काम करने में तुम्हारी आसक्ति हो।
 
5. सुख और दुख आते जाते रहते हैं लेकिन जो व्यक्ति दोनों ही में समान भाव से रहता है उसके मन में राग, भय और क्रोध नष्ट हो जाता हैं।
 
6. श्रद्धा रखने वाले मनुष्य, अपनी इन्द्रियों पर संयम रखने वाले मनुष्य, साधनपारायण हो अपनी तत्परता से ज्ञान प्राप्त कते हैं, फिर ज्ञान मिल जाने पर जल्द ही परम-शान्ति को प्राप्त होते हैं।
 
7. जिसका मन अपने वश में है, जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्तःकरण वाला है और सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता।
 
8. क्रोध से मनुष्य की मति मारी जाती है यानी मूढ़ हो जाती है जिससे स्मृति भ्रमित हो जाती है। स्मृति-भ्रम हो जाने से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि का नाश हो जाने पर मनुष्य खुद अपना ही का नाश कर बैठता है।
 
9. विषयों (वस्तुओं) के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उनसे आसक्ति हो जाती है। इससे उनमें कामना यानी इच्छा पैदा होती है और कामनाओं में विघ्न आने से क्रोध की उत्पत्ति होती है।
10. सभी धर्मों को त्याग कर अर्थात हर आश्रय को त्याग कर केवल मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्ति दिला दूंगा, इसलिए शोक मत करो।
 
11. हे अर्जुन! आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी- ये चार प्रकार के भक्त मेरा भजन किया करते हैं। इनमें से सबसे निम्न श्रेणी का भक्त अर्थार्थी है। उससे श्रेष्ठ आर्त, आर्त से श्रेष्ठ जिज्ञासु, और जिज्ञासु से भी श्रेष्ठ ज्ञानी है।
 
12. जगत के ये दो प्रकार के- शुक्ल और कृष्ण अर्थात देवयान और पितृयान मार्ग सनातन माने गए हैं। इनमें एक द्वारा गए (मृत्यु को प्राप्त) हुए को वापस नहीं लौटना पड़ता, वह परमगति को प्राप्त होता है और दूसरे के द्वारा गया हुआ फिर वापस आता है अर्थात्‌ जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है।
 
13. क्यों व्यर्थ की चिंता करते हो? किससे व्यर्थ डरते हो? कौन तुम्हें मार सकता है? आत्मा न पैदा होती है, न मरती है।
 
14. जो हुआ, वह अच्छा हुआ, जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है, जो होगा, वह भी अच्छा ही होगा। तुम भूत का पश्चाताप न करो। भविष्य की चिंता न करो। वर्तमान चल रहा है।
 
15. तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो? तुम क्या लाए थे, जो तुमने खो दिया? तुमने क्या पैदा किया था, जो नाश हो गया? न तुम कुछ लेकर आए, जो लिया यहीं से लिया। जो दिया, यहीं पर दिया। जो लिया, इसी (भगवान) से लिया। जो दिया, इसी को दिया।
 
16. खाली हाथ आए और खाली हाथ चले। जो आज तुम्हारा है, कल और किसी का था, परसों किसी और का होगा। तुम इसे अपना समझकर मग्न हो रहे हो। बस यही प्रसन्नता तुम्हारे दु:खों का कारण है।
 
17. परिवर्तन संसार का नियम है। जिसे तुम मृत्यु समझते हो, वही तो जीवन है। एक क्षण में तुम करोड़ों के स्वामी बन जाते हो, दूसरे ही क्षण में तुम दरिद्र हो जाते हो। मेरा-तेरा, छोटा-बड़ा, अपना-पराया, मन से मिटा दो, फिर सब तुम्हारा है, तुम सबके हो।
 
18. न यह शरीर तुम्हारा है, न तुम शरीर के हो। यह अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश से बना है और इसी में मिल जाएगा, परंतु आत्मा स्थिर है- फिर तुम क्या हो?
 
19. तुम अपने आपको भगवान को अर्पित करो। यही सबसे उत्तम सहारा है। जो इसके सहारे को जानता है, वह भय, चिंता व शोक से सर्वदा मुक्त है।
 
20. जो कुछ भी तू करता है, उसे भगवान को अर्पण करता चल। ऐसा करने से सदा जीवनमुक्त का आनंद अनुभव करेगा।
 
21. माया द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, ऐसे आसुर-स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते। 
 
22. परन्तु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल नाशवान है तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजें, अन्त में वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।
 
23. बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम अविनाशी परम भाव को न जानते हुए मन-इन्द्रियों से परे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा को मनुष्य की भाँति जन्मकर व्यक्ति भाव को प्राप्त हुआ मानते हैं॥
 
24. प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करें। इस लोक में भूतों की सृष्टि यानी मनुष्य समुदाय दो ही प्रकार का है, एक तो दैवी प्रकृति वाला और दूसरा आसुरी प्रकृति वाला। (जो खुद को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या दलित समझ रहे हैं वे गलत मार्ग पर हैं)।
 
25. काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के द्वार। आत्मा को नीचे गिराने वाले अर्थात्‌ उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए।
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