'मनुष्य खो गया है और एक जंगल में भटक रहा है, जहां वास्तविक मूल्यों का कोई अर्थ नहीं है। वास्तविक मूल्यों का मनुष्य के लिए तभी अर्थ हो सकता है, जब वह आध्यात्मिक पथ पर कदम बढ़ाए। यह एक ऐसा पथ है, जहां नकारात्मक भावनाओं का कोई उपयोग नहीं। वर्तमान में जीना सबसे ज्यादा मायने रखता है, इस क्षण को जियो, हर पल अभी है। यह इस क्षण के तुम्हारे विचार और कर्म हैं, जो तुम्हारे भविष्य को बनाते हैं। तुम अपने अतीत से जो रूपरेखा बनाते हो, वही तुम्हारे भविष्य के मार्ग की रूपरेखा बनाते हैं।' -सांईं बाबा
भारत में बहुत से लोग वेदांती और सुन्नी हैं, जो दृढ़ता से एकेश्वरवादी हैं। वे उस एक ईश्वर के अलावा अन्य किसी के समक्ष झुकने को शिर्क या पाप मानते हैं। उनके लिए 'ब्रह्म ही सत्य है' या 'अल्लाह के अलावा और कोई अल्लाह नहीं।' यह दृढ़ता या कहें यह कायमी हमें समझ में आती है, अच्छी बात है और यह सत्य भी है। लेकिन जब यही दृढ़ लोग दूसरों को भी अपने जैसा बनाने की जोर-जबरदस्ती करते हैं तो फिर धार्मिकता सांप्रदायिकता में बदल जाती है। सांप्रदायिक होना आसान है, लेकिन धार्मिक होना बहुत मुश्किल। ध्यान, प्रार्थना, पूजा या नमाज पढ़ने से कोई धार्मिक बन जाता है तो यह बहुत ही आसान रास्ता है धर्म का। हमने तो पढ़ा और सुना है कि धर्म तो 'अग्निपथ' है। धर्म तो 'सत्य' और 'अहिंसा' है। सत्य का अर्थ आम बुद्धि के लिए समझना बहुत कठिन है।
सांप्रदायिकता के इस सबसे बुरे दौर में किसी धार्मिक व्यक्ति को खोजना बहुत ही मुश्किल है। जो लोग खुद को धर्मनिरपेक्ष या साम्यवादी कहते हैं वे गफलत में हैं या कहे कि वे उन लोगों में से हैं जिनका कोई धर्म नहीं है। यह नए तरह की सांप्रदायिकता है।
मुगलकाल में जब निर्दोष हिन्दुओं को मारा जा रहा था एक मोर्चे पर, तो दूसरे मोर्चे पर निर्दोष मुसलमान भी मारे जा रहे थे। इसके बाद अंग्रेजों ने भारत ही नहीं, संपूर्ण धरती को रक्त से रंग दिया था। किसलिए? ईसाइयत और अंग्रेजी सत्ता के लिए। यही कार्य मंगोल और तुर्क आक्रांताओं ने भी किया।
ऐसे खूनी दौर में नानकदेव, बाबा रामदेव, गोगादेव जाहर वीर, झूलेलाल, वीर तेजाजी महाराज, संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर, रामानंद, सांईंबाबा, संत कबीर, पीपा, भीखा, पाबूजी, मेहाजी मांगलिया, हड़बू, रैदास, रहीम, निजामुद्दीन औलिया, राबिया, हजरत निजामुद्दीन, गजानन महाराज, रविदास, संत रज्जब, पलटू बनिया, शीलनाथ, जालंधरनाथ, नागेश नाथ, भारती नाथ, चर्पटी नाथ, कनीफ नाथ, स्वामी समर्थ, गेहनी नाथ, रेवन नाथ, बालकनाथ आदि हजारों सूफी और हिन्दू संतों ने हिन्दू और मुसलमानों में एकता और प्रेम का संदेश फैलाकर शांति कायम की। एक ही काल में हजारों संतों ने जन्म लेकर मध्यकाल की बर्बरता को कुछ हद तक कम कर दिया था।
हजारों हिन्दू हैं, जो ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर माथा टेकने जाते हैं और हजारों ऐसे मुस्लिम हैं, जो बाबा रामदेव (रामापीर) की समाधि पर माथा टेककर अपने दु:ख दूर करते हैं। गोगा जाहरवीर के मेले में हिन्दू, मुस्लिम और सिख भारी संख्या में जाते हैं। दरअसल, ऊपर लिखे नाम उन लोगों के नाम हैं जिन्होंने अपने दौर में हिन्दुओं को मुस्लिम कट्टरता से और मुस्लिमों को हिन्दू कट्टरता से बचाया था। इन सभी नामों में एक नाम सांईं बाबा का भी है।
जब सांईं बाबा थे तब अहमदनगर जिला हैदराबाद के निजाम के अधीन था। उनका परिवार पाथरी में रहता था। निजाम कट्टरपंथी था। उसने हजारों हिन्दुओं का कत्लेआम करवाया और हजारों को मुसलमान बनाया। सांईं बाबा पर ये आरोप हैं कि वे भी एक जिहादी थे। यदि ऐसा होता तो शिर्डी आज मुस्लिम बहुल क्षेत्र होता। यदि ऐसा नहीं भी होता तो कम से कम उनके साथ के लोग तो मुसलमान बन ही जाते।
कौन थे उनके साथ?
उनके साथ- वाइजा माई, म्हालसापति, श्यामा, चांदपाशा पाटिल, श्रीअन्नासाहेब दाभोलकर, हाजी अब्दुल बाबा, शामा, सावित्रीबाई, काकासाहेब दीक्षित, नानासाहेब चांदोरकर, बालासाहेब, तात्यासाहेब नूलकर, अमीदास भवानी मेहता, बाबूसाहेब बूटी आदि सैकड़ों हिन्दू और मुसलमान थे। इनमें से कोई भी न तो हिन्दू बना और न मुसलमान। इनमें से एक भी हिन्दू न तो आधा मुसलमान जैसा बना और न कोई मुस्लिम आधा हिन्दू जैसा बना। बस सांईं थे ऐसे।
एक हिन्दू ने अपने मुसलमान भाइयों के लिए मस्जिद बनवाई थी, लेकिन मुसलमानों के जाने के बाद वह मस्जिद खंडहर हो चुकी थी तथा वहां नमाज नहीं पढ़ी जाती थी। बाबा को जब और कोई ठिकाना न मिला हो उन्होंने मस्जिद की साफ-सफाई करवाकर उसे अपने रहने का स्थान बनाया और उस स्थान का नाम रखा- 'द्वारिकामाई'। अब वह मस्जिद नहीं थी, लेकिन गांव के मुसलमान उसे 'हिन्दू मस्जिद' कहते थे और आज भी लोग उसे मस्जिद ही मानते हैं, जबकि जहां नमाज पढ़ी जाती है उसे मस्जिद कहा जाता है। सांईं के रहने के बाद वह मस्जिद कहां रही? वह तो सभी धर्मों का एक केंद्र स्थल बन गया था।
क्यों रहे मस्जिद में बाबा?
शंकराचार्य के आदेश के तहत आजकल सांईं बाबा की मूर्ति को कुछ प्रमुख मंदिरों से हटाया जा रहा है। लेकिन कितने लोग जानते हैं कि यदि बाबा को मंदिर में ही रहने का आसरा मिल जाता तो वे खंडहरनुमा मस्जिद में क्यों रहते?
बाबा खंडोबा मंदिर के पास ही रुके थे। म्हालसापति ने उनको 'आओ सांईं' कहकर बुलाया था। बाबा ने कुछ दिन मंदिर में गुजारे, लेकिन उन्होंने देखा कि म्हालसापति को संकोच हो रहा है, तो वे समझ गए और वे खुद ही मंदिर से बाहर निकल गए। फिर उन्होंने खंडहर पड़ी मस्जिद को अपने रहने का स्थान बनाया।
बाबा के पहनावे के कारण सभी उन्हें मुसलमान मानते थे जबकि उनके माथे पर जो कफनी बांधी थी वो उनके हिन्दू गुरु वैकुंशा बाबा ने बांधी थी और उनको जो सटाका (चिमटा) सौंपा था वह उनके प्रारंभिक नाथ गुरु ने दिया था। उनके कपाल पर जो शैवपंथी तिलक लगा रहता था वह भी नाथ पंथ के योगी ने लगाया था और उनसे वचन लिया था कि इसे तू जीवनभर धारण करेगा। इसके अलावा उनका संपूर्ण बचपन सूफी फकीरों के सान्निध्य में व्यतीत हुआ।
सांईं बाबा के पास खुद का कुछ नहीं था
बचपन में मां-बाप मर गए तो सांईं और उनके भाई अनाथ हो गए। फिर सांईं को एक वली फकीर ले गए। बाद में वे जब अपने घर पुन: लौटे तो उनकी पड़ोसन चांद बी ने उन्हें भोजन दिया और वे उन्हें लेकर वैंकुशा के आश्रम ले गईं और वहीं छोड़ आईं। बाबा के पास उनका खुद का कुछ भी नहीं था। न सटका, न कफनी, न कुर्ता, न ईंट, न भिक्षा पात्र, न मस्जिद और न रुपए-पैसे।
बाबा के पास जो भी था वह सब दूसरों का दिया हुआ था। दूसरों के दिए हुए को वे वहीं दान भी कर देते थे। वे जो भिक्षा मांगकर लाते थे वह अपने कुत्ते और पक्षियों के लिए लाते थे। बाबा ने जीवनभर एक ही कुर्ता या कहें कि चोगा पहनकर रखा, जो दो जगहों से फट गया था। उसे आज भी आप शिर्डी में देख सकते हैं।