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Written By अनिरुद्ध जोशी

श्मशान घाट की अग्नि सबसे खराब, कैसे और क्यों?

श्मशान घाट की अग्नि सबसे खराब, कैसे और क्यों? | shamshan ghat
हाल ही में मुरारी बापूजी ने गुजरात के एक जोड़े की श्मशान घाट में शादी करवा दी। कहते हैं कि वर और वधु ने चिता के फेरे लिए थे। निश्चत ही यह घोर निंदनीय है। धर्म का मार्ग दिखाने वाले कैसे ऐसा अधर्मी कार्य कर सकते हैं? धर्मशास्त्र हमें सही और गलत में फर्क करना सिखाता है। उसमें मुख्‍यत: 16 संस्कारों को अच्छे से परिभाषित किया गया है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि मंदिर में देवता के समक्ष किसी का दाह संस्कार कर दें? तब फिर कैसे कोई चिता के फेरे ले सकता है? आओ जानते हैं कि शास्त्र क्या कहता है।
 
शास्त्र अनुसार 27 प्रकार की अग्नि होती है। प्रत्येक कार्य के लिए अलग-अलग अग्नि का प्रयोग होता है। विवाह में जिस अग्नि को प्रज्जवलित किया जाता है उसे योजक कहते हैं जबकि चिता की अग्नि को क्रव्याद कहते हैं। दोनों का गुण-धर्म अलग-अलग होता है। माना जाता है कि योजक अग्नि जोड़ने का कार्य करती है जबकि क्रव्याद अग्नि समाप्त करने का कार्य करती है।
 
श्मशान घाट की भूमि पर किसी भी प्रकार का मंगलाचरण या मंगलगान नहीं किया जाता है। केवल लोमभ्य स्वाहा, त्वचे स्वाहा आदि मन्त्रों को छोड़कर वेद मन्त्रों का पाठ भी श्मशान में वर्जित है। विवाह में सभी तरह की मांगलिक वस्तुओं का होना आवश्यक है जबकि श्मशान में कोई भी वस्तु न तो मांगलित होती है और शमशान का वास्तु भी मांगलिक नहीं होता है। विवाह नए जीवन का प्रारंभ है जबकि श्मशान जीवन का अंत।
 
 
जहां विवाह होता है वहां कलश, मंडप, सुगंध, यज्ञ वेदी मंत्रोच्चार आदि के द्वारा सकारात्मक ऊर्चा का निर्माण किया जाता है जबकि शमशन में नकारात्मक ऊर्जा रहती है। श्मशान में प्रत्येक व्यक्ति दुखी होकर ही आता है और दुखी ही जाता है। वहां अशुद्ध हवा और राख होती है जिसका हमें संभवत: अनुभव नहीं होता। उस रुदन और भयावह वातावरण में विवाह अनुचित है।
 
श्मशान की भूमि पर शिव और भैरव की ही स्थापना होती। शिवजी के पार्वती के साथ नहीं होती, क्योंकि श्मशान भूमि पर पत्नी साथ में नहीं रहती है। विवाह आदि मांगलिक कार्यों में हम स्नान आदि करने के बाद सम्मलित होते हैं जबकि श्मशान से आने के बाद हमें स्नान करना होता है क्योंकि वह भूमि अपवित्र होती है। मृतकों को जलाकर हमें स्नान करके शुद्ध होना होता है। श्मशान इसीलिए नगर के बाहर होते थे ताकि वहां की नकारात्क ऊर्जा और अपवित्र राख हवा के साथ घर में न घुसे। शवदाह के बाद तीसरे दिन अस्थि संचय करने के बाद भी स्नान करके शुद्ध होना होता है।
 
 
अत: शुद्धता, पवित्रता और शास्त्र सम्मत व्यवहार का ध्यान रखना जरूरी है। यदि आप संतों के बहकावे या प्रभाव में आकर कोई ऐसा आचरण करते हैं जोकि धर्म विरुद्ध है, तो निश्चित ही इसका आपको दोष लगेगा ही। ईश्वर, धर्म, देवी या देवता से बढ़कर नहीं होते हैं संत। संतों के अंधे भक्त न बनें।