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Written By अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

हिन्दू मंदिर जा रहे हैं तो हो जाएं सावधान!

हिन्दू मंदिर जा रहे हैं तो हो जाएं सावधान! - hindu mandir rules
मंदिर को अंग्रेजी में भी 'मंदिर' ही कहते हैं 'टेम्पल' (Temple) नहीं। टेम्पल कहकर आप मंदिर की प्रतिष्ठा गिराते हो। मंदिर का अर्थ होता है- मन से दूर कोई स्थान। 'मंदिर' का शाब्दिक अर्थ 'घर' है और मंदिर को द्वार भी कहते हैं, जैसे रामद्वारा, गुरुद्वारा आदि। मंदिर को आलय भी कह सकते हैं, जैसे कि शिवालय, जिनालय आदि। लेकिन जब हम कहते हैं कि मन से दूर जो है, वह मंदिर है तो उसके मायने बदल जाते हैं। अत: मन्दिर सिर्फ मंदिर होता है जहां सिर्फ आदित्य, रुद्र, विष्णु, लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश, हनुमान, दुर्गा, पार्वती, श्रीराम, श्रीकृष्ण, कालिका, भैरव, कार्तिकेय और गणेशजी की पूजा-प्रार्थना होती है। जहां किसी भी प्रकार के ग्रह-नक्षत्रों, साधु-संन्यासियों और गुरुओं आदि की पूजा नहीं होती।
hindu mandir
मान्यता है कि धर्म की रक्षा के लिए नियुक्त श्रीहनुमानजी, भैरव महाराज, शनि भगवान और माता कालिका ऐसे अपराधियों पर नजर रखे हुए हैं जिन्होंने मंदिर संबंधी अपराध किए हैं। मान्यता अनुसार इसके अलावा आप:, अर्यमा, यम, धाता और धर्मराज की नजर भी आपके पाप और पुण्य पर हैं। आजकल मंदिर के नाम पर लोग गोड़से, लालू, रजनीकांत, अमिताभ बच्चन सहित अन्य मनमाने देवताओं का मंदिर बनाने का घोर अपराध कर रहे हैं। ये सभी हिन्दू धर्म के अपराधी हैं, जिन्होंने मंदिर का मजाक उड़ाया। इन सभी को शस्त्र सम्मत सजा दिये जाने का प्रवधान है।
 
यह भी तय करें कि आप जिस मंदिर में जा रहे हैं वह हिन्दू देवता या भगवान का मंदिर ही है या कि कुछ और। देशभर में ऐसे कई मंदिर है जो मंदिर की श्रेणी में नहीं आते हैं, वे किसी संत की समाधी, किसी राजा की कब्र, किसी भूत, अप्सरा, यक्षिणी या वीर साधना, तांत्रिक साधना का केंद्र भी हो सकता है। हिन्दू धार्मिक परंपरा में एक ओर जहां देव, नाग, गंधर्व, अप्सरा, विद्याधर, सिद्ध, यक्ष, यक्षिणी, भैरव, भैरवी आदि सकारात्मक शक्तियों की बात की गई है तो वहीं दैत्य, दानव, राक्षस, पिशाच, पिशाचिनी, गुह्मक, भूत, वेताल आदि नकारात्मक शक्तियों की साधना का उल्लेख भी मिलता है। कालांतर में सभी शक्तियों के मंदिर बन गए हैं जो उचित नहीं है।
 
मंदिर है तो उस मंदिर में सिर्फ संध्योपासना की जाती है, जिसे संध्यावंदन भी कहते हैं। संध्योपासना के 5 प्रकार हैं- 1.प्रार्थना, 2.ध्यान, 3.कीर्तन, 4.यज्ञ और 5.पूजा-आरती। व्यक्ति की जिस में जैसी श्रद्धा है वह वैसा करता है। सभी के अलग-अलग समय और नियम नियुक्त हैं। दोपहर 12 से 4 के बीच अधिकतर मंदिरों के पट बंद रहते हैं इस काल में पूजा-अर्चना नहीं की जाती है। पूजा-आरती नियुक्त संधिकाल में ही की जाती है।
 
एक समय था जब लोग मंदिर में विशेष वस्त्र पहनकर जाते थे। आजकल तो जिंस-पेंट और मोजे पहनकर मंदिर में चले जाते हैं और वहां किसी ने उन्हें कॉल किया है तो उसे भी अटेंड कर ही लेते हैं। अर्थात उनके लिए मंदिर जाना एक औपचारिकता ही है। फिर वहां कोई परिचित मिल गया तो देवमूर्ति के सामने ही गोष्ठी करने लग जाते हैं। आप कह सकते हैं कि ये देवता और हमारे बीच का मामला है। यह सही है कि आपने शास्त्र पढ़ें होंगे। हो सकता है कि जो मंदिर का पुजारी है वह भी पढ़ा-लिखा ही होगा, तभी तो इस सबकी वह इजादत दे देता है। उल्लेखनीय है कि पुजारी और पंडित में फर्क होता है।
 
सभी तरह के नियमों को ताक में रखकर आप मंदिर जा रहे हैं यह सोचकर की हम तो भक्त हैं, तो आप एक बार फिर से सोच लें कि क्या आप सचमुच ही भक्त हैं? हमने तो देखा है कि व्यक्ति पर जब आफत आती है तभी भक्ति जाग्रत होती है। जब आफत चली जाती है तो भक्ति भी चली जाती है। आप यदि मंदिर और देवता का सम्मान नहीं कर सकते तो फिर आपसे किसी भी प्रकार की अपेक्षा नहीं की जा सकती। आप मंदिर में जाकर करते भी क्या हैं? अगरबत्ती लगाना, हार चढ़ाना, नारियल फोड़ना और थोड़ी देर हाथ जोड़कर खड़े हो जाना, बस हो गया काम। कर्तव्य पूरा कर लिया। खैर...आपकी जानकारी के लिए हम बता दें कि मंदिर में यदि आप नियम का पालन नहीं करते हैं तो उससे आपके जीवन में कैसी आफत आ सकती है।...तो जान लें नियम...

मंदिर जाने से पहले आचमन जरूरी : मंदिर में प्रवेश से पूर्व आचमन किया जाता है। अधिकतर मंदिरों के बाहर जल की व्यवस्था होती है। वहां बैठकर आचमन किया जाता है। हालांकि आचमन की प्रक्रिया तो लंबी है, लेकिन शरीर और इंद्रियों को जल से शुद्ध करने के बाद आचमन कर लें। इस शुद्ध करने की प्रक्रिया को ही आचमन कहते हैं।
मनुस्मृति में कहा गया है कि- नींद से जागने के बाद, भूख लगने पर, भोजन करने के बाद, छींक आने पर, असत्य भाषण होने पर, पानी पीने के बाद, और अध्ययन करने के बाद आचमन जरूर करें।
 
शास्त्रों में कहा गया है कि त्रिपवेद आपो गोकर्णवरद् हस्तेन त्रिराचमेत्। यानी आचमन के लिए बाएं हाथ की गोकर्ण मुद्रा ही होनी चाहिए तभी यह लाभदायी रहेगा। गोकर्ण मुद्रा बनाने के लिए दर्जनी को मोड़कर अंगूठे से दबा दें। उसके बाद मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका को परस्पर इस प्रकार मोड़ें कि हाथ की आकृति गाय के कान जैसी हो जाए।
 
आचमन करते समय हथेली में 5 तीर्थ बताए गए हैं:- 1.देवतीर्थ, 2.पितृतीर्थ, 3.ब्रह्मातीर्थ, 4.प्राजापत्यतीर्थ और 5. सौम्यतीर्थ।
 
कहा जाता है कि अंगूठे के मूल में ब्रह्मातीर्थ, कनिष्ठा के मूल में प्रजापत्यतीर्थ, अंगुलियों के अग्रभाग में देवतीर्थ, तर्जनी और अंगूठे के बीच पितृतीर्थ और हाथ के मध्य भाग में सौम्यतीर्थ होता है, जो देवकर्म में प्रशस्त माना गया है। आचमन हमेशा ब्रह्मातीर्थ से करना चाहिए। आचमन करने से पहले अंगुलियां मिलाकर एकाग्रचित्त यानी एकसाथ करके पवित्र जल से बिना शब्द किए 3 बार आचमन करने से महान फल मिलता है। आचमन हमेशा 3 बार करना चाहिए।

मंदर के सख्‍त नियम : यदि आप मंदिर में हैं तो इन बातों का विशेष ध्यान रखें अन्यथा आपकी पूजा, प्रार्थना आदि करने का कोई महत्व नहीं रहेगा और मंदर के देवता रुष्ठ हो जाएंगे। उल्लेखनीय है कि ईश्वर और भगवान शिव तो आपके अपराध को क्षम ही करते हैं आप चाहे जितने अपराध करें, लेकिन हनुमानजी, कालिका, शनि और दुर्गा के मंदिर में इसकी कोई गारंटी नहीं।

नीचे बताई जा रही बातें करके आप मंदिर और देव संबंधी अपराध करते हैं। इसके दुष्परिणाम भी आपको ही झेलना होंगे। शास्त्रों में जो मना किया गया है उसे करना पाप और कर्म को बिगाड़ने वाला माना गया है। यहां प्रस्तुत हैं कुछ प्रमुख आचरण जिन्हें मंदिर में नहीं करना चाहिए अन्यथा आपकी प्रार्थना या पूजा निष्फल तो होती ही है, साथ ही आप देवताओं की नजरों में गिर जाते हो।
 
1.भगवान के मंदिर में खड़ाऊं या सवारी पर चढ़कर जाना।
2.भगवान के सामने जाकर प्रणाम न करना।
3.उच्छिष्ट या अपवित्र अवस्था में भगवान की वन्दना करना।
5.एक हाथ से प्रणाम करना।
6.भगवान के सामने ही एक स्थान पर खड़े-खड़े प्रदक्षिणा करना।
7.भगवान के आगे पांव फैला कर बैठना।
8.मंदिर में पलंग पर बैठना या पलंग लगाना।
9.मंदिर में सोना।
10. मंदिर में बैठकर परस्पर बात करना।
11.मंदिर में रोना या जोर जोर से हंसना।
12.चिल्लाना, फोन पर बात करना, झगड़ना, झूठ बोलना, गाली बकना।
13.खाना या नशा करना।
14.किसी को दंड देना।
15.कंबल ओढ़कर बैठना।
16.अधोवायु का त्याग करना।
17.अपने बल के घंमड में आकर किसी पर अनुग्रह करना।
18.दूसरे की निंदा या स्तुति करना।
19.स्त्रियों के प्रति कठोर बात कहना।
20.भगवत-सम्बन्धी उत्सवों का सेवन न करना।
21.शक्ति रहते हुए गौण उपचारों से पूजा करना।
22.मुख्य उपचारों का प्रबन्ध न करना।
23.भगवान को भोग लगाए बिना ही भोजन करना।
24.सामयिक फल आदि को भगवान की सेवा में अर्पण न करना।
25.उपयोग में लाने से बचे हुए भोजन को भगवान के लिए निवेदन करना।
26.आत्म-प्रशंसा करना।
27. देवताओं को कोसना।
28.आरती के समय उठकर चले जाना।
29.मंदिर के सामने से निकलते हुए प्रणाम न करना। करना तो एक हाथ उठाकर।
30.भजन-कीर्तन आदि के दौरान किसी भी भगवान का वेश बनाकर खुद की पूजा करवाना।
31.मूर्ति के ठीक सामने खड़े होना।
32.मंदिर से बाहर निकलते वक्त भगवान को पीठ दिखाकर बाहर निकलना।
33.हिन्दू देवी-देवताओं को छोड़कर अन्य किसी का मंदिर बनाना सबसे घोर अपराध है।
34. दुर्गा, कालिका और हनुमान मंदिर में सिर ढंककर जाते हैं।
35.महिलाओं को मंदिरमें सिर ढंकर ही जाना चाहिए।
36.मंदिर में रुपये या पैसे फेंकना भी अपराध है। अक्सर आपने देखा होगा कि लोग मंदिर में सिक्का या नोट भगवान के सामने फेंकते हैं और फिर हाथ जोड़कर भगवान से मनोकामना मांगते हैं। क्या आप नोट देकर मनोकमना पूर्ण करवाना चाहते हैं?10 रुपये चढ़ाकर करते हैं करोड़ों कि कामना?
 

उपरोक्त नियम यदि आप नहीं मानते हैं तो कोई बात नहीं। दंड देने वाले शनि और यमराज की आप पर भलिभांति नजर है। आप जेलखाने, दवाखाने या पागलखाने से बच नहीं सकते। गृहकलह, दुर्घटना, हत्या या आत्महत्या के दुष्चक्र में फंसकर आप अपनी ही नहीं अपने परिवार की भी जिंदगी दांव पर लगा देंगे।

मंदिर समय : हिन्दू मंदिर में जाने का समय होता है। सूर्य और तारों से रहित दिन-रात की संधि को तत्वदर्शी मुनियों ने संध्याकाल माना है। संध्या वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं। संधिकाल में ही संध्या वंदना की जाती है। वैसे संधि 5 वक्त (समय) की होती है, लेकिन प्रात:काल और संध्‍याकाल- उक्त 2 समय की संधि प्रमुख है अर्थात सूर्य उदय और अस्त के समय।

इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है। दोपहर 12 से अपराह्न 4 बजे तक मंदिर में जाना, पूजा, आरती और प्रार्थना आदि करना निषेध माना गया है अर्थात प्रात:काल से 11 बजे के पूर्व मंदिर होकर आ जाएं या फिर अपराह्नकाल में 4 बजे के बाद मंदिर जाएं।
 
मंदिर के वार : शिव के मंदिर में सोमवार, विष्णु के मंदिर में रविवार, हनुमान के मंदिर में मंगलवार, शनि के मंदिर में शनिवार और दुर्गा के मंदिर में बुधवार और काली व लक्ष्मी के मंदिर में शुक्रवार को जाने का उल्लेख मिलता है। गुरुवार को गुरुओं का वार माना गया है। इस दिन सभी गुरुओं के समाधि मंदिर में जाने का महत्व है।
 
रविवार और गुरुवार धर्म का दिन : विष्णु को देवताओं में सबसे ऊंचा स्थान प्राप्त है और वेद अनुसार सूर्य इस जगत की आत्मा है। शास्त्रों के अनुसार रविवार को सर्वश्रेष्ठ दिन माना जाता है। रविवार (विष्णु) के बाद देवताओं की ओर से होने के कारण बृहस्पतिवार (देव गुरु बृहस्पति) को प्रार्थना के लिए सबसे अच्छा दिन माना गया है।
 
गुरुवार क्यों सर्वश्रेष्ठ? रविवार की दिशा पूर्व है किंतु गुरुवार की दिशा ईशान है। ईशान में ही देवताओं का स्थान माना गया है। यात्रा में इस वार की दिशा पश्चिम, उत्तर और ईशान ही मानी गई है। इस दिन पूर्व, दक्षिण और नैऋत्य दिशा में यात्रा त्याज्य है। गुरुवार की प्रकृति क्षिप्र है। इस दिन सभी तरह के धार्मिक और मंगल कार्य से लाभ मिलता है अत: हिन्दू शास्त्रों के अनुसार यह दिन सर्वश्रेष्ठ माना गया है अत: सभी को प्रत्येक गुरुवार को मंदिर जाना चाहिए और पूजा, प्रार्थना या ध्यान करना चाहिए।

संध्योपासना के 4 प्रकार हैं- 1.प्रार्थना, 2.ध्यान, 3.कीर्तन और 4. पूजा-आरती। व्यक्ति की जिसमें जैसी श्रद्धा है, वह वैसा ही करता है।
पूजा-आरती : पूजा-आरती एक रासायनिक क्रिया है। इससे मंदिर के भीतर वातावरण की पीएच वैल्यू (तरल पदार्थ नापने की इकाई) कम हो जाती है जिससे व्यक्ति की पीएच वैल्यू पर असर पड़ता है। यह आयनिक क्रिया है, जो शारीरिक रसायन को बदल देती है। यह क्रिया बीमारियों को ठीक करने में सहायक होती है। दवाइयों से भी यही क्रिया कराई जाती है, जो मंदिर जाने से होती है।
 
प्रार्थना : प्रार्थना में शक्ति होती है। प्रार्थना करने वाला व्यक्ति मंदिर के ईथर माध्यम से जुड़कर अपनी बात ईश्वर तक पहुंचा सकता है। दूसरा यह कि प्रार्थना करने से मन में विश्‍वास और सकारात्मक भाव जाग्रत होते हैं, जो जीवन के विकास और सफलता के अत्यंत जरूरी हैं।
 
कीर्तन-भजन : ईश्वर, भगवान या गुरु के प्रति स्वयं के समर्पण या भक्ति के भाव को व्यक्त करने का एक शांति और संगीतमय तरीका है कीर्तन। इसे ही भजन कहते हैं। भजन करने से शांति मिलती है। भजन करने के भी नियम हैं। गीतों की तर्ज पर निर्मित भजन, भजन नहीं होते। शास्त्रीय संगीत अनुसार किए गए भजन ही भजन होते हैं। सामवेद में शास्त्रीय सं‍गीत का उल्लेख मिलता है।
 
ध्यान : ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं होता, ध्यान का मूलत: अर्थ है जागरूकता। अवेयरनेस। होश। साक्ष‍ी भाव। ध्यान का अर्थ ध्यान देना, हर उस बात पर जो हमारे जीवन से जुड़ी है। शरीर पर, मन पर और आसपास जो भी घटित हो रहा है उस पर। विचारों के क्रियाकलापों पर और भावों पर। इस ध्यान देने के जरा से प्रयास से ही हम अमृत की ओर एक-एक कदम बढ़ा सकते हैं। ध्यान को ज्ञानियों ने सर्वश्रेष्ठ माना है। ध्यान से मनोकामनाओं की पूर्ति होती है और ध्यान से मोक्ष का द्वार खुलता है।
 
प्राचीनकाल में प्राचीन मंदिर सामूहिक स्तुति, ध्यान या प्रार्थना के लिए होते थे। उन मंदिर के स्तंभों या दीवारों पर ही मूर्तियां आवेष्टित की जाती थी। मंदिरों में पूजा-पाठ नहीं होता था। यदि आप खजुराहो, कोणार्क या दक्षिण के प्राचीन मंदिरों की रचना देखेंगे तो जान जाएंगे कि मंदिर किस तरह के होते हैं। ध्यान या प्रार्थना करने वाली पूरी जमात जब खतम हो गई है तो मंदिरों पर पूजा-पाठ का प्रचलन बड़ा। पूजा-पाठ के प्रचलन से मध्यकाल के अंत में मनमाने मंदिर बने। मनमाने मंदिर से मनमानी पूजा-आरती आदि कर्मकांडों का जन्म हुआ जो वेदसम्मत नहीं माने जा सकते। जानकार कहते हैं कि उसी मंदिर का महत्व है जिसमें सामूहिक रूप से दो संधिकाल (प्रात: और संध्या) में ठीक और एक ही वक्त पर ध्यान या प्रार्थना की जाती है। मंदिरों में यदि मूर्तियों की पूजा होती है तो कोई बात नहीं, लेकिन एक हाल भी होना चाहिए जहां पांच सौ से हजार लोग प्रार्थना कर सके, प्रवचन सुन सके। परमेश्वर की प्रार्थना के लिए वेदों में कुछ ऋचाएं दी गई है, प्रार्थना के लिए उन्हें याद किया जाना चाहिए।