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Written By WD

जहां मंदिर-मस्जिद, दरगाह-समाधि एक साथ महकते हैं...

-विजय मनोहर तिवारी

Shirdi sai Baba | जहां मंदिर-मस्जिद, दरगाह-समाधि एक साथ महकते हैं...
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कोई सदियों पुरानी परंपरा नहीं है साईं की। वे पुराण प्रसिद्ध भी नहीं हैं। न तो उन्होंने रावण का वध कर रामायण रची-राम की तरह। न महाभारत के सूत्रधार बनकर गीता का ज्ञान दिया-कृष्ण की तरह। राजपाट से मुंह मोडक़र सत्य की खोज में नहीं भटके-बुद्ध और महावीर की तरह। देश के कोनों को नापने नहीं निकले-शंकराचार्य की तरह। आध्यात्मिक प्रखरता का परचम पश्चिम में नहीं फहराया-विवेकानंद की तरह। 20 साल की उम्र में शिरडी आए। 60 साल तक डटे। ट्रेन तक की सवारी नहीं की। दो गांव हैं-राहाता और नीमगांव। शिरडी के दोनों तरफ। इनकी सीमाओं के पार नहीं गए। ताजिंदगी।

सांईं बाबा मंदिर के फोटो...

शिरडी में वे एक बारात में आए। बारात लौट गई। वे यहीं रह गए। पौधे लगाए। हाथों से सींचकर दरख्त बनाए। एक मस्जिद में डेरा डाला। मस्जिद का नाम-द्वारकामाई। इससे पहले कि लोग मुस्लिम समझें, उन्होंने मस्जिद में धूनी रमा ली। हिंदू योगी की तरह। लेकिन दो शब्द हमेशा दोहराते- 'अल्लाह मालिक।'

न चेलों की फौज, न दौलत के ढेर। लिबास और भिक्षा पात्र के सिवा अपना कुछ नहीं। नाम तक नहीं। बारात के स्वागतकर्ताओं में एक थे- म्हालसापति। बैलगाड़ी में आए युवा फकीर को देखा। झुककर कह दिया- ‘आओ साईं।’ अनजान गांव में एक अनाम फकीर को नाम मिल गया।

अपने आसपास आए दुखियारों को ढांढस बंधाते। भले काम की तालीम देते। बुरा सोचने वालों को खूब फटकारते। दिखावे से दूर। सीधे। सहज। सरल। बाबा ने चमचमाते आश्रम नहीं बनाए। अमीर भक्तों की जमात नहीं जोड़ी। एक कोढ़ी को सेवा में सबसे करीब आने दिया। उसका नाम था- भागोजी शिंदे।

दक्षिणा में सैकड़ों रुपए मिलते। दूसरों में बांटकर खुद जमीन पर सोते। रोज। हर सुबह पांच घरों के सामने हाथ पसारे दिखते। एक शिष्य हेमाड पंत ने गजब के किस्से लिखे हैं। एक दिलचस्प अध्याय भी है। चमत्कारी किस्से-कहानियों से अलग। कम लोगों का ध्यान इस तरफ गया।

श्रद्धा के सैलाब में छिपा एक बेशकीमती प्रयोग। बड़े से बड़ा सुधारवादी भी आज जिसकी कल्पना नहीं कर सकता। 1911 की बात है। निर्वाण के सात साल पहले। बाबा ने रामनवमी का जबर्दस्त जलसा शुरू कराया। मस्जिद में। इसमें गोकुल उत्सव और उर्स-मोहर्रम भी जोड़ दिए। इस क्रांतिकारी प्रयोग में हाजी अली भक्तों के माथे पर चंदन का टीका लगाते। काका साहेब दीक्षित उर्स में पानी का इंतजाम करते।

अब्दुल बाबा। साईं के सेवक थे। उनकी दरगाह बाबा की समाधि के बगल में है। समाधि मंदिर में जब हजारों कंठों से आरती गूंजती है तो दरगाह में मौजूद मालेगांव के मोहम्मद अशरफ की हथेलियां भी ताली बजाने लगती हैं। दरगाह से उठी लोभान की खुशबू मंदिर से लौटते इंदौर के डॉ. राजेश पी. माहेश्वरी के कदम अब्दुल बाबा की पनाह में मोड़ देती है। तीस हजार की बस्ती है। हर दिन बीस हजार और तीज-त्योहारों पर एक लाख लोग आते हैं। अनगिनत अशरफ और नामालूम कितने मोती। जहां मंदिर-मस्जिद और दरगाह-समाधि एक साथ महकते हैं। साल के तीन सौ पैंसठ दिन। पूरे सौ साल से।

साईं बाबा पर लिखी जा रही विजय मनोहर तिवारी की पुस्तक से अंश...