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महाभारत की 7 रहस्यमयी जन्म कथा

महाभारत की 7 रहस्यमयी जन्म कथा | Mysterious birth story of Mahabharata
महाभारत के हर व्यक्ति या यौद्धा की जन्म कथा विचित्रता लिए हुए है। उस काल में बहुत कम ही ऐसे लोग थे जो सामान्य तरीके से जन्मे हो। अधिकतर के जन्म से जुड़ी कथाएं विचित्र और रहस्यमयी है।
भगवान कृष्ण और अश्‍वत्थामा का जन्म भी रहस्य और विचित्रताओं से भरा हुआ है। इसी तरह और भी कई थे जिनमें से कुछ लोगों के जन्म के रहस्य के बारे में जानिए...
 
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विचित्रवीर्य : विचित्रवीर्य की 2 पत्नियां अम्बिका और अम्बालिका थीं। दोनों को कोई पुत्र नहीं हो रहा था तो सत्यवती के पुत्र वेदव्यास माता की आज्ञा मानकर बोले, 'माता! आप उन दोनों रानियों से कह दीजिए कि वे मेरे सामने से निर्वस्त्र होकर गुजरें जिससे कि उनको गर्भ धारण होगा।'
सबसे पहले बड़ी रानी अम्बिका और फिर छोटी रानी अम्बालिका गई, पर अम्बिका ने उनके तेज से डरकर अपने नेत्र बंद कर लिए जबकि अम्बालिका वेदव्यास को देखकर भय से पीली पड़ गई। वेदव्यास  लौटकर माता से बोले, 'माता अम्बिका को बड़ा तेजस्वी पुत्र होगा किंतु नेत्र बंद करने के दोष के कारण वह अंधा होगा जबकि अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पुत्र पैदा होगा।'
 
यह जानकर के माता सत्यवती ने बड़ी रानी अम्बिका को पुनः वेदव्यास के पास जाने का आदेश दिया। इस बार बड़ी रानी ने स्वयं न जाकर अपनी दासी को वेदव्यास के पास भेज दिया। दासी बिना किसी संकोच के वेदव्यास के सामने से गुजरी। इस बार वेदव्यास ने माता सत्यवती के पास आकर कहा, 'माते! इस दासी के गर्भ से वेद-वेदांत में पारंगत अत्यंत नीतिवान पुत्र उत्पन्न होगा।' इतना कहकर वेदव्यास तपस्या करने चले गए।
 
अम्बिका से धृतराष्ट्र, अम्बालिका से पाण्डु और दासी से विदुर का जन्म हुआ। तीनों ही ऋषि वेदव्यास की संतान थी। अब आप सोचिए इन्हीं 2 पुत्रों में से एक धृतराष्ट्र के यहां जब कोई पुत्र नहीं हुआ तो वेदव्यास की कृपा से ही 99 पुत्र और 1 पुत्री का जन्म हुआ।
 
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पाण्डु पुत्र : महाभारत के आदिपर्व के अनुसार एक दिन राजा पांडु आखेट के लिए निकलते हैं। जंगल में दूर से देखने पर उनको एक हिरण दिखाई देता है। वे उसे एक तीर से मार देते हैं। वह हिरण एक ऋषि निकलते हैं तो अपनी पत्नी के साथ मैथुनरत थे। वे ऋषि मरते वक्त पांडु को शाप देते हैं कि तुम भी मेरी तरह मरोगे, जब तुम मैथुनरत रहोगे। इस शाप के भय से पांडु अपना राज्य अपने भाई धृतराष्ट्र को सौंपकर अपनी पत्नियों कुंती और माद्री के साथ जंगल चले जाते हैं।
जंगल में वे संन्यासियों का जीवन जीने लगते हैं, लेकिन पांडु इस बात से दुखी रहते हैं कि उनकी कोई संतान नहीं है और वे कुंती को समझाने का प्रयत्न करते हैं कि उसे किसी ऋषि के साथ समागम करके संतान उत्पन्न करनी चाहिए। 
 
लाख समझाने के बाद तब कुंति मंत्र शक्ति के बल पर एक-एक कर 3 देवताओं का आह्वान कर 3 पुत्रों को जन्म देती है। धर्मराज से युधिष्टिर, इंद्र से अर्जुन, पवनदेव से भीम को जन्म देती है वहीं इसी मंत्र शक्ति के बदल पर माद्री ने भी अश्विन कुमारों का आह्वान कर नकुल और सहदेव को जन्म दिया। इसका मतलब यह कि पांडु पुत्र असल में पांडु पुत्र नहीं थे। उसी तरह कुंति अपनी कुंवारी अवस्था में सूर्यदेव का आह्‍वान कर कर्ण को जन्म देती है इस तरह कुंति के 4 और माद्री के 2 पुत्र मिलाकर कुल 6 पु‍त्र होते हैं।
 
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कौरवों का जन्म एक रहस्य : कौरवों को कौन नहीं जानता। धृतराष्ट्र और गांधारी के 99 पुत्र और एक पुत्री थीं जिन्हें कौरव कहा जाता था। कुरु वंश के होने के कारण ये कौरव कहलाए। सभी कौरवों में दुर्योधन सबसे बड़ा था। गांधारी जब गर्भवती थी, तब धृतराष्ट्र ने एक दासी के साथ सहवास किया था जिसके चलते युयुत्सु नामक पुत्र का जन्म हुआ। इस तरह कौरव सौ हो गए। युयुत्सु एन वक्त पर कौरवों की सेना को छोड़कर पांडवों की सेना में शामिल हो गया था।
 
गांधारी ने वेदव्यास से पुत्रवती होने का वरदान प्राप्त कर किया। गर्भ धारण कर लेने के पश्चात भी दो वर्ष व्यतीत हो गए, किंतु गांधारी के कोई भी संतान उत्पन्न नहीं हुई। इस पर क्रोधवश गांधारी ने अपने पेट पर जोर से मुक्के का प्रहार किया जिससे उसका गर्भ गिर गया।
 
वेदव्यास ने इस घटना को तत्काल ही जान लिया। वे गांधारी के पास आकर बोले- 'गांधारी! तूने बहुत गलत किया। मेरा दिया हुआ वर कभी मिथ्या नहीं जाता। अब तुम शीघ्र ही सौ कुंड तैयार करवाओ और उनमें घृत (घी) भरवा दो।'
 
वेदव्यास ने गांधारी के गर्भ से निकले मांस पिण्ड पर अभिमंत्रित जल छिड़का जिससे उस पिण्ड के अंगूठे के पोरुये के बराबर सौ टुकड़े हो गए। वेदव्यास ने उन टुकड़ों को गांधारी के बनवाए हुए सौ कुंडों में रखवा दिया और उन कुंडों को दो वर्ष पश्चात खोलने का आदेश देकर अपने आश्रम चले गए। दो वर्ष बाद सबसे पहले कुंड से दुर्योधन की उत्पत्ति हुई। फिर उन कुंडों से धृतराष्ट्र के शेष 99 पुत्र एवं दु:शला नामक एक कन्या का जन्म हुआ।
 
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द्रौपदी की जन्मकथा : कहते हैं कि द्रौपदी का जन्म महाराज द्रुपद के यहां यज्ञकुण्ड से हुआ था इसीलिए उनका एक नाम यज्ञसेनी भी है। श्याम वर्ण होने के कारण उन्हें कृष्णा, अज्ञातकाल में इत्र बेचने के कारण सैरंध्री कहा जाने लगा। पांचों पांडवों की पत्नी होने के कारण लोग उन्हें पांचाली भी कहते थे।
पांडवों द्वारा इनसे जन्मे पांच पुत्र (क्रमशः प्रतिविंध्य, सुतसोम, श्रुतकीर्ती, शतानीक व श्रुतकर्मा) उप-पांडव नाम से विख्यात थे।
 
जब द्रोणाचार्य ने बदले की भावना से गुरुदक्षिणा में पांडवों से द्रुपद राजा को बंदी बनाकर लाने का कहा तो पांडवों ने ऐसा ही किया। राजा द्रुपद को अपमानित महसूस करना पड़ा जिसके चलते वे जंगल चले गए जहां उनकी भेंट दो मुनिकुमारों याज और उपयाज से हुई। उन्होंने उनसे पूछा की द्रोणाचार्य को मारने का कोई उपाय है तो मुनिकुमारों ने कहा कि आप यज्ञ का आयोजन कीजिए। द्रुपद ने ऐसा ही किया और उनके यज्ञ से अग्निदेव प्रकट हुए जिन्होंने एक शक्तिशाली पुत्र दिया जो संपूर्ण आयुध और कवच युक्त था। फिर उन्होंने एक पुत्री दी जो श्यामला रंग की थी। उसके उत्पन्न होते ही एक आकाशवाणी हुई कि इस बालिका का जन्म क्षत्रियों के संहार और कौरवों के विनाश के हेतु हुआ है। बालक का नाम धृष्टद्युम्न एवं बालिका का नाम कृष्णा रखा गया। यही कृष्णा द्रुपद पुत्री होने के कारण द्रौपदी कहलाई।
 
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कृपाचार्य की जन्मकथा : गौतम ऋषि के पुत्र शरद्वान और शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे और वह जिंदा बच गए 18 महायोद्धाओं में से एक थे। लेकिन उन्हों चिरंजीवी रहने का वरदान भी था। 
 
कृपाचार्य के पिता का नाम था शरद्वान और माता का नाम था नामपदी। नामपदी एक देवकन्या थी। इंद्र ने शरद्वान को साधने से डिगाने के लिए नामपदी को भेजा था, क्योंकि वे शक्तिशाली और धनुर्विद्या में पारंगत थे जिससे इंद्र खतरा महसूस होने लगा था।
 
देवकन्या नामपदी (जानपदी) के सौंदर्य के प्रभाव से शरद्वान इतने कामपीड़ित हो गए कि उनका वीर्य स्खलित होकर एक सरकंडे पर गिर पड़ा। वह सरकंडा दो भागों में विभक्त हो गया जिसमें से एक भाग से कृप नामक बालक उत्पन्न हुआ और दूसरे भाग से कृपी नामक कन्या उत्पन्न हुई।
 
शरद्वान-नामपदी ने दोनों बच्चों को जंगल में छोड़ दिया जहां महाराज शांतनु ने इनको देखा और इन पर कृपा करके दोनों का लालन पालन किया जिससे इनके नाम कृप तथा कृपी पड़ गए।
 
पांडवों और कौरवों के गुरु : कृप भी धनुर्विद्या में अपने पिता के समान ही पारंगत हुए। भीष्म ने इन्हीं कृप को पाण्डवों और कौरवों की शिक्षा-दीक्षा के लिए नियुक्त किया और वे कृपाचार्य के नाम से विख्यात हुए।
 
कुरुक्षेत्र के युद्ध में ये कौरवों के साथ थे और कौरवों के नष्ट हो जाने पर ये पांडवों के पास आ गए। बाद में इन्होंने परीक्षित को अस्त्रविद्या सिखाई। कृपाचार्य की बहन कृपी का विवाह गुरु द्रोण के साथ हुआ था। कई का पुत्र का नाम था- अश्वत्थामा।
 
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द्रोणाचार्य : महर्षि भारद्वाज मुनि का वीर्य किसी द्रोणी (यज्ञकलश अथवा पर्वत की गुफा) में स्खलित होने से जिस पुत्र का जन्म हुआ, उसे द्रोण कहा गया। ऐसे भी ‍उल्लेख है कि भारद्वाज ने गंगा में स्नान करती घृताची को देखा और उसे देखकर वे आसक्त हो गए जिसके कारण उनका वीर्य स्खलन हो गया जिसे उन्होंने द्रोण (यज्ञकलश) में रख दिया। बाद में उससे उत्पन्न बालक द्रोण कहलाया। द्रोण का जन्म उत्तरांचल की राजधानी देहरादून में बताया जाता है, जिसे हम देहराद्रोण (मिट्टी का सकोरा) भी कहते थे।
 
द्रोणाचार्य संसार के श्रेष्ठ धनुर्धर थे। द्रोण अपने पिता भारद्वाज मुनि के आश्रम में ही रहते हुये चारों वेदों तथा अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान में पारंगत हो गए थे। द्रोणाचार्य का विवाह कृपाचार्य की बहिन कृपि से हुआ था जिससे उनको एक ‍पुत्र मिला जिसका नाम अश्वत्थामा था। अश्वत्थामा के जन्म की कथा भी बड़ी विचित्र बताई जाती है।

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भीष्म का जन्म : महाभारत के आदिपर्व में उल्लेख है कि वैशंपायनजी जन्मेजय को कथाक्रम में बताते हैं कि इक्ष्वाकु वंश में महाभिष नामक राजा थे। उन्होंने अश्वमेध और राजसूय यज्ञ करके स्वर्ग प्राप्त किया। एक दिन सभी देवता आदि ब्रह्माजी की सेवा में उपस्थित हुए। वायु ने श्रीगंगाजी के वस्त्र को उनके शरीर से खिसका दिया। तब सबों ने आंखें नीची कर लीं, किंतु महाभिष उन्हें देखते रहे। तब ब्रह्माजी ने उनसे कहा कि तुम मृत्युलोक जाओ। जिस गंगा को तुम देखते रहे हो, वह तुम्हारा अप्रिय करेगी। इस प्रकार उनका जन्म प्रतीक के पुत्र शांतनु के रूप में हुआ।
 
प्रतापी राजा प्रतीप के बाद उनके पुत्र शांतनु हस्तिनापुर के राजा हुए। पुत्र की कामना से शांतनु के पिता महाराजा प्रतीप गंगा के किनारे तपस्या कर रहे थे। उनके तप, रूप और सौंदर्य पर मोहित होकर गंगा उनकी दाहिनी जंघा पर आकर बैठ गईं और कहने लगीं, 'राजन! मैं आपसे विवाह करना चाहती हूं। मैं जह्नु ऋषि की पुत्री गंगा हूं।'
 
इस पर राजा प्रतीप ने कहा, 'गंगे! तुम मेरी दाहिनी जंघा पर बैठी हो, जबकि पत्नी को तो वामांगी होना चाहिए, दाहिनी जंघा तो पुत्र का प्रतीक है अतः मैं तुम्हें अपने पुत्रवधू के रूप में स्वीकार कर सकता हूं।' यह सुनकर गंगा वहां से चली गईं।'
 
जब महाराज प्रतीप को पुत्र की प्राप्ति हुई तो उन्होंने उसका नाम शांतनु रखा और इसी शांतनु से गंगा का विवाह हुआ। गंगा से उन्हें 8 पुत्र मिले जिसमें से 7 को गंगा नदी में बहा दिया गया और 8वें पुत्र को पाला-पोसा। उनके 8वें पुत्र का नाम देवव्रत था। यह देवव्रत ही आगे चलकर भीष्म कहलाया।