शुक्रवार, 15 नवंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. धर्म-संसार
  2. सनातन धर्म
  3. इतिहास
  4. mahabharata war
Written By अनिरुद्ध जोशी

कौरव पक्ष को क्यों अधर्मी माना गया, जानिए 5 कारण

कौरव पक्ष को क्यों अधर्मी माना गया, जानिए 5 कारण | mahabharata war
भगवान श्रीकृष्ण ने धर्म का साथ दिया। इसीलिए इसे धर्मयुद्ध कहा गया। अब सवाल यह उठता है कि कौरव पक्ष में गुरु द्रोणाचार्य और भीष्म जैसे ज्ञानी-ध्यानी कई महारथी लोग थे फिर भी उनके पक्ष को अधर्मी कहा गया। ऐसा क्यों? दरअसल, जो सत्य का साथ देता है उसे धर्मी और जो असत्य का साथ देता है उसे अधर्मी कहा जाता है।
 
 
कौरवों के पास 11 अक्षौहिणी तथा पांडवों ने 7 अक्षौहिणी सेना थी। कौरवों के पास सैन्य बल ज्यादा होने के बाद भी वे जीत नहीं सके। आओ जानते हैं कि कौरव पक्ष में ऐसा क्या था किसके कारण उन्हें अधर्मी घोषित कर दिया गया था? इससे पहले जा लें कि किस पक्ष में कौन-कौन था।
 
*कौरवों की ओर से : कौरवों की ओर से दुर्योधन व उसके 99 भाइयों सहित भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, मद्रनरेश शल्य (श्रीराम की 50वीं पीढ़ी में शल्य हुए), भूरिश्रवा, अलम्बुष, कृतवर्मा कलिंगराज श्रुतायुध, शकुनि, भगदत्त, जयद्रथ, विन्द-अनुविन्द, काम्बोजराज सुदक्षिण और बृहद्वल युद्ध में शामिल थे।
 
 
*पांडवों की ओर से : पांडवों की ओर से युधिष्ठिर व उनके 4 भाई भीम, नकुल, सहदेव, अर्जुन सहित सात्यकि, अभिमन्यु, घटोत्कच, विराट, द्रुपद, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, पांड्यराज, युयुत्सु, कुंतीभोज, उत्तमौजा, शैब्य और अनूपराज नील युद्ध में शामिल थे।
 
 
पहला कारण : भीष्म निश्चित ही विद्वान थे लेकिन उन्होंने धर्म का साथ न देकर वचनबद्ध होने के कारण सिर्फ सिंहासन का साथ दिया। भीष्म ने अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका की भावनाओं को कुचलकर जो कार्य किया वह अमानवीय था। भरी सभा में जब द्रौपदी को निर्वस्त्र किया जा रहा था तो भीष्म चुप बैठे थे। भीष्म ने जानते-बुझते दुर्योधन और शकुनि के अनैतिक और छलपूर्ण खेल को चलने दिया। भीष्म ने ऐसे कई अपराध किए थे, जो किसी भी तरह से धर्म द्वारा उचित नहीं थे। 
 
दूसरा कारण : पांडु के जंगल चले जाने के बाद धृतरष्ट्र को सिंहासन मिला। किंवदंती है कि गांधारी धृतराष्ट्र से विवाह नहीं करना चाहती थी लेकिन भीष्म ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र से कराया था। जब गांधारी गर्भ से थी तब धृतराष्ट्र ने अपनी ही सेविका के साथ सहवास किया जिससे उनको युयुत्सु नाम का एक पुत्र मिला।

गांधारी के लाख समझाने के बावजूद धृतराष्ट्र ने अपने श्‍वसुर (गांधारी के पिता) और उसके पुत्रों (गांधारी के भाई) को आजीवन कारागार में डाल दिया था। मृत्यु से पहले गांधारी के पिता सुबाल ने धृतराष्ट्र से शकुनि को छोड़ने की विनती की, जो धृतराष्ट्र ने मान ली थी।
 
 
तीसरा कारण : दुर्योधन एक अधर्मी सोच का व्यक्ति था। उसकी जिद, अहंकार और लालच ने लोगों को युद्घ की आग में झोंक दिया था इसलिए दुर्योधन को महाभारत का खलनायक कहा जाता है। महाभारत की कथा में ऐसा प्रसंग भी आया है कि दुर्योधन ने काम-पीड़ित होकर कुंवारी कन्याओं का अपहरण किया था। द्यूतक्रीड़ा में पांडवों के हार जाने पर जब दुर्योधन भरी सभा में द्रौपदी का का अपमान कर रहा था, तब गांधारी ने भी इसका विरोध किया था फिर भी दुर्योधन नहीं माना था। यह आचरण धर्म-विरुद्ध ही तो था।

जब दुर्योधन को लगा कि अब तो युद्ध होने वाला है तो वह महाभारत युद्ध के अंतिम समय में अपनी माता के समक्ष नग्न खड़ा होने के लिए भी तैयार हो गया। महाभारत में दुर्योधन के अनाचार और अत्याचार के किस्से भरे पड़े हैं। पांडवों को बिना किसी अपराध के उसने ही तो जलाकर मारने की योजना को मंजूरी दी थी।
 
 
चौथा कारण : बहुत से लोग कहते हैं कि शकुनि नहीं होता तो महाभारत का युद्ध नहीं होता। सब कुछ ठीक चल रहा था। कौरवों और पांडवों में किसी प्रकार का मतभेद नहीं था, लेकिन शकुनि ने दोनों के बीच प्रतिष्ठा और सम्मान की लड़ाई पैदा कर दी। शकुनि ने ही दुर्योधन के मन में पांडवों के प्रति वैरभाव बिठाया था।

शकुनि ने सिर्फ यही कार्य नहीं किया, उसने दुर्योधन सहित धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों के चरित्र को बिगाड़ने का कार्य किया। उसका दिमाग छल, कपट और अनीति से परिपूर्ण था। माना जाता है कि शकुनि कौरवों और पांडवों दोनों के ही दुश्मन थे और वे दोनों का ही नाश देखना चाहते थे, क्योंकि धृतराष्ट्र ने शकुनि के माता-पिता, भाई और बहन को कारागार में बंद कर भूखों मार दिया था।
 
 
पांचवां कारण : युद्ध तय होने के बाद भी अंत में युद्ध को टालने के सभी प्रयास विफल होने के बाद भगवान श्रीकृष्ण हस्तिनापुर में पांडवों को पांच गांव देने का प्रस्ताव लेकर जाते हैं जिसे दुर्योधन यह कहकर अस्विकार कर देता है कि युद्ध किए बगैर में सुई की एक नोंक भी नहीं दूंगा। पांड्वो का शांतिदूत बनाकर श्रीकृष्ण हस्तिनापुर भेजा। उन्होंने विदुर के यहां रुककर संजय को ये कहकर भेजा कि यदि वो उनको केवल पांच गांव ही देदे तो वे संतोष करके संधि कर लेंगे।
 
 
उधर दुर्योधन ने अपने पिता को संधि प्रस्ताव स्वीकार करने से रोकते हुए कहा, 'पिताश्री आप पांड्वों की चाल समझे नहीं, वो हमारी विशाल सेना से डर गए हैं इसलिए केवल पांच गांव मांग रहे हैं अब हम युद्ध से पीछे नही हटेंगे। धृतराष्ट्र ने समझाया, 'पुत्र यदि केवल पांच गांव देने से युद्ध टलता है तो इससे बेहतर क्या हो सकता है इसलिए अपनी हठ छोड़कर पांड्वों से संधि कर लो ताकि ये विनाश टल जाए। दुर्योधन अब गुस्से में आकर बोला 'पिताश्री मैं एक तिनके की भी भूमि उन पांड्वों को नहीं दूंगा और अब फैसला केवल रणभूमि में ही होगा।
 
 
#
अंत में श्री कृष्ण ने समझाया की क्या था हार का कारण
दुर्योंधन ने मरते वक्त अपनी हार का कारण बताया तो उसे सुनने के लिए श्रीकृष्ण उसके समक्ष उपस्‍थित हुए। दुर्योधन बोला, उसने महाभारत के युद्ध के दौरान तीन गलतियां की हैं, इन्हीं गलतियों के कारण वह युद्ध नहीं जीत सका। पहली गलती यह थी कि उसने स्वयं नारायण के स्थान पर उनकी नारायणी सेना को चुना। दूसरी गलती उसने यह की कि अपनी माता के लाख कहने पर भी वह उनके सामने पेड़ के पत्तों से बना लंगोट पहनकर गया और  तीसरी भूल जो उसने की थी वो थी युद्ध में आखिर में जाने की भूल। यदि वह पहले जाता तो कई बातों को समझ सकता था और शायद उसके भाई और मित्रों की जान बच जाती। 
 
दुर्योधन की बातों को सुनकर श्री कृष्ण ने नम्रता से दुर्योधन को समझाया, 'हार का मुख्य कारण तुम्हारा अधर्मी व्यवहार और अपनी ही कुलवधू का वस्त्राहरण करवाना था। तुमने स्वयं अपने कर्मों से अपना भाग्य लिखा।' यह सुनकर दुर्योधन को अपनी असली गलती का आभास हुआ।

 
#
उपरोक्त कारणों के अलावा भी ऐसे कई कारण थे जिसके चलते भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों की ओर से लड़ने का तय किया था। हालांकि श्रीकृष्ण की दोनों पक्षों से मिलनसारिता थी और दोनों ही पक्षों में उनकी रिश्तेदारी भी थी। वे यह भलिभांति जानते थे कि कौरव पक्ष पांडवों से कहीं ज्यादा शक्तिशाली है फिर भी उन्होंने पांडवों का ही साथ दिया। यही नहीं उनके अपनी सेना और खुद को चुने जाने से भी धर्म और अधर्म का पक्ष तय हो गया था।
 
 
*कृष्ण की सेना लड़ी थी दुर्योधन की ओर से : पांडवों और कौरवों द्वारा यादवों से सहायता मांगने पर श्रीकृष्ण ने पहले तो युद्ध में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की और फिर कहा कि एक तरफ मैं अकेला और दूसरी तरफ मेरी एक अक्षौहिणी नारायणी सेना होगी।
 
अब अर्जुन व दुर्योधन को इनमें से एक का चुनाव करना था। अर्जुन ने तो श्रीकृष्ण को ही चुना, तब श्रीकृष्ण ने अपनी एक अक्षौहिणी सेना दुर्योधन को दे दी और खुद अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार किया। इस प्रकार कौरवों ने 11 अक्षौहिणी तथा पांडवों ने 7 अक्षौहिणी सेना एकत्रित कर ली।