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वैज्ञानिक कहते हैं कि गोंडवाना नामक एक द्वीप के टूटने से भारत, ऑस्ट्रेलिया और अंटार्कटिका का निर्माण हुआ। उस काल में भारत कैसा था, यह शोध का विषय हो सकता है। लेकिन हम बात कर रहे हैं आज से 15,000 वर्ष पूर्व के भारत की।
19वीं सदी में अमेरिकी और यूरोपीय विद्वानों के एक वर्ग ने अफ्रीका, भारत और मेडागास्कर के बीच जियोलॉजिकल और अन्य समानताएं समझाने के लिए जलमग्न हो चुके एक महाद्वीप का अनुमान लगाया और उसे लेमुरिया (Lemuria) का नाम दिया। हलांकि इस दौरान एक और महाद्वीप खोजा जिसका नाम मु (mu) दिया गया। उसके बारे में हम बात नहीं करेंगे, क्योंकि यह विषय बहुत विस्तृत है।
जिस तरह वर्तमान में ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण पृथ्वी पर कई विनाशकारी बदलाव होने की आशंकाएं जताई जा रही हैं, उसी तरह प्राचीनकाल में एक बार ऐसा हो चुका है जिसके चलते लेमुरिया और मु नाम के 2 महाद्वीप जलमग्न हो चुके थे। हालांकि वैज्ञानिक इस पर अभी शोध ही कर रहे हैं किंतु विश्व के खोजकर्ताओं का दावा है कि इन दोनों महाद्वीपों पर सभ्यता काफी विकसित थी। कुछ खोजकर्ताओं, जिनमें प्रमुख थे फिलीप स्कोल्टर, का यह भी कहना था कि मनुष्य की उत्पत्ति इन्हीं महाद्वीपों पर हुई थी। ये दोनों महाद्वीप किसी भू-वैज्ञानिक हलचल की वजह से समुद्र के भीतर समा गए।
जब से पृथ्वी बनी है, तब से विनाश के कई चरण हुए हैं तथा कई प्रजातियां विलुप्त हुईं तथा नई आई भी हैं। विश्व की सभी जातियों एवं धर्मों में प्राचीन महाप्रलय का उल्लेख मिलता है। केवल धर्म ही नहीं, भू-वैज्ञानिक साक्ष्य भी पृथ्वी पर कई प्राचीन विनाशकारी हलचलों को दर्शाते हैं चाहे वे भूकंप के रूप में हों या ज्वालामुखी के रूप में या ग्लोबल वॉर्मिंग या हिमयुग के रूप में हों। आदिम जनजातियों में भी जल महाप्रलय का उल्लेख कहानियों के रूप में हुआ है। इसी क्रम में इस महाद्वीप का उल्लेख भी प्राचीन तमिल साहित्य में पाया जाता है।
तमिल इतिहासकारों के अनुसार इस द्वीप का नाम 'कुमारी कंदम' था। 'कुमारी कंदम' आज के भारत के दक्षिण में स्थित हिन्द महासागर में एक खो चुकी तमिल सभ्यता की प्राचीनता को दर्शाता है। इसे 'कुमारी नाडू' के नाम से भी जाना जाता है। तमिल शोधकर्ताओं और विद्वानों के एक वर्ग ने तमिल और संस्कृत साहित्य के आधार पर समुद्र में खो चुकी उस भूमि को पांडियन महापुरुषों के साथ जोड़ा है। तमिल पुनर्जागरणवादियों के अनुसार 'कुमारी कंदम' के पांडियन राजा का पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन था। दक्षिण भारत के लोकगीतों में इतिहास के साथ उस खो चुकी इस सभ्यता का वर्णन मिलता है। नतीजतन, जब इसके बारे में जानकारी देने वाले खोजकर्ता भारत के नगरों में पहुंचे, तब इस लोकगीत और कथा को बल मिला।
तमिल लेखकों के अनुसार आधुनिक मानव सभ्यता का विकास अफ्रीका महाद्वीप में न होकर हिन्द महासागर में स्थित 'कुमारी कंदम' नामक द्वीप में हुआ था। हालांकि 'कुमारी कंदम' या लुमेरिया को हिन्द महासागर में विलुप्त हो चुकी काल्पनिक सभ्यता कहा जाता है। कुछ लेखक तो इसे रावण की लंका के नाम से भी जोड़ते हैं, क्योंकि दक्षिण भारत को श्रीलंका से जोड़ने वाला राम सेतु भी इसी महाद्वीप में पड़ता है।
इस महाद्वीप को लेमुरिया नाम भूगोलवेत्ता फिलीप स्क्लाटर (Philip Sclater) ने 19वीं सदी में दिया था। सन् 1903 में वीजी सूर्यकुमार ने इसे सर्वप्रथम 'कुमारी कंदम' नाम दिया था। कहा जाता है कि यह 'कुमारी कंदम' ही रावण के देश 'लंका' का विस्तृत स्वरूप है, जो कि वर्तमान भारत से भी बड़ा था।
फिलीप स्क्लाटर ने मेडागास्कर और भारत में बहुत बड़ी मात्रा में वानरों के जीवाश्मों (Lemur Fossils) के मिलने पर यहां एक नई सभ्यता के होने का अनुमान व्यक्त किया था। उन्होंने इस विषय पर एक किताब भी लिखी जिसका नाम ‘The Mammals of Madagascar’ था, जो कि 1864 में प्रकाशित हई थी।
'कुमारी कंदम' का क्षेत्र उत्तर में कन्याकुमारी से लेकर पश्चिम में ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी तट और मेडागास्कर तक फैला था। भूगोलवेत्ता एआर वासुदेवन के शोधानुसार मानव सभ्यता का विकास अफ्रीका महाद्वीप में न होकर कुमारी हिन्द महासागर के 'कुमारी कंदम' नामक द्वीप पर हुआ था। उनके अध्ययन कहते हैं कि आज से लगभग 14,000 साल पहले जब 'कुमारी कंदम' जलमग्न हो गया तो लोग यहां से पलायन कर अफ्रीका, यूरोप, चीन सहित पूरे विश्व में फैल गए और कई नई सभ्यताओं को जन्म दिया।
भारत के समुद्र विज्ञान के राष्ट्रीय संस्थान में शोधकर्ताओं के अनुसार 14,500 साल पहले समुद्र का स्तर आज से 100 मीटर नीचे था और 10,000 साल पहले 60 मीटर नीचे था इसलिए यह पूरी तरह संभव है कि वहां एक बार श्रीलंका के द्वीप जोड़ने के लिए एक भूमि पुल था। लेकिन धीरे-धीरे जलस्तर बढ़ा तो यह पूल भी जल में डूब गया। पिछले 12 से 10 हजार सालों में समुद्र के बढ़ते हुए स्तर ने आवधिक बाढ़ का काम किया। इस तरह ये महाद्वीप जलमग्न हो गया।
यदि हम उस पूल की बात करें तो उसे 'रामसेतु' कहा जाता है। यह पूल चूना पत्थर, रेत, गाद और छोटे-छोटे कंकरों और बलुआ पत्थरों से मिलकर बना था। इसे नल और नील का पूल कहा जाता था। उल्लेखनीय है कि जब फिलीप स्क्लाटर ने अपनी खोज की थी तो खोज के दौरान उन्हें वानरों के अवशेष मिले थे। रामायण में यह उल्लेख भी मिलता है कि यह पूल वानरों ने बनाया था।
एक और रोचक तथ्य सामने यह आया है कि लेमुरिया द्वीप के लोग काफी लंबे होते थे। हिन्द महासागर के नीचे समा गए लेमुरिया महाद्वीप की उत्पत्ति 1 लाख साल पहले हुई थी और 15,000 वर्ष पूर्व तक यह अस्तित्व में था। हिमनदों के पिघलने से समुद्र का जलस्तर ऊंचा उठा और धीरे-धीरे यह समुद्र के भीतर समा गया।
एल्फ्रेड रसेल एवं एर्नेस्ट हेकेल का मानना था कि मनुष्य की उत्पत्ति इन महाद्वीपों पर हुई थी। 'लेमुरिया' शब्द 'लेमूर' नामक जीव से आया, जो बंदर एवं गिलहरी का मिश्रित रूप है। लेमूर का मूल स्थान मेडागास्कर है लेकिन यह भारत एवं मलाया में भी पाया जाता है इसलिए यह माना गया कि ये जीव तभी भारत पहुंचे होंगे, जब कोई विशाल महाद्वीप हिन्द महासागर में रहा होगा एवं जिसने भारत एवं मेडागास्कर के बीच में सेतु का काम किया होगा।
वैज्ञानिक मानते हैं कि भारतीय उपमहाद्वीप में किसी नर-वानर की उत्पत्ति नहीं हुई थी अत: जितनी भी जातियां वर्तमान भारत की धरती पर जीवित हैं या लुप्त हो चुकी हैं उनका मूल स्थान कहीं-न-कहीं वर्तमान भारत से बाहर रहा था। रॉय ने दक्षिण अफ्रीका एवं दक्षिण भारत के बीच एक लेमुरिया द्वीप की कल्पना की है, जो अब जलमग्न हो चुका है। उन्होंने संभावना व्यक्त की है कि मुंडा जाति लेमुरिया द्वीप से होती हुए भारत आई थी।
'कुमारी कंदम' के पतन के कारण : ऐसा माना जाता है कि हिमयुग के अंतिम सालों में तापमान बढ़ना शुरू हो गया था जिसके कारण ग्लैशियरों का पिघलना शुरू हुआ और समुद्र का जलस्तर बहुत बढ़ गया और अंतत: यह सभ्यता पानी में डूब गई।
तमिल लेखकों के अनुसार जब 'कुमारी कंदम' जलमग्न हुआ तो उसका 7,000 मील का क्षेत्र 49 टुकड़ों में बंट गया था। इस प्रकार यह महाद्वीप, हिमयुग के अंत में समुद्र में डूबा तो लोगों ने अलग-अलग जगहों पर शरण ली और पूरी दुनिया में कई नई सभ्यताओं (यूरोप, अफ्रीका, भारत, मिस्र, चीन इत्यादि) का विकास हुआ।
संकलन : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'