अगले पन्ने पर चाणक्य ने क्या उत्तर दिया चंद्रगुप्त को...
जब राक्षस को पता चला चाणक्य और चंद्रगुप्त के बीच मतभेद का तो...
चाणक्य और चंद्रगुप्त के बीच हुए वाद-विवाद और चाणक्य के पद त्याग का समाचार उनके शत्रुओं तक पहुंच गया। राक्षस को सबसे ज्यादा प्रसन्नता हुई, क्योंकि चाणक्य के कारण ही अब तक चंद्रगुप्त बचा हुआ था। राक्षस ने कुमार मलयकेतु और अन्य राजाओं के साथ मिलकर चंद्रगुप्त के विरुद्ध यु्द्ध की योजना पर कार्य करना शुरू कर दिया।
मलयकेतु के एक सैन्य शिविर के समक्ष चाणक्य का गुप्तचर चाणक्य की योजना के तहत पकड़ा गया। गुप्तचर के पास से एक पत्र मिला। पत्र पर राक्षस के हस्ताक्षर और कूट चिह्न की छाप लगी हुई थी। पत्र के अनुसार राक्षस ने चंद्रगुप्त को लिखा था, 'तुमने चाणक्य को हटाकर बहुत ही अच्छा कार्य किया है। मैं इस बात के लिए तुम्हारा आभारी हूं कि तुमने मुझे उनके पद के लिए नियुक्ति का प्रस्ताव भेजा है। यह मेरा सोभाग्य होगा कि मैं पुन: मगध के 'महामात्य' पद पर आसीन होकर मेरे प्रिय राज्य मगध की सेवा करूंगा। मैं आपका प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार करता हूं। जहां तक सवाल मलयकेतु का है तो आप निश्चिंत रहें उसे पराजित करने के लिए मैंने पंचनद के पांचों राजाओं के साथ योजना बना ली है। मैं पूरी तरह से आपके साथ हूं।'
मलयकेतु यह पत्र पढ़कर अपना मानसिक संतुलन खो बैठा। वह सोचने लगा जिसे हमने शरण दी। जिसको हमने अपने राज्य का 'महामात्य' बनाया आज वह हमारी हत्या का षड्यंत्र रच रहा है- मलयकेतु क्रोध से फूंफकार उठा- 'विश्वासघाती।'
अगले पन्ने पर, राक्षस का क्या हुआ...
मलयकेतु ने बिना सोच-विचार किए शिविर में जाकर राक्षस के सहयोगियों और पंचनन के पांचों राजाओं की हत्या कर दी और आज्ञा दी कि राक्षस को मेरे सामने हाजिर किया जाए।
राक्षस को सामने लाया गया तब राक्षस ने पूछा- ये हत्याएं आपने क्यों की राजन्।
मलयकेतु ने क्रोधित होकर कहा- विश्वासघाती राक्षस। तुम मेरे साथ विश्वासघात करने चले थे। ...इतना कहते हुए मलयकेतु ने राक्षस के चेहरे पर वह पत्र दे मारा।
राक्षस ने उस पत्र को उठाया और पढ़ने लगा। पढ़ते-पढ़ते ही राक्षस को समझ में सारी बात आ गई कि यह चाणक्य का जारी पत्र है जिसके कारण मलयकेतु मुझ पर अविश्वास कर रहे हैं। राक्षस के समक्ष चाणक्य का चेहरा घूमने लगा और एकदम से उसने आंखें खोलकर गरजते हुए कहा- नहीं... नहीं... नहीं... महाराज यह सच नहीं है। यह असंभव है। यह उस क्रूर और षड्यंत्रकारी चाणक्य की नई चाल है।
मलयकेतु भी क्रोध से तमतमाया- तुम मुझे मूर्ख समझते हो राक्षस। तुम ब्राह्मण हो इसी कारण तुम्हें छोड़ा जा रहा है। शास्त्र अनुसार ब्राह्मण का वध पाप माना गया है अन्यथा सबसे पहले तुम्हारी गर्दन उतारी जाती।
...मलयकेतु ने लगभग चीखते हुए कहा, जाओ निकल जाओ हमारे राज्य से और फिर कभी अपना मुंह मत दिखाना नहीं हो मुझे ब्रह्म हत्या का पाप भोगना पड़ेगा।
राक्षस के लाख समझाने के बावजूद मलयकेतु नहीं समझा और आखिरकार राक्षस को वहां से अज्ञात स्थान की ओर जाना पड़ा।
अगले पन्ने पर, चाणक्य और चंद्रगुप्त की मुलाकात...
जब चाणक्य तक यह समाचार पहुंचा कि मलय राज ने राक्षस के सभी सहयोगियों की हत्या कर दी और राक्षस को देश निकाला दे दिया है तो कुछ दिनों पश्चात एक अज्ञात स्थान पर चंद्रगुप्त और चाणक्य ने एक छोटी-सी कुटिया में मुलाकात की। चंद्रगुप्त ने चाणक्य के चरणों को छूकर प्रणाम किया और कहा- गुरुवर जब मैं आप पर क्रोधित हो रहा था, मैं ही जानता हूं कि उस वक्त मेरे हृदय पर क्या बीत रही थी।
चाणक्य ने कहा- एक शिष्य के लिए गुरु की आज्ञा ही सर्पोपरि होती है। यदि तुम मुझे अपना जीवन समर्पित नहीं करते, तो न मैं चाणक्य होता और न तुम मगधाधिपति चंद्रगुप्त। तु्म्हारे बल और मेरी बुद्धि ने मिलकर इस राष्ट्र को फिर से एक सूत्र में बांधा है। इसके साथ हम दोनों ने बहुत कुछ त्याग किया है। अब इस गरीब और अनाथ ब्राह्मण का कार्य समाप्त हुआ सम्राट। आज मेरी यह कामना पूर्ण हो गई कि टुकड़ों में बंटा हुआ भारत आज अखंड भारत है।
चंद्रगुप्त ने कहा- गुरुवर। मैं नहीं चाहता कि एक संप्रभुत्व राष्ट्र का संस्थापक जंगल की इस छोटी-सी कुटिया में रहे... यह चंद्रगुप्त को शोभा नहीं देता। गुरुवर! आपके बिना मैं इतना विशाल साम्राज्य कैसे संभाल पाऊंगा?
चाणक्य ने चंद्रगुप्त के कंधे पर हाथ रखकर कहा- राजन! मेरा कार्य समाप्त हो गया। तुम्हारा राज्य फले-फूले यही मेरा आशीर्वाद है। अब यह ब्राह्मण संन्यास आश्रम में जाना चाहता है राजन्। अब सिर्फ मोक्ष की कामना बची है। ... और हां निश्चित ही तुम्हें अब दूसरे चाणक्य की आवश्यकता पड़ेगी, तो मेरा मानना है चंद्रगुप्त को देशभक्त अमात्य राक्षस ही इस राज्य को संभाल सकता है तो तुम उससे क्यों नहीं संपर्क करते?
चाणक्य की यह बात सुनकर चंद्रगुप्त ने आश्चर्य से कहा- क्या राक्षस इस प्रस्ताव को स्वीकार करेगा?
चाणक्य ने चंद्रगुप्त की और पीठ करके कहा- नहीं, लेकिन एक चाणक्य ही दूसरे चाणक्य को मना सकता है... तुम जाओ चंद्रगुप्त एकादशी के दिन राष्ट्रीय समारोह की तैयारियां करो।
अगले पन्ने पर, राक्षस की खोज...
चाणक्य ने राक्षस की खोज में अपने सभी गुप्तचरों को लगा दिया। कुछ ही दिन में एक गुप्तचर ने राक्षस के छिपने के स्थान को बता दिया। चाणक्य एक रथ पर सवार होकर राक्षस से मिलने निकल पड़े। जंगल में बनी एक कुटिया के सामने रथ रुका और रथ की पदचाप सुनकर राक्षस का ध्यानभंग हो गया, तभी उसने चाणक्य को अपने समक्ष खड़े पाया।
चाणक्य ने हाथ जोड़कर कहा- हे ब्राह्मण श्रेष्ठ, नीतिशिरोमणि महामात्य राक्षस को चाणक्य का प्रणाम। चाणक्य आपको आदरपूर्वक पुन: पाटलीपुत्र ले जाने के लिए आया है, क्योंकि हीरे की शोभा तो मुकुट में ही होती है नीतिशिरोमणि।
राक्षस ने आश्चर्य और निराशा के भाव से कहा- अब क्यों इस तरह के वचन सुनाकर मुझे लज्जित कर रहे हो कौटिल्य। अब मेरे पास कुछ नहीं रखा। आपने मेरे स्वामी की हत्या कर दी। मेरे राज्य पर एक दासी पुत्र को बैठा दिया और अब मुझसे कहते हो कि चलो पाटलीपुत्र। यदि मेरा वध करना चाहते हैं तो आपसे विनती है कि मेरा वध यहीं कर दीजिए लेकिन पाटलीपुत्र में ले जाकर मुझे लज्जित न कीजिए।
चाणक्य ने कहा- मित्र! यदि हम ऐसा चाहते तो यह चाणक्य आपके समक्ष अकेला नहीं आता। आपको बंदी बनाकर ले जाया जाता। किंतु हे ब्राह्मण श्रेष्ठ, किसी देशभक्त ब्राह्मण का वध करना शोभा नहीं देता। मैं जानता हूं कि आपको अपने मगध की उतनी ही चिंता है जितनी कि मुझे है। पाटलीपुत्र को आप जैस विद्वान महामात्य की आवश्यकता है।
राक्षस ने तनिक सोचने के बाद कहा- कहीं ऐसा तो नहीं आचार्य कि आप चंद्रगुप्त से मतभेद के कारण मुझे मोहरा बनाकर वहां भेज रहे हैं?
चाणक्य ने कहा- नहीं मित्र! मतभेद तो एक ढोंग था और वे पांचों राजा लोभी थे। भारत को सुदढ़ करने के लिए मैंने ही वह जाली पत्र भेजा था। वह पत्र तुम्हारे नहीं, मगध के शत्रुओं के विरुद्ध था।
बहुत समझाने और राक्षस के सारे संशय दूर करने के बाद आखिरकार राक्षस ने महामात्य के पद पर आसीन होने का प्रस्ताव स्वीकार लिया।
अगले पन्ने पर पाटलीपुत्र में भव्य समारोह...
पाटलीपुत्र ने राज्य में भव्य राष्ट्रीय समारोह की शुरुआत की। उसने देश-विदेश के सभी राजाओं को निमंत्रण भेजा था। मलय राज, कैकेय नरेश पुरु सहित भारत के तमाम राजाओं से समारोह का पांडाल में बना मंच सुशोभित हो रहा था। राष्ट्रीय गीत और मंगल गान गाया जा रहा था। हाथी, घोड़े और सैनिक सज-धजकर खड़े थे। पाटलीपुत्र के नागरिक भी उत्साहित नजर आ रहे थे।
चाणक्य के मंच पर पधारते ही सभी राजागण खड़े हो गए और सभी ने एकसाथ उनको नमस्कार किया और उनसे आसन पर बैठने का आग्रह किया। चाणक्य के बाद मंच पर चंद्रगुप्त पधारे। कुछ देर बाद चाणक्य ने खड़े होकर हाथ ऊपर उठाए। जनता के बीच से 'चाणक्य की जय...', 'चंद्रगुप्त की जय...' के नारे गूंज रहे थे। चाणक्य के हाथ उठाते ही सभी शांत हो गए। फिर चाणक्य ने पहले सभी अतिथियों का स्वागत किया और उपस्थित सभी नागरिकों का अभिनंदन किया।
इसके बाद उन्होंने कहा- मगधवासियों! आपने देखा है कि कुछ वर्ष पहले हमारा मगध एक भोग-विलासी राजा के अधीन था। संपूर्ण भारत छोटे-छोटे राज्यों में बंटा था। सभी राजा आपस में लड़ते रहते थे। इस आपसी लड़ाई का लाभ विदेशी उठाते थे। उन्होंने भारत के बहुत बड़े भू-भाग पर कब्जा कर रखा था। सिकंदर ने हमारे देश को लूटा और उसके पीछे अन्य कई लुटेरे आए और चले गए। किंतु मित्रों, आज देश के सभी राजा मैत्रीभाव से इस मंच पर विराजमान हैं। यह देश संगठित और सुदृढ़ हो चला है। इस संगठन के कारण शक्ति, शांति और समृद्धि का विकास हुआ है। यह देश कड़ी तपस्या और घोर कर्म के बाद एकजुट हुआ है। अब हमें इस देश को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए भेदभाव से मुक्त होकर देश को प्रगति के मार्ग पर बढ़ाते रहना होगा, इसके लिए सभी को साधुवाद!
सभी ने करतल ध्वनि के साथ 'राजर्षि चाणक्य की जय...' और 'चंद्रगुप्त की जय...' के नारे लगाए। तब चाणक्य ने हाथ उठाकर फिर कहा। इस अवसर पर मैं एक महत्वपूर्ण घोषणा करने जा रहा हूं... चाणक्य ने अपने पास खड़े राक्षस की ओर देखा और कहा- विश्वप्रसिद्ध नीति-शिरोमणि महामात्य राक्षस ने अनेक कष्ट सहे हैं और आज वे आपके सामने आपके मगध की सेवा के फिर उपस्थित हुए हैं। मैं चाहता हूं अब संन्यास लेना, आज से मेरी जगह अमात्य देश की सेवा करेंगे।
चाणक्य की बातें सुनकर सभी स्तब्ध रह गए। सभी मौन हो गए। और फिर चाणक्य ने महामात्य राक्षस को मंच पर आगे कर दिया...।
राक्षस- मित्रों मैं राजर्षि चाणक्य और सम्राट चंद्रगुप्त का आभारी हूं कि उन्होंने मुझे इस देश की सेवा करने योग्य समझा। आज यह समारोह चाणक्य के सम्मान में आयोजित किया गया है। आज यह दिन उनके संन्यास ग्रहण करने का दिन है, किंतु हमारे लिए यह बहुत ही दुखद है कि इस राज्य को आचार्य का अभाव हमेशा खटकता रहेगा। आचार्य ने मुझसे मेरा सबकुछ छीनकर मेरे हाथ में मगध की रक्षा का भार सौंप दिया है। आचार्य का नाम इस देश के इतिहास में अमर रहेगा। उनकी त्याग, दया और बुद्धि की चर्चा हर युग में होगी। उनके दिए गए कष्ट में भी एक सीख थी। वे आदरणीय और महान हैं।
...इसके बाद राक्षस ने ऊंचे स्वर में कहा- मैं मगध का महामात्य राक्षस सम्राट चंद्रगुप्त से निवेदन करता हूं कि वे हार-फूल माला और प्रशस्त्र पत्र से आचार्य का सम्मान करें।
चंद्रगुप्त के बाद सभी राजाओं ने चाणक्य का सम्मान किया। चाणक्य के सम्मान के बाद भोज हुआ और फिर एक रथ चाणक्य को लेकर जंगल की ओर निकल गया।
-समाप्त