धर्म, दर्शन और अध्यात्म - यह तीन शब्द हमें सुनने-पढ़ने को मिलते हैं। तीनों ही शब्दों का अर्थ अलग अलग है। आओ पहले जानते हैं कि यह तीनों कैसे अलग अलग हैं।
धर्म का प्रचलित अर्थ : धर्म को अंग्रेजी में रिलिजन (religion) और ऊर्दू में मजहब कहते हैं। इसी कारण धर्म का प्रचलित अर्थ संप्रदाय, पंथ और मत हो चला है। कुछ लोग इसे आस्था, विश्वास और ईश्वरकृत नियम भी मानते हैं। ऐसा सांप्रदायिक लोग ही समझते हैं।
धर्म का सही अर्थ : छान्दोग्योपनिषद् में धर्म शब्द की उत्पत्ति ‘धृ’ धातु में ‘मन्’ प्रत्यय से बताई गई है। महाभारत में भगवान व्यास ‘धारयति इति धर्मः को विस्तार देते हुए कहते हैं- धारणाद् धर्म मित्याहुर्धर्मों धारयति प्रजाः। यानी जो धर्म को धारण करता है, वह जीवन को धारण करता है। दुनिया के तमाम विचारकों ने धर्म पर अलग-अलग परिभाषाएं दी हैं। यहां सभी को विस्तार में देना मुश्किल है। इसलिए संक्ष्ति में समझें।
हिन्दू शास्त्रों में धर्म के तीन लक्षण अर्थ मिलते हैं। 1.पहला वह जो सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, क्षमा आदि को इंगित करता है और जिसके माध्यम से व्यक्ति स्वयं की खोज करता है। अर्थात यम और नियम ही धर्म है।
दूसरा जो सत्य, न्याय सम्मत और ईश्वर की ओर से है जैसा कि महाभारत में बताया गया है। तीसरा अर्थ है स्वभाव और गुण। जैसे आग का गुण है जलना, धरती का धर्म है धारण करना और जन्म देना, हवा का धर्म है जीवन देना उसी तरह प्रत्येक व्यक्ति का धर्म गुणवाचक है। अर्थात गुण ही है धर्म। हिन्दू शस्त्रों में धर्म को जीवन को धारण करने, समझने और परिष्कृत करने की विधि बताया गया है।
दर्शन : दर्शन को फिलॉसफी (philosophy) कहा जाता है। लेकिन दर्शन का अर्थ देखने से बढ़कर है। हिन्दू शास्त्रों में दर्शन को बहुत ही गंभीर चिंतन का विषय माना गया है। तर्क, चिंतन और तत्व ज्ञान के द्वारा सृष्टि, सृष्टा और आत्मा का वर्णन करना ही दर्शन है। विश्व में हजारों ऐसे लोग हुए हैं जिन्हें अपने अपने तरीके से उक्त सभी को व्यक्त किया है।
अज्ञात परतत्व की खोज, परमात्मा के अस्तित्व के होने या नहीं होने, है तो उसके स्वरूप, गुण, स्वभाव, कार्यपद्धति, जीवात्मा की कल्पना, परमात्मा से उसका संबंध, इस भौतिक संसार की रचना में उसकी भूमिका, जन्म से पूर्व और उसके पश्चात की स्थिति के बारे में जिज्ञासा, जीवन-मरण चक्र और पुनर्जन्म की अवधारणा इत्यादि प्रश्नों पर चिंतन और चर्चाएं करना ही दर्शन है।
आध्यात्म : आध्यात्म ( spirituality ) का संबंध किसी संप्रदाय विशेष या दर्शन के मत से नहीं होता। यह विशुद्ध रूप में स्वयं की खोज है। स्वयं के अस्तित्व के होने या नहीं होने को जानने में ही उसकी रुचि होती है। जिस तरह ऋषि अष्टावक्र ने सभी को नकार कर अपना मार्ग खुद खोजा, जिस तरह गौतम बुद्ध ने अपने मार्ग की खोज की उसी तरह जो लोग अपने मार्ग की खोज खुद करते हैं वे अध्यात्म के मार्ग पर हैं। ऐसे लोग मनुष्य एवं पशुओं में भेद नहीं करते हुए देश, काल, परिस्थिति, भाषा आदि सभी से परे जाकर सोचते हैं और वह पा लेते हैं जो उन्हें पाना होता है। उपनिषद और गीता में आध्यात्म का मार्ग ही बताया गया है।