प्रेम काव्य : जो जान है हमारी...
समा गए हैं दिल में,
समावेश कर चुकी हूं।
उन्हीं का साथ देने इस,
जमीं पर मैं रुकी हूं।
वरना चली मैं जाती,
पथ से नहीं डिगी हूं।
अधरों पर अधर रख के,
रसपान जो कराती हूं।
सोते हैं जब-जब साजन,
पंखा खुद डोलाती हूं।
जो जान है हमारी,
उनके रंग में रंगी हूं।