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Written By WD

मैं भी बेटी को जन्म देना नहीं चाहती

मैं भी बेटी को जन्म देना नहीं चाहती -
मधु किश्वर
संपादक, मानुषी पत्रिका एवं महिला कार्यकर्ता
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मैं भी माँ होती तो बेटी को जन्म देना नहीं चाहती। हमारे देश में संपत्ति बचाने के लिए सिर्फ बेटे चाहिए, वह भी शरीफ नहीं, लठैत बेटे। बेटी के पीछे कई समस्याएँ हैं। उसकी सुरक्षा, देखभाल, दान-दहेज इत्यादि। इसीलिए उसे जन्मने से पहले ही मार दिया जाता है।

आजादी के साठ साल बाद इस देश की तस्वीर हिंसक तथा आपराधिक तत्वों से भरपूर समाज के रूप में उभरी है। अपराध एवं हिंसा हमारे समाज पर इस कदर हावी हो चुके हैं कि बच्ची का जन्म लेना अभिशाप बन गया है। स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मैं भी माँ होती तो इस देश में बेटी कभी पैदा करना नहीं चाहतीबेटी को जन्म से पहले ही मार देने के पीछे तीन बातें प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं। एक तो देश के गाँवों में आज भी माना जाता है कि बेटे के अभाव में आप अपनी जमीन बचा नहीं सकते। पंजाब में कहावत है कि जितने बेटे उतने लठ, जितने लठ उतना कब्जा। यानी इस देश में संपत्ति संभालने के लिए सिर्फ बेटे चाहिए। उसमें भी शरीफ नहीं, लठैत बेटे चाहिए।

दूसरे बेटी की सुरक्षा बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। अपनी बेटी को बेहतर शिक्षा, संस्कार एवं हर परिस्थिति का मुस्तैदी से सामना करना सिखाने वाले माता-पिता भी अपनी बच्ची की शारीरिक सुरक्षा को लेकर हर वक्त चिंतित रहते हैं। हर वक्त उन्हें यही डर सताता है कि कहीं उनकी बेटी के साथ कुछ गलत न हो जाए। कई बार यही खौफ, यही जिम्मेदारी उन्हें बेटी को जन्म देने से रोकती है। इस जिम्मेदारी के आगे उन्हें दहेज की समस्या भी बौनी नजर आती है।

इसके अलावा छोटे परिवार भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। अधिकांश दंपति सोचते हैं कि अगर एक ही बच्चे को जन्म देना है तो क्यों न बेटे को ही जन्म दिया जाए। आखिर बेटा उनके बुढ़ापे की लाठी बनेगा। यह बात दीगर है कि आज के बेटों के लिए ब़ूढे माता-पिता को अपनी पत्नी के हाथों जलील कराने एवं वृद्धाश्रम भेजने में शर्म महसूस नहीं होती।

  दरअसल भ्रूण हत्या जैसी घृणित समस्याओं के पीछे समय-समय पर भारत पर हुए विदेशी आक्रमण भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं। इतिहास गवाह है कि जिन-जिन इलाकों-जातियों ने विदेशी आक्रमण झेले, वहाँ पर्दा प्रथा, सती जैसी कुप्रथाओं ने जन्म लिया      
हालाँकि कुछ लोग कहते हैं कि जैसे-जैसे समाज शिक्षित होता जाएगा, भ्रूण हत्या जैसी समस्या अपने आप हाशिए पर आ जाएगी। मैं इससे इत्तेफाक नहीं रखती। मेरी नजर में इस समस्या की जड़ें पढ़े-लिखे तथा संपन्ना लोगों के बीच ज्यादा गहरी हैं। यही वजह है कि देश की क्रीमी लेयर का प्रतिनिधित्व करने वाली दिल्ली में स्त्री-पヒष लिंगानुपात सबसे खराब स्थिति में है। जहाँ तक संपन्नाता का सवाल है तो देश के सर्वाधिक संपन्ना राज्यों पंजाब तथा हरियाणा में भू्रण हत्या की सबसे ज्यादा घटनाएँ देखने को मिलती हैं, जबकि आदिवासी क्षेत्रों में स्त्री-पヒषअनुपात इन राज्यों के मुकाबले बेहतर है।

दरअसल भ्रूण हत्या जैसी घृणित समस्याओं के पीछे समय-समय पर भारत पर हुए विदेशी आक्रमण भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं। इतिहास गवाह है कि जिन-जिन इलाकों-जातियों ने विदेशी आक्रमण झेले, वहाँ पर्दा प्रथा, सती जैसी कुप्रथाओं ने जन्म लिया और इन्हीं में सबसे पहले लिंगानुपात की कमी पाई गई। यही वजह है कि हरियाणा, पंजाब जैसे राज्यों में स्त्री-पヒष लिंगानुपात में सबसे अधिक असमानता है।

इन राज्यों की जनसंख्या में जाट और राजपूत जैसी मार्शल कौमें बड़ी संख्या में हैं। इन कौमों ने विदेशी हमलावरों के हाथों इतनी मार खायी है कि उससे उबरने के लिए उन्होंने अपनी खींज घर की औरतों पर निकाली। वैसे भी जिस भी समाज में मर्द खुद को असहाय महसूस करते हैं, वे अपना सारा गुस्सा औरतों पर निकालते हैं। औरतों को लात-घूँसे मारके उनके अहम की संतुष्टि होती है।

जहाँ तक समस्या के समाधान का प्रश्न है, तो वह न तो कोरी भाषणबाजी से हो सकता है, न ही खौफ पैदा करने वाले दंड विधान से। आधुनिक तकनीकों पर रोक लगाना भी इसका समाधान नहीं है। एक तकनीक पर रोक लगाने तक बाजार में नई तकनीक आ चुकी होती है।इस समस्या से निबटने के लिए कानून-व्यवस्था, पुलिस एवं न्यायपालिका में मौजूद खामियों को दूर करना होगा। सबसे बड़ी भक्षक बन चुकी पुलिस तथा राजनीतिज्ञों पर लगाम लगाना होगी।
ऐसा है चलन
जहर देना, गला दबाना, भूख, डुबा देना आदि। कुछ माँ-बाप तो पैदा होने के बाद भी बच्चियों को मार देते हैं। वे डॉक्टरों को रिश्वत देकर जाली मृत्यु प्रमाण पत्र भी हासिल कर लेते हैं। दरिंदगी तब चरम पर होती है, जब साक्ष्यों को छुपाने के लिए मौत के बाद इनकोजला दिया जाता है। बच्चियों को मारने का 80 फीसद कारण है, परिवार में दो लड़कियाँ पहले से होना।

विज्ञान से उलट नियम
2001 का राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण कहता है कि शिशु मृत्यु दर लड़कों की तुलना में लड़कियों की ज्यादा है। यह भारत में 43 प्रश अधिक है। यह नियम विज्ञान से उलट है। क्योंकि विज्ञान कहता है कि कमजोर से कमजोर स्थितियों में भी शिशु यदि लड़की है तो उसके बचने के आसार लड़के के मुकाबले ज्यादा होते हैं।

बचने वाली मोहताज
यह विचित्र बात है कि जिन लड़कियों को मारा नहीं जाता है, उनके साथ बर्ताव दोयम दर्जे का किया जाता है। वे कुपोषण का शिकार हो जाती है। गाँवों में तो उन्हें उपेक्षित रखते ही है, लेकिन शहरों में भी ऐसा ही बर्ताव होता है।

चीन में ये हालात
चीन में तो हजारों हजार लड़कियाँ छोड़ दी जाती हैं। कम उम्र में ही उन्हें घर से दूर छोड़ दिया जाता है। कई बार अनाथालय उन्हें अपना लेते हैं। ये पहले से ही इतने भरे हुए होते हैं कि 50 फीसद तो इनमें एक साल से कम में ही मर जाती है। भूख-प्यास से तड़पने के अलावाकई बार ये वहशियों का शिकार हो जाती हैं। चीन में परिवार नियोजन को बढ़ावा देने के लिए एक बच्चे का परिवार का नारा दिया गया। देश में करीब 8 करोड़ परिवार ऐसे हैं, जिनमें एक बच्चा हुआ है और चाहे-अनचाहे इन परिवारों ने भी कभी गर्भपात कराया है। एशिया के कुछ इलाकों में तो स्थिति और भी भयावह है। लड़की को जन्म देने वाली माँ को ही सजा दी जाती है। कई बार उसे मार डाला जाता है। कारण है आर्थिक हालात और सामाजिक परेशानियाँ।

इनसे बँधी उम्मीद
दरअसल भारत में उत्तराधिकार के मामले में अभी तक पुरुषों का वर्चस्व रहा। इसलिए पुराने लोग यह मानते रहे कि वंश के साथ-साथ संपत्ति का वारिस भी लड़का ही हो सकता है। परंतु हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005 में खेती की भूमि में हिन्दू महिलाओं के साथयह भेदभाव समाप्त कर दिया।

तो ये होंगे हालात
यदि हालातों पर काबू नहीं किया गया तो अगले 20 साल में चीन और भारत में हालात बदतर हो जाएँगे। 12 से 15 प्रश पुरुष अनुपात के लिहाज से ज्यादा होंगे। 2015 से 2030 के बीच अकेले चीन में 2 करोड़ 50 लाख लोग पत्नियों की तलाश में बूढ़े हो जाएँगे।
(वंदना अग्रवाल से बातचीत पर आधारित)