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Written By WD

इस गणतंत्र में कहाँ हैं बच्चे?

इस गणतंत्र में कहाँ हैं बच्चे? -
कैलाश सत्यार्थ
बचपन बचाओ आंदोलन के प्रमु

ND
देश के छः करोड़ बच्चे काम करते हैं और साढ़े छः करोड़ वयस्क बेरोजगार हैं। इनमें ज्यादातर इन कामकाजी बच्चों के निठल्ले अभिभावक हैं। इन बच्चों को मजदूरी कम मिलती है। सो परिवार की आमदनी कम हो जाती है। यही काम वयस्क इंसान करे तो परिवार की हालत सुधर सकती है और बच्चों का भविष्य भी

भारत के 58 साल गणतंत्र की अनेक उपलब्धियों पर हम फक्र कर सकते हैं। लोकतंत्र में हमारी चरित्रगत आस्था का इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि दुनिया के सबसे बड़े और जटिल समाज ने सफलतापूर्वक 14 राष्ट्रीय चुनाव संपन्‍न किए। सरकारों को बनाया और बदला। विशाल और सशक्त सेना जनप्रतिनिधियों के आदेश पर चलने के अलावा कुछ और सोच भी नहीं सकती। पिछले एक दशक से हमारी आर्थिक विकास की रफ्तार लगभग 9 फीसदी बनी हुई है। 1975 के आपातकाल के कुछ महीनों के अलावा देश के नागरिक अधिकारों और मीडिया की स्वतंत्रता पर कोई राष्ट्रीय पाबंदी नहीं लग सकी, आदि।

दूसरी ओर, गैर बराबरी और भूख से हुई मौतों, किसानों द्वारा आत्महत्याओं, महिलाओं की असुरक्षा और बलात्कार, जातिवाद, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, अशिक्षा आदि कलंक भी हमारे लोकतांत्रिक चेहरे पर खूब दिखाई देते हैं, किंतु इन सबमें सबसे अधिक शर्मनाक देश में चलने वाली बच्चों की गुलामी और बाल व्यापार जैसी घिनौनी प्रथाएँ हैं। बाल वेश्यावृत्ति, बाल विवाह, बाल मजदूरी, बाल कुपोषण, अशिक्षा, स्कूलों, घरों और आस-पड़ोस में तेजी से हो रही बाल हिंसा से लगाकर शिशु बलात्कार जैसी घटनाएँ हमारी बीमार और बचपन विरोधी मानसिकता की परिचायक हैं। भारत में लगभग दो तिहाई बच्चे किसी न किसी रूप में हिंसा के शिकार हैं। 5 वर्ष से कम उम्र के लगभग 47 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं। गैर सरकारी आँकड़ों के अनुसार 6 करोड़ बच्चे बाल मजदूरी और आर्थिक शोषण के शिकार हैं औरइतने ही बच्चे स्कूलों से बाहर हैं।

यह सब आखिर बापू गाँधी, चाचा नेहरू, संविधान, सामाजिक न्याय, सबके लिए शिक्षा, बाल अधिकार संरक्षण, जैसे शब्दों की आड़ में देश के करोड़ों बच्चों के वर्तमान और भविष्य के साथ भद्दा मजाक नहीं, तो और क्या है? कहाँ है वह राजनीतिक इच्छाशक्ति, बुनियादी नैतिकता और सरकारी ईमानदारी, जो अपने ही बनाए कानूनों को पैरों तले रौंदने से रोक सके? आखिर कौन है इसके लिए जवाबदेह?

इन हालातों के लिए कुछ बुनियादी कमियाँ जिम्मेदार हैं। पहली है बचपन समर्थक और बाल अधिकार का सम्मान करने वाली मानसिकता की कमी। दूसरा सामाजिक चेतना और सरोकार का अभाव। तीसरा राजनीतिक इच्छाशक्ति और ईमानदारी की कमी। चौथा बच्चों के अधिकारों और संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए आर्थिक संसाधन मुहैया कराने में कोताही और पाँचवाँ बच्चों के मामले में एक स्पष्ट नैतिकता का अभाव।

बच्चों के मामले में हमारी मानसिकता दो प्रकार की है, यदि आप कथित तौर पर भले और संवेदनशील हैं तो अभाव ग्रस्त बच्चों के ऊपर दया दिखाने या उपकार करने की मानसिकता। दूसरी ओर जो लोग व्यावहारिक हैं और सबसे कमजोर तबकों का उपयोग अपनी संपन्नाता बढ़ाने और मौज-मस्ती के लिए करने में यकीन रखते हैं। ऐसे लोग मजदूर के रूप में बच्चों के श्रम का शोषण, अपनी हवस मिटाने के लिए उनका यौन शोषण अथवा कुत्सित रौब-रुतबे के लिए बच्चों पर हिंसा आदि का सहारा लेते हैं। समाज में ऐसे कितने लोग हैं, जिन्हें बच्चों के अधिकारों की कोई चेतना या समझ है। हर बच्चा नैसर्गिक, संवैधानिक और कानूनी अधिकारों के साथ जन्मता है। किंतु इन अधिकारों का सम्मान और बच्चों के प्रति संवेदनात्मक व मित्रतापूर्ण रिश्ता कितने लोग कायम रखते हैं ?

बाल अधिकार भी बुद्धि-विलास, चर्चा-परिचर्चा या एनजीओ अथवा सरकारी महकमों की परियोजना भर बन कर रह गए हैं, जबकि बाल अधिकारों का सम्मान और बाल मित्र समाज बनाने के प्रयत्न सबसे पहले एक जीवन जीने का तरीका बनने चाहिए। बच्चों के प्रति हम कैसा सोचते हैं,उनके साथ कैसे समानता और इज्जत का व्यवहार करते हैं, उनका विकास, संरक्षण और उनका सम्मान हमारी निजी सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक प्राथमिकताओं में कैसे ढल जाता है। इस पर गहरे मंथन और अमल की जरूरत है।

बाल श्रम के अभिशाप को ही लें। 6 करोड़ बच्चों को सस्ते श्रम के लालच में अशिक्षा, बीमारियों, दासता की गहरी खाई में धकेलकर जो समाज समृद्धि और विकास के सपने संजो रहा है, उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि इतनी बड़ी संख्या में मानवीय गरिमा से वंचित रहकर पनपनेवाले नागरिक समृद्धि के टापुओं पर बैठे लोगों को क्या कभी चैन की साँस लेने देंगे।
ये बच्चे गरीब माता-पिता के बच्चे हैं, यह तय है, किंतु ये माता-पिता इसलिए गरीब हैं कि क्योंकि या तो वे बेरोजगार हैं या उन्हें साल भर में 50-60 दिन से ज्यादा रोजगार नहीं मिलता। साथ ही यह भी तय है कि इन लोगों को सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम मजदूरी तक नहीं मिलती। दूसरी तरफ बच्चों को काम पर लगाया जाता है कि वे सबसे सस्ते या मुफ्त के श्रमिक हैं तथा वे मालिकों के लिए किसी प्रकार की चुनौती भी नहीं होते।

गैर-सरकारी आँकड़ों पर गौर करें तो एक ओर जहाँ 6 करोड़ के लगभग बच्चे काम करते हैं, वहीं साढ़े 6 करोड़ वयस्क लोग बेरोजगार हैं, जिनमें ज्यादातर बाल मजदूरों के अभिभावक हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जहाँ भी बच्चे बाल मजदूरी करते हैं, वहाँ वयस्क मजदूरों का मेहनताना बहुत कम हो जाता है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि जब किसी मालिक को, चाय के ढाबे, छोटी-मोटी दुकानों, सड़क किनारे के होटलों, रेस्टॉरेंटों आदि पर काम करने के लिए नाम मात्र की मजदूरी पर या मुफ्त में बच्चे मिल जाते हैं तो फिर वह ज्यादा पैसे देकर बड़ों को काम पर क्यों लगाएगा? इससे माँ-बाप गरीब बने रहते हैं और बच्चे बाल मजदूरी की चक्की में पिसते जा रहे हैं। इसलिए यह मानना भूल होगी कि बाल मजदूर अपने परिवार के लिए अतिरिक्त आमदनी का जरिया है।

गरीबी के कारण बाल मजदूरी और अशिक्षा चलती है, यह एक ऐसा भ्रम है, जो अब तक टूट जाना चाहिए था। उदाहरण के लिए उत्तरप्रदेश और केरल ऐसे दो राज्य हैं, जहाँ गरीबी का स्तर लगभग बराबर है। फिर भी केरल में शत-प्रतिशत साक्षरता है और उत्तरप्रदेश लगातार इस क्षेत्रमें पिछड़ रहा है। आज देश में 6 करोड़ बच्चे मजदूरी कर रहे हैं। एक बार मजदूर को दिन में 10 रुपए से कम मजदूरी मिलती है तो सभी बच्चे मिलकर 60 करोड़ रुपए प्रतिदिन कमा पाते हैं। यदि बच्चों की जगह वयस्कों को काम मिले, तो उनकी आदमनी 8 से 10 गुना ज्यादाहोगी, इससे पूरे परिवार की गरीबी दूर हो सकती है और बच्चों को शिक्षा का अधिकार हासिल भी हो सकता है।

यदि हम बाल व्यापार की बात करें तो लोग सामान्यतः इसे वेश्यावृत्ति के साथ ही जोड़कर देखते हैं। असलियत में 90-95 प्रतिशत बाल व्यापार गुलामी, बंधुआ या जबरिया मजदूरी, भिक्षावृत्ति, आपराधिक कृत्यों, सर्कस आदि मनोरंजन उद्योगों तथा घरेलू बाल मजदूरी आदि के लिएहोता है। हमारे देश में क्रूरता का यह कलंक बहुत तेजी से पनप रहा है। लाखों बच्चे इसके शिकार हैं। अफसोसजनक बात यह है कि हमारे देश में इस तरह का बाल व्यापार रोकने अथवा इस घोर मानवीय अपराध में संलग्न लोगों को सजा देने के लिए कोई कानून नहीं है।

हम सब जानते हैं कि भारत के 10-15 फीसदी अच्छी और ऊँची पढ़ाई कर पाने वाले युवक-युवतियों ने दुनिया में तहलका मचा दिया है। सूचना तकनीक, कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर, इंजीनियरिंग और चिकित्सा आदि के क्षेत्र में अद्भुत प्रतिभा का परिचय देकर इस पीढ़ी ने विश्वमें भारत की छवि ही बदल डाली है।
कल्पना कीजिए कि यदि 85 फीसदी बच्चे भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा अर्जित कर सकें तो हमारे देश को जल्द ही एक महाशक्ति बनने से कौन रोक सकता है। जरूरत है एक जबर्दस्त राजनीतिक इच्छाशक्ति की। जरूरत है लाखों की भीड़ जुटाने वाले हमारे धर्मगुरुओं, संत-महात्माओं में बचपन के प्रति सम्मान और संवेदना की। और जरूरत है हम और आप जैसे लोगों में एक बुनियादी नैतिकता की। जो कहने को तो बच्चों को ईश्वर का रूप और देश का भविष्य बतलाती है, किंतु व्यवहार ठीक इससे उल्टा होता है। इतनीही बड़ी जरूरत है बाल अधिकारों के प्रति सभी प्रचार माध्यमों खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जागरूकता फैलाने की। साथ ही विभिन्ना विभागों और मंत्रालयों के बीच तालमेल बनाकर एक बाल कल्याण विकास नीति, अर्थनीति और राजनीति की, जिसमें देश के बच्चे सर्वोच्च प्राथमिकता पर हों

देश के विकास के लिए जरूरी बच्चों का विकास
भारत में बच्चों की जनसंख्या पूरे विश्व में सर्वाधिक है। दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) में एक रेखांकित पंक्ति के साथ यह बताने की कोशिश की गई है कि भारत का भविष्य भारतीय बच्चों के भविष्य में निहित है। यह पंक्ति कुछ इस प्रकार है-'देश के विकास कार्यक्रम मेंबच्चों का विकास पहली प्राथमिकता है। केवल इसलिए नहीं कि वे सर्वाधिक संवेदनशील हैं, बल्कि इसलिए भी क्योंकि वे देश की सबसे बड़ी पूँजी हैं और साथ ही भविष्य का मानव संसाधन हैं

2001 की जनगणना के मुताबिक भारत में करीब 157.86 मिलियन बच्चे (6 वर्ष से कम उम्र के) हैं, जो पूरी जनसंख्या का करीब 15.42 प्रश है। इस जनसंख्या में से करीब साढ़े 7 करोड़ बालिकाएँ और करीब 8 करोड़ बालक हैं। इस तरह से इनका लिंग अनुपात 927/1000 है। इस जनसंख्या का एक निश्चित अनुपात ऐसे आर्थिक और सामाजिक वातावरण में रहता है, जिससे कि इनका शारीरिक व मानसिक विकास बाधित होता है। इसी स्थिति से गरीबी, बीमारी आदि बढ़ते हैं।

भारत सरकार ने अगस्त 1974 में बच्चों के लिए राष्ट्रीय नीति की घोषणा की थी। 2 अक्टूबर 1975 को शुरू हुई एकीकृत बाल विकास योजना में बच्चों के विकास के लिए अनेक कार्यक्रम निर्धारित किए थे, परंतु क्या इन सरकारी दावों व योजनाओं ने देश में बच्चों की दशाको पूरी तरह सँवार लिया है। इसका चिंतन कुछ इस तरह से किया जा सकता है।

भविष्य का बच्चा बनाम बच्चों का भविष्य
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बच्चों के लेकर कुछ अनुमानित आँकड़े भविष्य में बच्चों की स्थिति को लेकर आशंकित करते हैं। यदि अन आँकड़ों का हवाला लें तो देश में बच्चों की स्थित अच्छी नहीं कही जा सकती।
* एक अनुमान के मुताबिक देश में करीब 10 करोड़ बच्चे किसी न किसी तरह बालश्रम में लगे हैं।
* प्रति 3 में से 2 बच्चों ने किसी न किसी तरह की प्रताड़ना को झेला है।
* बच्चों में लिंग अनुपात 1000 बालकों पर 927 बालिकाएँ हैं।
* 16 में से एक बच्चा एक साल की उम्र पूरा करने से पहले मर जाता है।
* केवल 43 प्रतिशत बच्चों का जन्म अच्छे स्वास्थ्य विशेषज्ञ की देखरेख में हो पाता है।
* 30 प्रतिशत नवजात बच्चे सामान्य वजन से भी कम के होते हैं।
* भारत के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अनुसार 2003 तक 6-14 वर्ष की आयुवर्ग के करीब 1 करोड़ बच्चे स्कूल ही नहीं पहुँचे हैं। यह संख्या 2001 में 3.54 करोड़ थी, लेकिन अन्य गैर-सरकारी सूत्र इस संख्या को 4.8 करोड़ बताते हैं।
* स्कूल में पहुँचने वाले प्रति 10 बच्चों में से 4 प्राथमिक स्तर पर पढ़ाई छोड़ देते हैं। इसी तरह प्रति 10 बच्चों में से 7 माध्यमिक स्तर पर पढ़ाई छोड़ देते हैं।

ऊपर बताए गए इन घोषित और अनुमानित आँकड़ों के आधार पर यदि 2050 में बच्चों के भविष्य को तय करने या उस स्थिति की कल्पना करने की कोशिश करें तो परिस्थितियाँ कुछ इस तरह तरह होंगी-

देश की करीब आधी जनसंख्या निरक्षर, कुपोषित, प्रताड़ित और बेरोजगार होगी। आश्चर्य में डालने वाला तथ्य यह है कि जिस जनसंख्या की यहाँ बात हो रही, वह पुरुषों की होगी, क्योंकि बालकों के प्रति पूर्वाग्रह रखने वाले इस समाज में बालक, बालिक अनुपात और भी अधिकअसंतुलित हो जाएगा। यदि इस समस्या को सुलझाने के लिए क्रांतिकारी कदम अभी भी नहीं उठाए गए तो वर्तमान भारतीय अर्थव्यवस्था दीर्घकालिक नहीं रह सकती।