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सुयोधन कैसे बना 'दुर्योधन', पढ़ें विस्तृत कथा

सुयोधन कैसे बना 'दुर्योधन', पढ़ें विस्तृत कथा - Story of Duryodhan
'दुर्योधन' या 'सुयोधन', जिसके इर्द-गिर्द ही अधर्म ने और उसके नेत्रहीन पिता ने अपनी विजय का ताना बाना बुना था, इस जयसंहिता का मुख्य पात्र था  और दुर्योधन का अहंकार भाव ही इस युद्ध की कटु परिणति का मुख्य कारण था। दुर्योधन अंत तक भी वासुदेव कृष्ण की धर्म स्थापना में आसक्ति को नहीं समझ पाया और अपने भाई-बान्धवों का समूल नाश करवा बैठा पर क्या दुर्योधन का इस परिदृश में उपस्थित होनाऔर उसकी अनीति ही महाभारत के विनाशकारी समर का कारण था? शायद नहीं दुर्योधन को ही सिर्फ दोष देना ऐसा ही होगा जैसा दीये की कालिख के लिए केवल लौ को ही दोष देना और कालिख में तेल की भूमिका को नगण्य मानना पर जो भी हो, दुर्योधन के नियमपूर्ण अधर्म और वासुदेव कृष्ण के नियमहीन धर्म के परस्पर युद्ध में धर्म का ही पलड़ा भारी रहा और इसी विजय ने इस जयसंहिता को 'धर्मग्रन्थ' का दर्जा दे दिया। 
पर दुर्योधन ने संसार को कुछ सबक दिए जो आने वाले समय में सभी समाजों को चरित्र ही बन गया, जैसे भीम की हत्या की कोशिश और छल-बल द्वारा पांडवों को राजसिंहासन से दूर आज की राजनीतिक परिस्थितियां भी इस "दुर्योधन विधा" पर आश्रित है कोई भी दल सत्ता के लिए कोई भी ''दुर्योधन प्रपंच" लगाने से नहीं चूकता है। 
 
दुर्योधन का जन्म माता गांधारी की कोख से हस्तिनापुर के महल में हुआ पर जन्म से ही वह बालक विवादों और महत्वाकांक्षाओं की बलि चढ़ गया  अपने नेत्रहीन पति से रुष्ट गांधारी ने अपने पुत्र को युवराज बनवाने के लिए, माता कुंती से पहले बालक को जन्म देने की कोशिश में अपने ही गर्भ पर कई प्रहार किए परन्तु युधिष्ठिर का जन्म उस बालक से पहले हो गया इस बात से निराश गांधारी ने बालक को जन्म तो दिया पर गर्भ में ही चोट लग जाने से बालक कमजोर पैदा हुआ उसे बचाने के लिए हस्तिनापुर के कई वैद्य लगे और उसे बचाकर उसका नाम 'सुयोधन' रखा गया। 
 
सुयोधन का अर्थ है भीषण आघातों से युद्ध करने वाला पर बालक सुयोधन पर पिता की राजगद्दी की महत्वाकांक्षा और माता व मामा के हस्तिनापुर के विनाश के मंसूबों ने विपरीत प्रभाव डाला। जब पांडव पुत्र माता कुंती के साथ वन से हस्तिनापुर आए तब सुयोधन को इन पांच पांडवों को देखकर क्रोध और प्रतिस्पर्धा की भावना का अनुभव हुआ और वह मन ही मन उन ऋषि वेशधारी पांडव पुत्रों से घृणा करने लगा पर जब उसे युधिष्ठिर के भावी राजा बनने के बारे में पता चला तब वह कुंठा से भर उठा क्योंकि जिस राजप्रासाद को वह बचपन से स्वयं की सम्पत्ति समझ कर बैठा था उसे ये पांडव छीन सकते थे बस यहीं से सुयोधन से 'दुर्योधन' का जन्म हुआ और उसने पांडव पुत्रों को अपने मामा शकुनी की सहायता से समाप्त करने की कोशिशें शुरू कर दी।  
 
सर्वप्रथम उसने अपने निकटतम प्रतिद्वंदी भीम को समाप्त करने के लिए उसे प्रमाणकोटी में विष दे दिया और उसे गंगा में फेंक दिया। गंगा में भीम को विषैले सांपों में डस लिया जिससे पूर्ववर्ती विष और सर्प विष दोनों का प्रभाव नष्ट हो गया और भीम बच गया तत्पश्चात दुर्योधन ने लाक्षाग्रह में पांडवों  को जलाना चाहा पर वह सफल नहीं हो पाया। 
 
वस्तुतः दुर्योधन पांडवों  को राजसिंहासन का असली उत्तराधिकारी नहीं समझता था क्योकि धृतराष्ट्र, पांडू से बड़ा था पर नेत्रहीन होने के कारण उसे राजा नहीं बनाया गया परन्तु अब वह कुरुकुल के ज्येष्ठ पुत्र धृतराष्ट्र का ज्येष्ठ पुत्र था अतः वह स्वयं को ही युवराज समझता था और अब चुंकि उसके पिता तख़्त पर आसीन थे तब वह युवराज बनने के सपने आंखों में संजोये बैठा था साथ ही वह पांडवों को पांडू के असली पुत्र नहीं मानता था क्योंकि पांडव 'योग' से उत्पन्न हुए थे और पांडू उनके जैविक पिता नहीं थे लेकिन जैसा कि नियम था कि राजा का पुत्र ही राजा बन सकता है अतः युधिष्ठिर ही तख़्त का असली वारिस था और साथ ही युधिष्ठिर ज्येष्ठ कुरु पुत्र था। 
 
दुर्योधन को कलियुग का अवतार माना जाता है क्योंकि उसने कलियुग में होने वाले सभी राजनीतिक हथकंडों को अपना रखा था। वह परम राजनीतिज्ञ और कूटनीतिज्ञ व्यक्ति था। साथ ही उसमें  नेतृत्व करने का गुण युधिष्ठिर से अधिक था। वह गदा युद्ध में संसार का महानतम और अद्वितीय योद्धा था। 
 
यहां तक स्वयं यदुवंशी बलराम, जो कि भीम और दुर्योधन दोनों के गुरु थे, भी दुर्योधन को सर्वश्रेष्ठ गदाधारी मानते थे। उसमें बेशक बल तो भीम से कम था परन्तु चपलता आकाशीय बिजली के सामान थी। उसकी इन्हीं क्षमताओं के फलस्वरूप अनेक राजा महाभारत युद्ध में उसके सहगामी बने 
परन्तु दुर्योधन, युधिष्ठिर की तुलना में नैतिक रूप से पतित था और उसके राजा रहते पृथ्वी पर 'धर्मराज्य' की स्थापना असंभव थी और धर्म की स्थापना ही योगेश्वर कृष्ण का परम लक्ष्य था अतः पांडवों का साम्राज्य ही उस मधुसूदन के लक्ष्य को पूर्ण कर सकता था। 
 
जब युधिष्ठिर को युवराज बनाया गया तब दुर्योधन ने लाक्षागृह का षड़यंत्र रचा जिससे पांडवों को असुरक्षा की भावना के फलस्वरूप वन में छुपकर रहना पड़ा तब पांडवों की अनुपस्थिति में उसने स्वयं को युवराज घोषित करवा लिया। जब पांडव लौटे तब उसने युवराज पद पर अपना दावा जताते हुए पद से हटने से इंकार कर दिया तब धृतराष्ट्र को पुत्र को राज्याधिकार देने के लिए कुरु राज्य को विभाजित करना पड़ा और युधिष्ठिर को इन्द्रप्रस्थ (आधुनिक दिल्ली नगर में ) का राज्य देना पड़ा।  
 
जब धर्मराज युधिष्ठिर ने परम वास्तुकार मायावी राक्षस से इन्द्रप्रस्थ महल का निर्माण करवाया तब उसने सभी राजाओं और युवराजों को महल देखने के लिए और 'राजसूय' यज्ञ में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया। जैसे ही इस महल को दुर्योधन ने देखा वैसे ही उसके मन में ईर्ष्या और द्वेष ने घर कर लिया। जब वह महल को देख रहा था तब उसे फर्श पर बने जलकुंड और धरातल का फर्क नहीं दिख पाया और वह धरातल के जाल में जल में गिर गया इस दृश्य को देख द्रोपदी हंसने लगी और कहा, अंधे का पुत्र अंधा' यह बात दुर्योधन में घावों में नमक की तरह चुभ गई और यहीं से द्रोपदी के अपमान की भूमिका तैयार हो गई। 
 
जब दुर्योधन हस्तिनापुर पंहुचा तब उसने शकुनी की सहायता से द्यूत की योजना तैयार की जिसमे शकुनी के पासों पर एकाधिकार की सहायता से उसकी विजय हुई और पांडव द्रोपदी समेत स्वयं को भी हार बैठे। उसने पांडवों  पर बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास की शर्त थोप दी और कहा कि अगर पांडवों ने सफलतापूर्वक ये शर्त पूरी कर दी तो वो उनका राज्य लौटा देना अन्यथा अगर वो अज्ञातवास में ढूंढ लिए गए तो उन्हें दुबारा बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास भोगना होगा। फिर उसने एकवस्त्रा पांचाली को बालों से राज्यसभा में घसीटकर लाने की आज्ञा दी। जब दुशासन द्वारा पांचाली को लाया गया तब उसने द्रोपदी को दासी संबोधित करते हुए अपनी जंघा पर बैठने को कहा और 'दासी का कोई सम्मान नहीं होता' ऐसा कहते हुए दुशासन को उसे निर्वस्त्र करने को कहा। यह  वाकया दर्शाता है कि महाभारत काल में स्त्रियों कि स्थिति गिर चुकी थी और दासों और दासियों से पशुवत व्यवहार किया जाता था। 
 
तब भीम ने दुर्योधन की जंघा युद्ध भूमि में तोड़ने और दुशासन का लहू पीने व् पांचाली के केशों पर लगाने की प्रतिज्ञा की। 
 
जब पांडव बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास पूरा करके आए तब दुर्योधन ने उन पर ढूंढ लिए जाने का आरोप लगाया और उन्हें 'सूई की नोक ' के बराबर भूमि देने से इंकार कर दिया। जब वासुदेव कृष्ण शांति प्रस्ताव लेकर कुरु सभा में गए तब उसे भी दुर्योधन ने ठुकरा दिया। 
 
अब युद्ध अवश्यम्भावी था और पर उसने युद्ध में भी अपनी छल नीति को नहीं छोड़ा और बालक अभिमन्यु की युद्ध के नियमों के विरुद्ध हत्या कर दी  बस यहीं से वासुदेव कृष्ण का भी युद्ध नियमों से मोह हट गया। वैसे भी वे धर्म की निर्णायक विजय के लिए कृतसंकल्प होकर ही युद्ध में उतरे थे। 
 
जब भीम और दुर्योधन का गदायुद्ध चल रहा था तब गांधारी के सतीबल और दुर्योधन के कड़े व्यायाम के फलस्वरूप, दुर्योधन लोहे के समान कठोर हो गया पर उसका जंघा इतना कठोर नहीं था। इस भीषण महायुद्ध में भीम की पराजय होती दिख रही थी। चुंकि दुर्योधन के सभी सम्बन्धी मारे जा चुके थे अतः वह राज्य लेने का इच्छुक नहीं था पर भीम से जीतना उसका परम लक्ष्य बन चुका था। इस स्थिति में भीम थकने और हारने लगा तब माधव कृष्ण भीम को दुर्योधन की जंघा तोड़ने के प्रतिज्ञा याद दिलवाई। भीम ने युद्ध के नियमों के विपरीत दुर्योधन की जंघा पर प्रहार किया और वह महावीर लड़ाका दुर्योधन भूमि पर गिर पड़ा। नियमों के मुताबिक गदा युद्ध में पेट से नीचे प्रहार वर्जित था पर जिन मर्यादाओ को दुर्योधन ने जीवनभर तोड़ा उन्ही मर्यादाओं को तोड़कर दुर्योधन को भूमि पर मरणासन्न अवस्था में गिरा दिया गया और उसे अपने अनैतिक कार्यो को याद करने के लिए वहीं छोड़ दिया गया। 
 
इस तरह अन्यायी दुर्योधन को वासुदेव कृष्ण ने समाप्त करवा दिया पर जो विरासत दुर्योधन छोड़ गया उसे स्वयं वासुदेव कृष्ण भी समाप्त नहीं कर पाए वह विरासत आज लगभग प्रत्येक शासक, राजनीतिज्ञ बड़ी शान से अपना रहा है आज फिर कई दुर्योधन है, अब फिर भीम की ज़रूरत है, अब फिर वासुदेव कृष्ण जैसों की ज़रूरत है इन 'दुर्योधन वंशजों' का विनाश निश्चित है ,क्योंकि 'धर्म' चुप रह सकता है पर 'अधर्म' के आगे लाचार नहीं।   
 
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