सत्य ही में गत्य है!
'अपने राम' तो यही समझे
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निर्मला भुराड़िया एक स्त्री की मृत्यु हो गई। अर्थी उठी और लोगों के मुँह से सहज ही स्वर निकला, 'राम नाम सत्य है...।' लोग यह उच्चार जारी रखते उसके पहले ही मृतका के पति ने लोगों को टोक दिया, 'भई हम लोग तो कृष्णजी को मानते हैं, गोवर्धननाथ की पूजा करते हैं, सो आप लोग 'राम नाम सत्य है' मत बोलो 'कृष्ण नाम सत्य है' बोलो।' लोगों ने उनकी बात का अनुसरण किया या नहीं किया यह एक अलग मसला है, मगर इतना स्पष्ट है कि वे सज्जन श्मशान वैराग्य के क्षणों में भी 'राम नाम सत्य है...' का मर्म नहीं समझ पाए। सत्य ही में गत्य है वाला गहरा जीवन-सार समझने की बजाय उन्होंने इसे उथलेपन और कट्टरता से जोड़ लिया। धार्मिक और जातीय असहिष्णुता के इस दौर में कई लोग राम नाम सत्य है वाली उक्ति में 'अपने-अपने' भगवानों का नाम डाल देते हैं और अध्यात्म की दार्शनिक गहराई को खोकर अपनी तथाकथित धार्मिकता पर खुश होते हैं। तेरे भगवान ये, मेरे भगवान वो की तर्ज पर भगवानों का बँटवारा करके भारतवासी इतने प्रसन्न हैं कि वे कई चीजों से जुड़ी भारतीयता और उसके सांस्कृतिक महत्व को भूल गए हैं। मसलन राम को ही लें, जब राम की बात चली है तो। कबीर कहते थे कि उनके राम वो राम नहीं, जो दशरथ के बेटे थे। हमें भी यह बात समझना चाहिए कि भारतीय संस्कृति में रचे-पगे राम महज वो राम नहीं, जो अयोध्या के राजा राम थे। न ही यह भारतीय जनता पार्टी के राम हैं, न किसी हिन्दू के देवता। राम शब्द का सांस्कृतिक महत्व बहुत वृहद है और गहरा भी। जब हम किसी से मिलकर 'राम-राम' कहते हैं तो वह एक भारतीय अभिवादन है, यह हमारे यहाँ का 'हैलो' है। मगर जब कट्टर अनुयायियों ने इसे खास समुदाय का धार्मिक तंज देकर बोलना शुरू किया और इसका विरोध करने वाले कट्टर सम्प्रदायों ने इसका बायकॉट शुरू किया तो इस सहज भारतीय अभिवादन को भी किसी एक भारतीय धर्म के खेमे में डाल दिया गया। हमारी भाषा में कई मुहावरे हैं, जिनमें राम का प्रयोग है, मगर उस राम का अर्थ न राजा राम है, न भगवान राम। मसलन जब कोई कहता है 'बहुत थकान है, लगता है शरीर में राम ही नहीं' तो उस व्यक्ति का मतलब शरीर की ऊर्जा से रहता है। सब लोग यह काम कर लेते हैं 'अपने राम' से तो कुछ होता-जाता नहीं। एक नहीं ऐसे कई मुहावरे, उक्तियाँ, लोकोक्तियाँ हमारे जनजीवन में मिल जाएँगी, जिनमें राम गुँथा है। उन्हें किसी धर्म के खाते में डालने की बजाय संस्कृति और भाषायी गढ़न की श्रेणी में रखना ही उपयुक्त होगा।कट्टरपंथी हमेशा भारतीय संस्कृति के क्षरण के लिए पश्चिमी संस्कृति के अतिक्रमण को दोष देते हैं, मगर यह भूल जाते हैं कि उन्होंने खुद अपने सीमित- संकीर्ण, जातीय-धार्मिक आग्रहों के चलते भारतीय संस्कृति में एक वक्त गहराई से पैठी सामुदायिकता को आज कितना नुकसान पहुँचाया है।