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Written By ND

प्रेम का संदेश देते कबीर के दोहे

- अभिलाष दास

संत
ND

सद्गुरु कबीर का एक दोहा बड़ा प्रसिद्ध है जिसे उन्होंने साखी कहा है-
'पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित हुआ न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।'

पोथी पढ़-पढ़कर संसार में बहुत लोग मर गए लेकिन विद्वान न हुए पंडित न हुए। जो प्रेम को पढ़ लेता है वह पंडित हो जाता है। एक लड़का गया और प्रेम-प्रेम खूब रट डाला और आकर कहा कि पिताजी, मैंने प्रेम को खूब पढ़ लिया है। पिता ने कहा कि बेटा, यह प्रेम पढ़ना न हुआ। यह कागज का प्रेम है, इस कागज के प्रेम को पढ़ने के लिए कबीर साहब ने नहीं कहा है।

प्रेम एक घंटा पढ़ने की चीज नहीं है। पूरा जीवन पढ़ा जाता है तब कहीं प्रेम उदय होता है और नहीं भी होता। जब प्रेम उदय होता है तब वह किसी एक के लिए नहीं होता सबके लिए होता है। प्रेम चतुर्दिक होता है। जैसे आग की लौ सबके लिए गरम होती है। वह किसी के लिए शीतल और किसी के लिए गरम होती है ऐसी बात नहीं, सबके लिए एक समान होती है।

पृथ्वी की कठोरता, जल की शीतलता, वायु की कोमलता और आकाश की शून्यता सबके लिए एक समान होती है। इसी प्रकार प्रेम सबके लिए होता है। प्रेम चतुर्दिक और सर्वतोमुखी होता है।

पत्नी के प्रति प्रेम, प्रेम नहीं, मोह है, पुत्र के प्रति प्रेम, प्रेम नहीं, मोह है। इसी प्रकार जाति विशेष, संप्रदाय विशेष, देश विशेष के प्रति प्रेम, प्रेम नहीं मोह है, ममता है। प्रेम एक ऐसी चीज है जो बहुमुखी है। वह प्रेम जब उदय होता है तब हम पंडित होते हैं। हम लोग पंडित कहलाकर भी हमारा प्रेम अपने परिवार के प्रति होता है अथवा अपनी जाति एवं अपने संप्रदाय के लिए होता है।

हम लोग सत्य को काट-काट कर बांट लेते हैं। भगवान को काट-काटकर बांट लेते हैं। इसलिए सब जाति और संप्रदाय के भगवान अलग-अलग हैं। किसी का भगवान संस्कृत जानता है, किसी का भगवान अरबी और किसी का भगवान हिब्रु। किसी का भगवान वेद भेजता है, किसी का भगवान कुरान तथा किसी का बाइबिल। एक भगवान दूसरे भगवान के संप्रदाय वालों को मार डालने तक का आदेश करता है। लेकिन जो सत्य भगवान है अगर उसका बोध हो जाए, तो प्रेम उदय होगा। उसी प्रेम को पढ़ने की जरूरत है।

प्रेम उदय तब होता है जब हमारा स्वार्थ घटता है। यह स्वार्थ ही रोड़ा है, किंतु स्वार्थ हर आदमी में बड़ा अंतर होता हैं एक पशुता का स्वार्थ होता है, एक मनुष्यता का। कुत्तों के बीच में रोटी डाल दी जाए तो वे लड़कर खाते हैं। हम लोगों के बीच में रोटी रख दी जाए तो हम बांटकर खाते हैं। अगर हम लोग भी लड़कर खाएं, तो हम भी जानवर हैं।

स्वार्थ के कारण गद्दियों के लिए लड़ाइयां होती हैं, कुर्सियों के लिए लड़ाइयां होती हैं, चार पैसे के लिए लड़ाई होती है। लेकिन जब मनुष्यता का उदय होगा तब लड़ने की बात नहीं रह जाएगी। जब प्रेम का उदय होगा तब लड़ने की बात नहीं रह जाएगी।