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Written By ND

उपवास और ढाई साल का बच्चा

- मधुसूदन आनन्द

व्रत
Rajashri
WD
तप और व्रत सबसे पहले तो हम में नैतिक बल पैदा करने की दृष्टि से शुरू किए गए होंगे। लेकिन छोटे-छोटे बच्चों को उपवास के लिए प्रेरित करके हम किस नैतिक आचरण का सबूत दे रहे हैं? छोटे-छोटे बच्चों को इस तरह के अनुष्ठानों में डालना, जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, सही नहीं है। क्या समाज इस पर सोचेगा?

सिर्फ ढाई साल का बच्चा और 40 घंटे का उपवास। कोई माने या न माने लेकिन यह सही है कि मुंबई सेंट्रल में रहने वाला मनन संघवी जैन समुदाय के करीब एक हजार साल पुराने पर्युषण पर्व में उपवास रखकर शायद संसार का सबसे छोटा व्रती बन गया है। जैन समुदाय में उसके माता-पिता और रिश्तेदारों को खूब प्रशंसा मिल रही है। ढाई साल का बच्चा ठीक से उपवास का मतलब तक नहीं समझता, मगर उसके पिता सोहिल शाह का दावा है कि हमने बच्चे को व्रत रखने के लिए मजबूर नहीं किया। हमने सिर्फ उससे पूछा कि क्या तुम उपवास रखोगे जो तुम्हारी बहन ने भी बचपन में रखा था, तो वह फौरन तैयार हो गया। पर्युषण के दौरान आठ दिनों तक उपवास का क्रम चलता है।

जैन धर्म में यह माना जाता है कि इस तरह के उपवास से आत्मा की शुद्धि होती है। लोभ-लालच का नाश होता है और आदमी का आध्यात्मिक कायाकल्प होता है। ऐसा लगता है कि बच्चा जैसे खेल-खेल में ही उपवास रखने को तैयार हो गया। माँ-बाप ने उसे बीच में खाना देने की कोशिश भी की। जब वह नहीं माना तो उसे स्थानीय जैन मुनि के पास भी ले जाया गया मगर वह उपवास तोड़ने को तैयार नहीं हुआ हालाँकि रोज सवेरे उठते ही वह दूध के लिए रोता है।

इसके लिए मुंबई में जैन समुदाय ने उसे सम्मानित भी किया है और उसकी माँ को यकीन है कि उसमें इच्छाओं को नियंत्रण में रखने के संस्कार पड़ रहे हैं। लेकिन एक अँगरेजी अखबार में छपी समाचार-कथा के अनुसार जब उसका संवाददाता बच्चे का इंटरव्यू लेने के लिए खाने का कुछ सामान लेकर उसके घर आया तो वह बच्चा उस सामान के लिए अपनी बहन से झगड़ा करने लगा। उसने संवाददाता को कुछ नहीं बताया मगर उसकी माँ बच्चे की इस उपलब्धि पर फूली नहीं समा रही थी।

ND
किसी बाल मनोवैज्ञानिक से अगर आप पूछें तो वह कहेगा कि उपवास रखने का उसका काम स्वाभाविक नहीं है, जबकि खाने-पीने की चीज के लिए बहन से लड़ना सामान्य बात है। तो क्या पारिवारिक पर्यावरण इतने छोटे बच्चे को ऐसा कठिन उपवास करने के लिए मजबूर नहीं कर रहा? क्या माँ-बाप, दादी-बाबा का यह फर्ज नहीं है कि वे बच्चे को ऐसा करने से रोकें? या इसे बिलकुल बचपन में बच्चे को उन बड़ी उपलब्धियों के लिए तैयार रहने और तप करने के लिए प्रेरित करना माना जाए जिनका टीवी रियलिटी शो के इस युग में क्षणभंगुर जीवन है? क्या कभी किसी ने ऐसे बच्चों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करने की कोशिश की है?

हाल ही में सर्कस में काम करने वाली दो नन्ही बच्चियाँ जब मुक्त हुईं तो उन्होंने बताया कि सर्कस का मालिक उन्हें बिना बात मारता था और खाने को नहीं देता था। क्या यहाँ भूख का इस्तेमाल बच्चों से जानवर जैसे काम लेने के लिए नहीं हो रहा था? हमारे पूरे समाज में बच्चों से अपेक्षा या माँग बहुत बढ़ गई है।

माँ-बाप स्कूल में, खेल में, डिबेट में, अभिनय में ही नहीं, हर ऊलजलूल क्षेत्र में अपने बच्चे को नंबर वन पोजीशन पर देखना चाहते हैं। यह बच्चों के प्रति अन्याय है और इससे उनका सामान्य विकास रुकता है। यों तो प्रायः सभी धर्मों में उपवास रखने की परंपरा है, लेकिन यह ध्यान रखा जाता है कि वयस्क और निरोगी लोग ही उपवास रखें। रोजे रखने के मामले में यही व्यवस्था है और इस्लाम में यह प्रावधान है कि जो मुसलमान रोजे न रख सके, वह किसी रोजा रखने वाले गरीब के खाने-पीने का प्रबंध करे।

हिन्दुओं में कई आठ-दस वर्षीय कन्याओं को उनके माता-पिता अच्छा वर पाने की आशा में चंदन छठ और सूरज षष्ठी जैसे व्रत आज भी कराते हैं। लेकिन कोई लड़का ऐसा व्रत नहीं रखता। शिवरात्रि और जन्माष्टमी पर कई बच्चे यह कहते हुए मिल जाएँगे कि हम तो बरती भी हैं और चरती भी यानी व्रत का माल भी खाएँगे और नियमित भोजन भी। यही बात सभी बच्चों पर लागू होनी चाहिए ताकि वे पर्वों का पूरा आनंद उठा सकें और उनके बाल मन पर कोई बोझ न पड़े।

तप और व्रत सबसे पहले तो हम में नैतिक बल पैदा करने की दृष्टि से शुरू किए गए होंगे। लेकिन छोटे-छोटे बच्चों को उपवास के लिए प्रेरित करके हम किस नैतिक आचरण का सबूत दे रहे हैं? क्या इस पद्धति से हमारे देश में सचमुच नैतिक आदमी बने हैं? जैन धर्म ने सत्य, अहिंसा, अस्तेय और अपरिग्रह जैसे अनेक उच्चतर जीवन मूल्य दिए हैं।

व्रत-उपवास का भी अपना आध्यात्मिक प्रयोजन होता होगा जैसे भूख हड़ताल वास्तव में एक नैतिक अस्त्र के अलावा और क्या चीज हो सकती है जिसका इस्तेमाल गाँधीजी ने सफलतापूर्वक किया। व्रत रखना कोई बच्चों का खेल नहीं है। दुर्गम पर्वतों पर लड़ने वाले भारतीय सैनिकों के लिए आज उपवास के प्रयोगों के बारे में सोचा जा रहा है ताकि संकट आने पर वे भूखे-प्यासे भी रह सकें। लेकिन छोटे-छोटे बच्चों को इस तरह के अनुष्ठानों में डालना, जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, सही नहीं है। क्या समाज इस पर सोचेगा?