जवानी में ही विधवा हो जाती हैं इस गांव की आधी महिलाएं
गोरखपुर। उत्तर प्रदेश के इस शहर से करीब 25 किमी दूर ऐतिहासिक गांव चौरा के पास की आधी से अधिक महिलाएं जवानी में ही विधवा हो जाती हैं। अगर आप यहां की महिलाओं से बात करे तो आपको ज्ञात होगा कि जहां रहने वाले ज्यादातर युवा कच्ची शराब पीने से मारे जाते हैं, लेकिन सरकारी रिकॉर्ड में यह बात आज तक सामने नहीं आई है।
इसका सबसे बड़ा कारण है कि स्थानीय शराब माफिया को पुलिस और प्रशासन से 'पूरा सहयोग' मिलता है। हैरानी इस बात की है कि सरकारी रिकॉर्ड में एक आज तक भी व्यक्ति के मौत की वजह कच्ची शराब नहीं बताया गया है। शराब व्यापारियों को इस ऐतिहासिक स्थल पर स्थानीय पुलिस, आबकारी विभाग का पर्याप्त संरक्षण मिलता है जिसके चलते बड़े पैमाने पर कच्ची शराब बनाई और बेची जाती है।
गांव में करीब साढ़े तीन हजार लोग रहते हैं और सैकड़ों की संख्या में रहने वाले परिवारों में से पिछले पांच साल में कच्ची शराब से करीब 39 लोगों की मौत हो चुकी है। पिछले साल ही करीब आधा दर्जन लोगों की मौत हो गई। गांव में रहने वाली विधवा महिलाओं ने जिला प्रशासन और उच्चाधिकारियों तक अपनी आवाज पहुंचाई तो शराब का गांव में बनना बंद हो गया, लेकिन बिक्री बदस्तूर चालू रही है।
शराब बनाने और बेचने वालों के गुंडे गांव में आकर महिलाओं, बुजुर्ग लोगों को गालियां सुनाते हैं और जान से मारने की धमकी देते हैं। गांव में ही बहुत से परिवार हैं जिनके युवा और नौजवान कच्ची जहरीली शराब के चलते तमाम तरह की बीमारियों का शिकार बन जाते हैं और इन लोगों की कोई इलाज होने से पहले ही मौत हो जाती है। बारह-तेरह साल की उम्र से बच्चे शराब पीने लगते हैं और 20-22 वर्ष के होने तक बूढ़े दिखने लगते हैं और 35-40 की उम्र में मर भी जाते हैं।
इन गांवों में रहने वाले ज्यादातर भूमिहीन मजदूर हैं। गांव की दर्जनों महिलाओं को विधवा पेंशन मिलती है और जबकि काफी महिलाओं को ऐसी सरकारी योजनाओं के बारे में जानकारी नहीं होती है। कच्ची शराब का दुष्चक्र ऐसा है कि छोटे-छोटे बच्चे तक सरकारी प्राइमरी स्कूलों में शराब पीकर आ जाते हैं। गांव के प्राइमरी स्कूल की अध्यापिका सुश्री सरिता सिंह का कहना है कि कभी-कभी तो कक्षा तीन के बच्चे भी शराब पीकर स्कूल आ जाते हैं।
जब बच्चों को यह समझाने की कोशिश की जाती है कि स्कूल में शराब पीकर आना बुरी बात है तो बच्चे स्कूल आना ही बंद कर देते हैं। पहली कक्षा से पांचवीं कक्षा तक सौ से अधिक बच्चों के नाम दर्ज हैं लेकिन दिन की शुरुआत में 25 से लेकर 35 तक बच्चे आते हैं और लंच की छुट्टी के बाद इनकी संख्या 15-20 तक ही रह जाती हैं। पर जिस दिन स्कूल में ड्रेस, कॉपी-किताबें बांटी जाती हैं, उस दिन बच्चों की मौजूदगी सबसे ज्यादा रहती है।
वैसे तो देश भर के गांवों में कुल मिलाकर स्थितियां एक जैसी ही हैं लेकिन महिलाओं, बच्चों में जागरुकता की बहुत कमी है और इन्हें इसके प्रति प्रवृ्त्त करना समाजसेवी संस्थाओं, सरकारी संस्थाओं, प्रशासन का दायित्व है जो यहां कैंप लगाकर ग्रामवासियों को जागरूक करें ताकि इनमें वांछित बदलाव आ सके और स्थानीय स्तर पर बेहतरी की उम्मीद की जा सके।