-शकील अख्तर
नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा दिल्ली में पद्मश्री ओमपुरी को दी गई भावभीनी श्रद्धांजलि
नई दिल्ली। ओमपुरी ने थिएटर से लेकर सिनेमा तक अपने कला जीवन में कई मिथक तोड़े। मंच पर वो यक्षगान और काबुकी शैली से लेकर ऑथेलो जैसे नाटक खेलने में सक्षम थे। खुरदुरे चेहरे के बावजूद उन्होंने अपने सशक्त अभिनय से फिल्मी एक्टर की छवि बदल डाली। कला सिनेमा से लेकर मेनस्ट्रीम और हॉलीवुड सिनेमा तक उन्होंने इतने अलग-अलग किस्म का काम किया कि उन भूमिकाओं को देखकर ही एक कलाकार बहुत कुछ सीख सकता है।
ओमपुरी को याद करते हुए यह बात नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में उनके साथ थिएटर और एक्टिंग सीखने वाले कलाकार साथियों ने कही। मौका था एनएसडी के अपने पूर्व कलाकार साथी ओमपुरी के असामयिक निधन पर आयोजित श्रद्धांजलि सभा का। शुक्रवार की शाम एनएसडी कैम्पस में यह सभा हुई। इस सभा में एनएसडी के निदेशक वामन केंद्रे, पूर्व डायरेक्टर देवराज सिंह अंकुर, भानु भारती, नीलम मालती चौधरी, मोहन महर्षि के साथ ही दिल्ली फिल्म और थिएटर जगत से जुड़े कलाकारों और लेखक-पत्रकारों ने हिस्सा लिया। 2 मिनट का मौन रखा। श्रद्धा-सुमन अर्पित किए।
ओमपुरी साफ़ हिन्दी नहीं बोल पाते थे : इस सभा में ओमपुरी के बैचमैट और दोस्त देवराज अंकुर ने कहा कि जिस वक्त ओमपुरी, नसीरुद्दीन शाह हमारे साथ एनएसडी में आए थे, तब स्कूल में रेपेटरी के 6 कलाकारों समेत कुल 32 स्टूडेंट ही थे। शुरू के 3 महीने सभी होस्टल में साथ रहे। इब्राहीम अल्काज़ी ने फर्स्ट ईयर के स्टूडेंट के जुड़ने के बाद रेपटरी और बाकी सभी कलाकार साथियों के साथ शेक्सपियर के नाटक 'ऑथेलो' के मंचन का प्लान बनाया।
ओमपुरी को मोमतानो की भूमिका मिली लेकिन उनके पहले ही संवाद 'मोहतरमा मैं तो बुरी तरह से ज़ख्मी हो गया है' से उनके पंजाबी-हरियाणवी लहजे पर सवाल उठे। ओमपुरी हरियाणा से आए थे। उनका साफ़ हिन्दी बोलना मुश्किल था। उनके एक और बैचमैट भानु भारती के मुताबिक, उनके हिन्दी उच्चारण पर जब सवाल उठे तो ओमपुरी ने अपनी स्पीच पर जमकर काम करना शुरू किया। यह वो वक्त था, जब सुबह 4 बजे से कलाकार रवीन्द्र भवन में वॉइस और स्पीच को लेकर अभ्यास करते थे। आवाज़ तो अच्छी थी ही। प्रैक्टिस से ओमपुरी इस शुरुआती दिक्कत से उभर गए और फिर वो सहज ही हर तरह के रोल निभाने लगे।
ग़ज़ब का प्रेजेंस ऑफ माइंड था : थिएटर में ओमपुरी के प्रेज़ेंस ऑफ माइंड का देवराज अंकुर ने एक किस्सा भी सुनाया। उन्होंने कहा, नाटक 'तुगलक' के आखिरी सीन में एक पहरेदार आता है, जो बताता है कि आज़म खान का क़त्ल हो गया है लेकिन उस आखिरी सीन में वो पहरेदार नहीं आया। स्टेज पर इतिहासकार बर्नी की भूमिका में ओमपुरी थे जबकि तुगलक' की भूमिका मनोहर सिंह निभा रहे थे। जब सही वक्त पर पहरेदार की एंट्री नहीं हुई और मंच पर बिना संवाद का वक्त आगे बढ़ने लगा। तब मनोहर सिंह ने ओमपुरी से कहा, 'क्या बात है बर्नी, बहुत देर से कोई खबर नहीं आ रही है'। परेशान ओमपुरी फौरन बैक स्टेज पर गए लेकिन जिस पहरेदार को स्टेज पर एंट्री लेना था वो वहां भी नहीं दिखा। ओमपुरी तुरंत लौटकर मंच पर पहुंचे और कहा, 'शहंशाह कहां क्या हो रहा है मुझे भी नहीं पता चल पा रहा है लेकिन एक खबर मिली है कि आज़म खान का क़त्ल हो गया है।' इस तरह दर्शकों को नाटक में पहरेदार की एंट्री का पता नहीं चला और इस अहम सीन के साथ नाटक खत्म हो गया।
सिगरेट पीते नसीरुद्दीन शाह के लिए पहरेदारी! : मगर यह सोचने वाली बात थी कि तीरथराम का जो कलाकार पहरेदार बना था, वो था कहां? बाद में पता चला कि वो नाटक में आज़म और अज़ीज़ की भूमिका निभा रहे नसीरुद्दीन शाह और राजेंद्र जसपाल की सेवा में बैक स्टेज पर एक कोने में पहरेदारी कर रहा था। नसीर और राजेंद्र बैक स्टेज पर सिगरेट पी रहे थे। फर्स्ट ईयर का वो कलाकार अपने सीनियर स्टूडेंट्स की पहरेदारी में इसलिए खड़ा था ताकि अगर बैक स्टेज पर 'चचा' इब्राहीम अल्काजी आ जाएं तो उन्हें पहरेदार अपने भाले से ठक-ठक कर बता सके। गनीमत रही कि उस दिन शो में अल्काज़ी नहीं आए। और इस बड़ी ग़लती पर कोई बखेड़ा खड़ा नहीं हुआ। पहरेदार बच गया।
बेटे के साथ नाटक करना चाहते थे : देवराज अंकुर ने कहा, पिछले कुछ दिनों से वो अपने बेटे ईशान के साथ मंच पर नाटक खेलना चाहते थे। दिसंबर के आखिरी हफ्ते में भी उन्होंने फोन कर कहा था, 'कोई अच्छी सी स्क्रिप्ट दीजिए। 4-5 कैरेक्टर वाली जिसमें ज़्यादा तामझाम ना हो। कॉमेडी हो या फुल ड्रामा।' उन्होंने बताया, मुंबई में ओमपुरी ने 'मजमा' नाम की ड्रामा कंपनी बनाई थी जिसके ज़रिए उन्होंने 'उध्वस्त धर्मशाला' और 'बिच्छू' जैसे नाटक खेले थे। बाद में उन्होंने पंजाबी में 'तेरी अमृता' नाम के नाटक का मंचन किया था। थिएटर उनकी रग-रग में था। इससे पहले कि हम उन्हें एक बार फिर मंच पर अभिनय करते देखते इस प्रोसेस पर ही ब्रेक लग गया। देवराज बोले, ओमपुरी दिल के इंसान थे वहीं नसीर दिमाग़ के। मैं इन दोनों को लेकर मर्चेंट ऑफ वेनिस नाटक खेलने का मन रखता था। नसीर को शॉयलॉक का और ओम को एंटोनियो का रोल देना चाहता था लेकिन अब ऐसा कभी नहीं हो सकेगा। भानु भारती ने उनके निर्देशित 2 नाटकों हेमलेट और द लेसन में ओमपुरी के काम को याद किया। कहा, उनका जाना जैसे उनकी निजी क्षति है।
उनके पास फीस के पैसे नहीं थे : एनएसडी में ओमपुरी की 2 साल जूनियर रही नीलम मालती चौधरी ने कहा, एनएसडी के दिनों में ही हमें उनके संघर्षपूर्ण जीवन के बारे में पता चल गया था। मुझे अच्छे से याद है कि ग्रेजुएशन के बाद वो फिल्म इंस्टीट्यूट जाना चाहते थे लेकिन फीस के पैसे नहीं थे। हम साथियों ने एक मिशन की तरह ये काम हाथ में लिया ताकि फिल्म इंस्टीट्यूट में उनके कुछ महीने इत्मीनान से गुज़र सके। फिर 1976 में मैं मुंबई पहुंची तब फिल्म इंस्टीट्यूट से उनका कोर्स हो गया था। मुंबई में हम कुछ लोग मिले फिर मैं उनकी थिएटर कंपनी 'मजमा' से जुड़ी। रिहर्सल मेरे घर कफ परेड पर होने लगी। बाद के दिनों में मैं भोपाल, चंडीगढ़ वगैरह शिफ्ट होती रही लेकिन ओमपुरी से एक दोस्त के रूप में कभी नाता नहीं टूटा।
अक्सर देर रात वो कॉल करते : नीलम मालती के मुताबिक, ओमपुरी अक्सर देर रात को कॉल करते थे। पूछते, तुम सो तो नहीं रही हो, 'तेरी अमृता' नाटक कर रहे हैं। परसों से रिहर्सल करें। तब कहना पड़ता कि एकदम से कैसे होगा, थोड़ा वक्त दीजिए। आज ये बात शिद्दत से महसूस हो रही है कि वो थिएटर की तरफ लौटने को बहुत उत्सुक थे। आज जब वो नहीं हैं और वो जबकि हमारी ज़िदंगी का हिस्सा रहे हैं उस दोस्त के बारे में पास्ट टेंस में बात करना बेहद असामान्य-सा लग रहा है। मुझे उनके वो दिन भी याद हैं, जब चंडीगढ़ में वो शूटिंग के लिए आते थे। शूटिंग के बाद अक्सर एक टोकरा भर सब्ज़ियां ले आया करते थे। उनमें गोभियां, मूली, पालक जैसी सब्ज़ियां होतीं। घर पर आते ही कहते, 'आज रात को मैनू खाना बनावांगा।' खाना तो ठीक ही होता लेकिन जिस तरह से किचन में वो ये सब करते, उस पर हम खुश हुए बिना ना रहते। लेकिन आज उनके ग़म में दिल बहुत भारी है। उनसे मेरी 1 जनवरी को नए साल के मौके पर बात हुई थी। मैं ये सब नहीं भूल सकूंगी। मुझे उनके साथ मुंबई में मिस जूली और उध्वस्त धर्मशाला जैसे नाटकों में काम का मौका मिला था जिनके शोज़ पृथ्वी थिएटर और एनसीपीए में हुए थे लेकिन वो सब एक याद बनकर रह गए हैं।
हमने दस बार देखी थी फिल्म 'आक्रोश' : नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के डायरेक्टर वामन केंद्रे ने ओमपुरी की पेशेवर सलाहियतों को याद किया। उन्होंने कहा, 1980 में एनएसडी में पहले साल में जब हमने एडमिशन लिया था तब ओमपुरी की पहली फिल्म 'आक्रोश' आई थी। हम 10-12 लड़कों ने कम से कम 10 बार ये फिल्म देखी थी। तब हमने सीखा था कि एक एक्टर के हिस्से में जब संवाद का एक शब्द भी ना हो तब कैसे एक्टिंग की जाती है। इसके लिए ओमपुरी को नेशनल अवॉर्ड भी मिला था। नसीर और ओमपुरी की फिल्मों वाला वो प्रेरक आर्ट फिल्मों का दौर था। इस दौर में ही जब पहली बार मैं ओमपुरी से मुंबई में मिला था तब हिचक थी कि पता नहीं एक बड़ा और नामी एक्टर हमसे कैसे मिलेगा? लेकिन उनमें किसी तरह का कोई आवरण नहीं था। एक झटके में ही हम उनके अपने बन गए और फिर बातचीत का सिलसिला चलता रहा। हाल ही में 29 दिसंबर को हमने उन्हें मुंबई में एक ड्रामा फेस्टिवल के लिए इन्वाइट किया था, हालांकि वो किसी अर्जेंट काम की वजह से नहीं आ सके थे। हम चाहते थे कि उनकी काबिलियत का यहां के स्टूडेंट को लाभ मिले। वो यहां पर पढ़ाएं। उन्होंने इस पर कहा था कि वो 2-3 के लिए नहीं बल्कि 10-12 दिन रुककर यहां पढ़ाना चाहते हैं।
पूरे कला जगत की अपूरणीय क्षति : वामन ने कहा, ओमपुरी का जाना सिर्फ नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के लिए ही क्षति नहीं है बल्कि पूरे कला जगत के लिए सदमा है। वो एक वर्सेटाइल एक्टर थे चाहे यथार्थवादी सिनेमा हो या कमर्शियल, हर स्ट्रीम और स्टाइल में उन्होंने अपना सिक्का जमाया। उन्होंने साबित किया कि एक्टर का टैलेंट और कमिटमेंट महत्वपूर्ण है कद, काठी, रंग, स्किन टैक्सचर नहीं। वो एक ऐसे कलाकार थे जिन्होंने सिनेमैटिक एक्टर की इमेज को बदलने का ऐतिहासिक काम किया। वो एक ट्रांसपैरेंट इंसान थे इसलिए उनमें बेबाकी से अपनी राय रखने की हिम्मत थी जिसकी वजह से उन्हें कई बार विरोध सहना पड़ा और विवादों ने जन्म लिया।