• Webdunia Deals
  1. धर्म-संसार
  2. व्रत-त्योहार
  3. अन्य त्योहार
  4. Gangaur 2017
Written By राजश्री कासलीवाल

गणगौर : उल्लास एवं खुशी से रोमांचित करता लोक-संस्कृति का उत्सव

गणगौर :  उल्लास एवं खुशी से रोमांचित करता लोक-संस्कृति का उत्सव - Gangaur 2017
गणगौर लोक-संस्कृति से जुड़ा वह उत्सव है, जो लोक-जीवन  की तमाम इच्छाओं को सुख की कामनाओं से जोड़कर अभिव्यक्त करता है। गणगौर भारतीय गृहस्थ जीवन का गीतिकाव्य है। भारतवर्ष के अन्य जनपदों की तरह ही निमाड़-मालवा की संस्कृति में इसका बहुत महत्व है। 9 दिन तक चलने वाला यह लोक-उत्सव  जनमानस को अपने सुख में डुबोकर पुन: ताजगी से भर देता है। यह पर्व जीवन को उल्लास  एवं खुशी से रोमांचित कर देता है।
 
चैत्र वदी दशमी से चैत्र सुदी तीज तक 9 दिन चलने वाले इस उत्सव की 3 प्रमुख धारणाएं हैं।  पहली यह कि यह उत्सव एक संपन्न और सुखी दाम्पत्य का पर्याय है। दूसरी, यह खेतिहर  संस्कृति का फसल से जुड़ा उत्सव है और तीसरी, संतान प्राप्ति की कामना।
 
कोयल जब बसंत के आगमन की सूचना देने लगती है, खेतों में गेहूं पकने लगता है, आम्रवृक्ष  बौरों के गुच्छों की पगड़ी बांधते हैं, तब बसंत के उल्लासित मौसम में गणगौर का त्योहार  मनाया जाता है।
गणगौर का त्योहार नारी जीवन की शाश्वत गाथा बताता है। यह नारी जीवन की पूर्णता की  कहानी है। यह त्योहार अपनी परंपरा में एक बेटी का विवाह है जिसमें मां अपनी बेटी को  पाल-पोसकर बड़ा करती है, उसमें नारी का संपन्न और सुखी भविष्य देखती है, उसी तरह  जवारों को भी 9 दिन तक पाला-पोसा जाता है, सींचा जाता है, धूप और हवा से उनकी रक्षा की  जाती है और एक दिन बेटी का ब्याह रचा दिया जाता है।
 
गणगौर उत्सव में स्थापना से लेकर पाट बैठने तक यानी दशमी से लेकर दूज तक स्त्रियां पाती  खेलने जाती हैं। गांव की स्त्रियां प्रतीकस्वरूप एक लोटे में गेहूं भरकर उसको कपड़ा ओढ़ाकर  उसकी आकृति देवी की मुखाकृति की तरह बनाती हैं। पाती खेलने के संदर्भ में लोक-जीवन में  घटना घटित होती है। एक स्त्री गणगौर के उत्सव में शामिल होती है। वह पाती खेलने अमराई  में जाती है। उसका पति बाहर से आता है। पत्नी को घर न पाकर वह रूठकर बैठ जाता है। वह  अबोला ले लेता है। वह स्त्री जब घर लौटती है तो पति उससे बात नहीं करता है। इस पर वह  दाम्पत्य जीवन के रेशमी बंधन की दुहाई देती है।
उत्सव के आखिरी दिन विदा की तैयारी से पूर्व रनुदेवी-धणियर राजा का श्रृंगार किया जाता है।  धणियर राजा को धोती, कमीज, कोट और पगड़ी पहनाई जाती है। गले में कंठा, हाथ में अंगूठी  पहनाई जाती है। रनुदेवी को पूरे वस्त्रों के साथ आभूषण भी पहनाए जाते हैं। फिर देवी को लाल  चूड़ियां पहनाई जाती हैं और विदा की तैयारी होने लगती है। उस समय का दृश्य और बेटी की  विदा का दृश्य एक-सा होता है। पूरा गांव नम आंखों से विदा के लिए जुटता है।
 
पाटों पर जो धणियर राजा और रनुबाई की प्रतिमा सजाई जाती है, उन प्रतिमाओं के अंदर खाली  जगह में 9 दिन पहले यानी उत्सव के प्रारंभ में बोए जवारों को पूजा-आरती करके रख देते हैं।  पूरे गांव की स्त्रियां और पुरुष उन प्रतिमाओं को बीच में रखकर घेराकार रूप में झालरिया देते  हैं। पूरा जनसमुदाय उत्साह, हर्ष और विदा के क्षणों की नमी में डूब जाता है।
 
10 दिनों तक चलने वाला यह पर्व निमाड़ और मालवा की महिलाओं में विशेष महत्व रखता है।  पर्व की शुरुआत से लेकर 10 दिनों तक महिलाओं द्वारा अभीष्ट स्थल पर धणियर राजा और  रनुबाई के गृहस्थ जीवन से जुड़े प्रसंगों पर आधारित लोकगीत गाए जाते हैं। कन्याओं द्वारा  योग्य वर की प्राप्ति हेतु माता गौरी के पूजन से जुड़ा यह लोकपर्व अपने में संगीत, कला और  आस्था के कई रंग समेटे हुए हैं।
ये भी पढ़ें
नवरात्रि : मां दुर्गा की चौथी शक्ति कुष्मांडा की पावन कथा