डोल ग्यारस हिन्दू धार्मिक ग्रंथों और मान्यताओं के अनुसार भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है। इस दिन भगवान विष्णु करवट बदलते हैं। इसीलिए यह 'परिवर्तनी एकादशी' भी कही जाती है। इसके अतिरिक्त यह एकादशी 'पद्मा एकादशी' और 'जलझूलनी एकादशी' के नाम से भी जानी जाती है। इस दिन को व्रत करने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है।
डोल ग्यारस पर्व भादों मास के शुक्ल पक्ष के ग्यारहवें दिन मनाया जाता हैं। कृष्ण जन्म के अठारहवें दिन माता यशोदा ने उनका जलवा पूजन किया था। इसी दिन को 'डोल ग्यारस' के रूप में मनाया जाता है। जलवा पूजन के बाद ही संस्कारों की शुरुआत होती है। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण को डोल में बिठाकर तरह-तरह की झांकी के साथ बड़े ही हर्षोल्लास के साथ जुलूस निकाला जाता है। इस दिन भगवान राधा-कृष्ण के नयनाभिराम विद्युत सज्जित डोल निकाले जाते हैं।
इस दिन भगवान कृष्ण के बाल रूप का जलवा पूजन किया गया था। माता यशोदा ने बालगोपाल कृष्ण को नए वस्त्र पहना कर सूरज देवता के दर्शन करवाएं तथा उनका नामकरण किया। इस दिन भगवान कृष्ण के आगमन के कारण गोकुल में जश्न हुआ था। उसी प्रकार आज भी कई स्थानों पर इस दिन मेले एवं झांकियों का आयोजन किया जाता हैं। माता यशोदा की गोद भरी जाती हैं। कृष्ण भगवान को डोले में बिठाकर झांकियां सजाईं जाती हैं। कई कृष्ण मंदिरों में नाट्य-नाटिका का आयोजन भी किया जाता हैं।
डोल ग्यारस के दिन भगवान विष्णु के वामन अवतार की भी पूजा की जाती है, क्योंकि इसी दिन राजा बलि से भगवान विष्णु ने वामन रूप में उनका सर्वस्व दान में मांग लिया था एवं उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर अपनी एक प्रतिमा को राजा बलि को सौंप दी थी, इसी वजह से इसे वामन ग्यारस भी कहा जाता है।
मेले का आयोजन:
डोल ग्यारस को राजस्थान में 'जलझूलनी एकादशी' कहा जाता है। इस अवसर पर गणपति पूजा, गौरी स्थापना की जाती है। इस शुभ तिथि पर यहां पर कईं जगहों पर मेलों का आयोजन भी किया जाता है। मेले में ढोलक और मंजीरों का एक साथ बजना समां बांध देता है। इस अवसर पर देवी-देवताओं को नदी-तालाब के किनारे ले जाकर इनकी पूजा की जाती है। सांयकाल इन मूर्तियों को वापस लाया जाता है। अलग-अलग शोभा यात्राएं निकाली जाती है, जिसमें भक्तजन भजन, कीर्तन, गीत गाते हुए खुश होकर डोल ग्यारस की खुशियां मनाते हैं।
डोल ग्यारस के दिन यह व्रत करने से व्यक्ति के सुख-सौभाग्य में वृद्धि होती है। डोल ग्यारस के विषय में यह भी मान्यता है कि इस दिन माता यशोदा ने भगवान श्रीकृष्ण के वस्त्र धोए थे। इसी कारण से इस एकादशी को 'जलझूलनी एकादशी' भी कहा जाता है। इसके प्रभाव से सभी दु:खों का नाश होता हैं।
इस दिन भगवान विष्णु एवं बाल कृष्ण के रूप की पूजा की जाती हैं। जिनके प्रभाव से सभी व्रतों का पुण्य मनुष्य को मिलता हैं। जो मनुष्य इस एकादशी को भगवान विष्णु के वामन रूप की पूजा करता है, उसके हर संकट का अंत होता है।