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ख़याल
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डॉ. सुधा ओम ढींगरा तेरे ख़यालों से यह महसूस होता रहा जैसे व्यक्तित्व मेरा भीतर से कुछ खोता रहा। समय की धूल को जब झाड़ा तो, दर्द की ऐसी टीस उठी और एक आसूँ भोर तक आँख धोता रहा। न ढलका, न लुढ़का, मगर जाने क्यों? दिल इन मोतियों की माला पिरोता रहा। उपवन खिल उठा जब बहार आई, बागवान बस मेरे लिए काँटे बोता रहा। घायल रूह और छलनी जिस्म लिए उम्र भर अस्तित्व, घुट-घुट कर रोता रहा। साभार- गर्भनाल