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Written By WD
Last Modified: शुक्रवार, 16 मई 2014 (20:57 IST)

अरविन्द केजरीवाल : माया मिली न राम...

अरविन्द केजरीवाल : माया मिली न राम... -
'दुविधा में दोऊ गए, माया मिली न राम'। यह पंक्ति आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविन्द केजरीवाल पर पूरी तरह ‍फिट बैठ रही है। दरअसल, केजरीवाल ने अपनी 'बड़ी महत्वाकांक्षा' के लालच में दिल्ली के मुख्‍यमंत्री पद की कुर्सी को तिलांजलि दे दी थी। तब उन्होंने उस समय सोचा भी नहीं होगा कि उनका यह फैसला उनके लिए ही उलटा पड़ जाएगा।
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जिस समय केजरीवाल ने दिल्ली की कुर्सी छोड़ी उस समय लगभग पूरे देश में खासकर दिल्ली और उससे सटे प्रदेशों में आम आदमी पार्टी की लहर जैसी चल रही थी। ऐसे में केजरीवाल का महत्वाकांक्षी मन लालच में आ गया और उन्होंने लोकसभा चुनाव में उतरने का फैसला किया।

हालांकि शुरुआती दौर में पार्टी के नेताओं ने दबी जुबान में इसका विरोध किया था, लेकिन बाद में केजरीवाल के इस फैसले के खिलाफ ज्यादा मुखर हो गए। शाजिया इल्मी से लेकर कुमार विश्वास और योगेन्द्र यादव तक दिल्ली छोड़ने के फैसले को गलत बताया।

आज स्थिति यह है कि केजरीवाल के हाथ से दिल्ली तो फिसल ही गई वे सांसद भी नहीं बन पाए। जिस दिल्ली ने उन्हें और उनकी पार्टी को सिरमौर बनाया था, उसी दिल्ली में उन्हें एक सीट तक नसीब नहीं हुई। वे चाहते तो दिल्ली का मु्‍ख्यमंत्री रहते हुए जनहित में फैसले ले सकते थे और यदि मोदी आते भी तो उन पर दबाव तो बना ही सकते थे और अपना जनाधार और बढ़ा सकते थे, लेकिन 'पूरी के लिए आधी' भी गंवा बैठे।

इतना ही नहीं तानाशाही पूर्ण फैसलों के कारण पार्टी में उनका कद भी घटा है। कुमार विश्वास तो खुलकर उनका विरोध कर चुके हैं। दिल्ली से मुख्‍यमंत्री पद छोड़ने के फैसले से लेकर अमेठी में चुनाव प्रचार के मामले में वे केजरीवाल की खिंचाई कर चुके हैं। हालांकि उनके लिए यह संतोष की बात हो सकती है कि दिल्ली में उनके ज्यादातर दूसरे नंबर पर रहे हैं और पंजाब में चार सीटों पर जीत हासिल की है। ... लेकिन व्यक्तिगत तौर पर मानें तो केजरीवाल को नुकसान ही हुआ, जिसका असर कुछ समय बाद देखने को मिल सकता है।