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Written By ND
Last Modified: नई दिल्ली (भाषा) , रविवार, 14 दिसंबर 2008 (09:18 IST)

सिनेमा को नई दिशा दी राजकपूर ने

14 दिसंबर जन्मदिन पर विशेष

सिनेमा को नई दिशा दी राजकपूर ने -
फिल्मों में स्वयं पर हँसकर सामाजिक बुराइयों पर व्यंग्य करने और समय से पहले नए दौर की झलक दिखाने वाला एक जोकर न सिर्फ बॉलीवुड में एक महान शोमैन बनकर उभरा, बल्कि उसने भारतीय सिनेमा को एक नई दिशा भी दी।

ऐसा कहते हैं कि पृथ्वीराज कपूर का मानना था कि राज कुछ खास नहीं कर पाएगा, लेकिन बाम्बे टॉकिज से चौथे सहायक के रूप में अपने फिल्मी सफर की शुरुआत करने वाले राजकपूर एक महान शौमैन बने।

अभिनेत्री और समाज सेविका नफीसा अली कहती हैं कि राजकपूर की सोच समय से बहुत आगे थी। वे वास्तविकता को बेहद खूबसूरती से पेश करते थे। सौंदर्य के प्रति उनकी परिभाषा में समर्पण दिखाई देता है।

राजकपूर का जन्म 14 दिसंबर 1924 को वर्तमान पाकिस्तान में स्थित पेशावर में हुआ था। राजकपूर ने पहली बार 1935 में 11 साल की उम्र में कैमरे का सामना फिल्म इंकलाब के लिए किया था।

राजकपूर की बतौर नायक पहली फिल्म नीलकमल थी। केदार शर्मा की इस फिल्म में उनकी नायिका मधुबाला थीं।

कम उम्र में निर्देशक बने राजकपूर ने 1948 में आरके फिल्म्स की स्थापना की और पहली फिल्म आग का निर्देशन किया। आरके फिल्म्स के बैनर तले राजकपूर ने मेरा नाम जोकर, आवारा, श्री 420 जैसी कई बेहतरीन फिल्मों का निर्माण किया।

राजकपूर एक बेहतरीन निर्देशक तो थे ही साथ ही वे संगीत की भी बेहतर समझ रखने थे। शायद इसलिए उनकी फिल्मों का संगीत अलग ही समझ में आता है। उन्होंने नर्गिस, मुकेश, संगीतकार शंकर-जयकिशन, गीतकार हसरत जयपुरी और शैलेंद्र को लेकर एक टीम बनाई जिसने आरके फिल्म्स को बुलंदियों पर पहुँचा दिया।

उनकी फिल्में केवल देश में ही नहीं बल्कि रूस, चीन और अफ्रीका में भी काफी लोकप्रिय रहीं। उनकी फिल्म आवारा का शीर्षक गीत आवारा हूँ रूस में खासा लोकप्रिय हुआ था। वे पहले ऐसे भारतीय अभिनेता, निर्देशक थे जो विदेशों में भी बेहद लोकप्रिय रहे हैं।

राजकपूर फिल्म में संपूर्णता को लेकर खासे सजग रहते थे और उन्होंने अपनी फिल्म सत्यम-शिवम-सुंदरम में बाढ़ का दृश्य फिल्माने के लिए अपने खर्च से नदी में बाँध बनवाया। हालाँकि फिल्मांकन के वक्त उसे तोड़ा गया और दृश्य पसंद नहीं आने पर पूरी कवायद दोहराना पड़ी।

भारत सरकार ने फिल्मों के लिए उनके योगदान के लिए 1987 में राजकपूर को दादा साहेब फालके पुरस्कार से सम्मानित किया।

जीवन के विविध आयामों को रुपहले परदे पर उकेरने वाले इस चितेरे का दो जून 1988 में नई दिल्ली में निधन हो गया। हालाँकि उनकी फिल्में आज भी अपने दर्शकों से यही कहती हैं-जीना यहाँ मरना यहाँ इसके सिवा जाना कहाँ।