(विश्व शाकाहार दिवस (World Veg Day) विशेष)
मांसाहारियों की भूख मिटाने के लिए जुगाली करने वाले जिन पशुओं को पाला जाता है, वे सब वास्तव में घास-पात खाने वाले शाकाहारी पशु हैं। वे अपने शरीर में अधिकांशतः उन्हीं शाकाहारी चीज़ों को मांस में बदलते हैं, जिन्हें मूलतः हम भी खाते हैं। यानी हम और अधिक ऊर्जा, श्रम, संसाधन और समय लगा कर मांस के रूप में मिल-मिलाकर वही चीज़ें खा रहे होते हैं, जिन्हें इस सारे झमेले के बिना, शाकाहार के रूप में, सीधे-सीधे भी खा सकते थे। यह ऊर्जा और संसाधनों की बर्बादी नहीं तो और क्या है?
मांस देने वाले पशुओं को कम से कम समय में अधिक से अधिक बड़ा और मोटा-तगड़ा करने के लिए तरह-तरह के हॉर्मोन और एन्टीबायॉटिक दवाएं भी दी जाती हैं। उनके मांस के साथ इन दवाओं का कुछ न कुछ अंश मांस खाने वाले के शरीर में भी पहुंचता है और कई बार वह भी किसी बीमारी या शारीरिक विकृति का कारण बनता है।
मांस में हॉर्मोन और दवाएं: जर्मन पशुपालक अपने सूअरों को प्रतिवर्ष औसतन 6 बार तथा गायों-बछड़ों व अन्य दुधारु पशुओं को दो बार एन्टीबायॉटिक दवाएं देते हैं। हर मुर्गे-मुर्गी को भी, काटने का दिन आने तक, औसतन दो बार यही दवाएं दी जाती हैं। जर्मन पर्यावरण और प्रकृतिरक्षा संघ का मानना है कि जर्मनी के पशुपालक, देश के अस्पतालों की अपेक्षा, 40 गुना अधिक एन्टीबायॉटिक दवाएं खपाते हैं। इन दवाओं का एक बड़ा अंश घूमफिर कर मांसाहारियों के पेट में ही पहुंचता होगा! यही स्थिति अन्य पश्चिमी देशों में भी है।
हो सकता है कि भारत की गायों-भैंसों को ऐसी दवाएं न दी जाती हों। पर, चारे के नाम पर जो गायें और भेड़ बकरियां कूड़ा-करकट खाती दिखती हैं, क्या उस कूड़े के हानिकारक पदार्थ मांस के रूप में मांस-भक्षियों के पेट में नहीं पहुंचते होंगे? वे कैंसर जैसी बीमारियों का कारण क्या नहीं बनते होंगे? कूड़ा-करकट खाने वाले पशुओं को स्वयं भी तो कैंसर जैसी ऐसी बीमारियां हो सकती हैं, जिनका बाहर से देखने पर पता नहीं चलता। अफ्रीकी देशों में अत्यंत प्रणघातक इबोला ओर हांटा वायरस वाले रोग तथा अन्य देशों में आतंक फैला चुकी बर्ड फ्लू और श्वाइन फ्लू जैसी महामारियां पशुओं को होने वाली या उनके शरीर में छिपी बीमारियों के ऐसे ही भयावह उदाहरण हैं।
कोविड के कोरोनावायरस और इस समय केरल में आतंक फैलाने वाले उससे भी अधिक प्राणघातक निपाह वायरस, पशुओं-पक्षियों के शरीर में ही पलते हैं। विज्ञान पत्रिका साइंस में 2018 में प्रकाशित एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया था कि पक्षियों और स्तनपायी जानवरों के शरीरों में 17 लाख तक ऐसे विभिन्न वायरस हो सकते हैं, जिन में से साढ़े 5 से साढ़े 8 लाख हम मनुष्यों को बीमार कर सकते हैं।
जलवायु और पर्यावरण को क्षतिः मांसाहार की मांग बढ़ने से न केवल बीमारियां बढ़ती हैं, जलवायु और पर्यावरण को पहले से ही पहुंच रही क्षति में भी भारी बढ़ोतरी होती है। विशेषकर गोमांस-भक्षियों को सोचना चाहिए कि गायें-भैंसें केवल घास-फूस खाकर ही नहीं जीतीं। उन्हें चारे के रूप में गेहूं, मकई, जौ इत्यादि उन अनाजों के दाने भी खिलाने पड़ते हैं, जो हमारे दैनिक शाकाहारी भोजन का भी हिस्सा हैं।
पर्यावरणरक्षक संस्था वर्ल्ड वाइल्डलाइफ़ फ़न्ड (WWF) ने, उदाहरण के लिए, यूरोपीय गायों के बारे में हिसाब लगाया है कि उनके शरीर में एक किलो मांस बनने में कई-कई किलो चारा और 15,455 लीटर पानी लग जाता है। वर्चुअल वॉटर (परोक्ष पानी) या वॉटर फुटप्रिन्ट (जल-पदचिन्ह) कहलाने वाला यह पानी चारे को उगाने, गायों को पिलाने, उनकी और गौशाला की साफ़-सफ़ाई करने जैसे उन अनेक कामों के रूप में ख़र्च होता है, जो मांस में दिखाई नहीं पड़ता। वधशाला में कटने तक हर गाय औसतन 1,300 किलो अनाज और 7,200 किलो घास-भूसा खा चुकी होती है। कटने तक हर गाय ने औसतन 24 घनमीटर पानी पीया होता है और 7 घनमीटर पानी गौशाला में उसे बांधने की जगह की साफ़-सफडाई पर ख़र्च हो चुका होता है
भूगर्भीय पेयजल प्रदूषित होता हैः गायों पर ख़र्च हुए पानी का अधिकांश भाग ग़ंदा पानी बन कर ज़मीन में रिसता और भूगर्भीय पेयजल को प्रदूषित करता है। गायों को दी गई दवाओं का एक बड़ा हिस्सा भी उनके मल-मूत्र के साथ भूगर्भीय पानी में मिश्रित होता है। पश्चिमी देशों में ही नहीं, भारत में भी में भूगर्भीय पानी ही पेयजल की आपूर्ति का मुख्य स्रोत है। जो कुछ गायों के बारे में सच है, भारत के संदर्भ में वह भैंसों के बारे में भी सच होना चाहिए। पश्चिमी देशों में भैंसें नहीं होतीं।
गायों को इतना अधिक चारा चाहिए कि यूरोप में उस चारे का एक बड़ा हिस्सा अफ्रीका ओर लैटिन अमेरिका के देशों से आयात किया जाता है। इन देशों में और स्वयं यूरोप में भी, चारे को उगाने के लिए वनों की कटाई होती है। इससे न केवल कार्बन डाई-ऑक्साइड को बांधने वाले पेड़ घट रहे हैं, वनों की ह्युमस मिट्टी में बंधा कार्बन डाई-ऑक्साइड भी हवा में मुक्त हो कर वैश्विक तापमान बढ़ा रहा है। यह सारी बातें यूरोप-अमेरिका जितनी न सही, तब भी संसार का सबसे बड़ा पशुपालक देश होने के नाते भारत में भी हो रही होंगी!
गायें मीथेन गैस उत्सर्जित करती हैः वर्ल्ड वाइल्डलाइफ़ फ़न्ड का यह भी कहना है कि हर गाय हर दिन औसतन 200 लीटर मीथेन गैस (CH4) उत्सर्जित करती है। मीथेन की तापमान बढ़ाने की क्षमता कार्बन डाई-ऑक्साइड की अपेक्षा 25 गुना ज्यादा होती है। दूसरे शब्दों में, हर गाय हर दिन अपनी मीथेन गैस द्वारा जलवायु को जो नुकसान पहुंचा रही है, वह किसी छोटी कार द्वारा पूरे साल में 18,000 किलोमीटर चलने से निकले धुएं से हुए तापमानवर्धक प्रदूषण के बराबर है।
जर्मनी के संघीय पर्यावरणरक्षा कार्यालय ने 2016 की अपनी एक रिपोर्ट में कहा कि मांस के लिए पशुपालन ही जर्मनी में मीथेन गैस और डाईनाइट्रस-मोनो ऑक्साइड (N2O) के उत्सर्जन का मुख्य स्रोत है। रिपोर्ट के अनुसार, एक किलो गोमांस बनने की प्रक्रिया में 7 से 28 किलो तक तापमानवर्धक गैसें उत्सर्जित होती हैं, जबकि एक किलो फल या साग-सब्ज़ियां उगाने से एक किलो से भी कम ऐसी अवांछित गैसें बनती हैं।
इसी प्रकार की एक दूसरी तुलना यह है कि पृथ्वी पर हम अपने भोजन के द्वारा जो तापमानवर्धक गैसें पैदा करते हैं, उनकी 70 प्रतिशत मात्रा के लिए मांसाहारी और केवल 30 प्रतिशत के लिए शाकाहारी खाद्यपदार्थ ज़िम्मेदार हैं। अकेले इसी अनुपात को उलट देने से न केवल अनेक बीमारियों से मुक्ति मिल सकती है, तापमान बढ़ाने वाली गैसों के उत्सर्जन में प्रतिवर्ष अरबों टन की कमी भी लाई जा सकती है।
सभी शाकाहारी बन जायें, तब क्या होगा? ब्रिटेन में ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के डॉ. मार्को स्प्रिंगमैन वैश्विक आहार रूझानों के सबसे जाने-माने शोधकों में से एक हैं। उनका कहना है कि लोगों की आय बढ़ने, शहरीकरण और वैश्वीकरण के कारण विकासशील देशों के लोगों का खान-पान मांसाहारी पश्चिमी देशों जैसा ही बनता जायेगा। इससे विश्व के आहारतंत्र को भविष्य में भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। किंतु, दुनिया के सभी लोग यदि मांसाहार त्याग दें, तो परिणाम चमत्कारिक होंगे!
मार्को स्प्रिंगमैन की टीम ने पाया कि तब 2050 आने तक हर वर्ष 73 लाख मौतें कम हो जायेंगी। वैश्विक मृत्युदर 7 प्रतिशत घट जायेगी। ऐसा इसलिए, क्योंकि जो लोग मांस के बदले फल-फूल और सब्ज़ियां खा कर जीते हैं, उन्हें मोटापे की शिकायत और हृदयरोग काफ़ी कम होते हैं। खाद्य पदार्थों के उत्पादन के कारण इस समय जितनी तापमानवर्धक गैसें वायुमंडल में पहुच रही हैं, सब के शाकहारी बन जाने से उनकी मात्रा भी दो-तिहाई कम हो जायेगी। 70 प्रतिशत पानी की भी बचत होगी। तब पृथ्वी पर रहना-जीना आज की अपेक्षा काफ़ी सुखद बन जाएगा।
मांसाहार के अंत से पैसे की भी भारी बचतः मार्को स्प्रिंगमैन की टीम ने हिसाब लगाया कि मांसाहार का अंत हो जाने से स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले ख़र्च और जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले नुकसानों में 2050 तक इतनी कमी आ जायेगी कि पूरे विश्व में हर साल कुल मिला कर 150 अरब डॉलर की बचत हो सकती है। अकेले स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले ख़र्च में ही जो कमी आयेगी, वह 2050 के लिए अनुमानित दुनिया के सभी देशों के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को जोड़ देने से प्राप्त धनराशि के तीन प्रतिशत के बराबर होगी।
इन वैज्ञानिकों ने यह भी पाया कि अगर दुनिया मांसाहार छोड़ कर 2050 तक शाकाहारी बन सके, तो 20 अरब मुर्गे-मुर्गियों, डेढ़ अरब गायों, एक-एक अरब भेड़ों और सुअरों की न तो जान लेनी पड़ेगी और न इन सब को रखने-पालने की ज़रूरत रह जायेगी। इस समय इन सभी जानवरों को रखने-पालने से 3 करोड़ 30 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के बराबर ज़़मीन फंसी हुई है। अकेले यह ज़मीन ही, जिस पर फिर से पेड़ लगाकर तापमानवर्धक गैसों की मात्रा को और अधिक घटाया जा कता है, पूरे अफ्रीका महाद्वीप के क्षेत्रफल के बराबर है-- चरागाहों की ज़मीन इसमें शामिल नहीं है।
जलवायु परिवर्तन को रोकना है, तो मांसाहार का संहार होः संयुक्त राष्ट्र कृषि संगठन FAO का भी यही मानना है कि यदि शाकारहार के बदले मांसाहार का वर्चस्व बना रहा, तो विश्व की बढ़ रही जनसंख्या की आहार समस्या 2050 तक और भी विकराल हो जायेगी। जिन के पास पैसा होगा, वे मांस खा-खा कर ख़ूब मोटे और बीमार होंगे, और जिनके पास पैसा नहीं होगा वे कुपोषण के शिकार होंगे।
हमारा खान-पान ही जलवायु बदलने वाले उस भावी विनाशकारी उत्सर्जन के आधे हिस्से के लिए ज़िम्मेदार होगा, जो वैश्विक तापमान को दो डिग्री से अधिक बढ़ने से रोकने की लक्षमणरेखा है। यानी, पृथ्वी पर जीवन और जलवायु को बचाना है, तो मांसाहार का संहार करना होगा। मांसाहार का विकल्प शाकाहार है, पर जलवायु का कोई विकल्प नहीं है। जलवायु साथ नहीं देगी, तो मांस हेतु पशुपालन के लिए चारा-पानी जुटाना भी दूभर हो जायेगा।
हर साल 30 करोड़ टन मांस की डकारः इस समय संसार भर के मांसाहारी हर साल 30 करोड़ टन मांस डकार जाते हैं। आशंका यही है कि यह अकल्पनीय मात्रा घटने की जगह बढ़ते हुए, 2050 तक, 50 करोड़ टन हो जायेगी। इसके लिए जिन पशुओं को पहले पाला और फिर काटा जायेगा, उनके चारे के लिए अकेले सोयाबीन की विश्वव्यापी उपज को दोगुना कर देना पड़ेगा। अकेले सोयाबीन की खेती के लिए और अधिक भूमि, और अधिक पानी तथा और अधिक खादों की ज़रूरत पड़ेगी। यह साब खा-पीकर मांस देने वाले पशु और अधिक तापमानवर्धक गैसें वायुमंडल में फैलायेंगे।
जब भीषण गर्मी से लोग कराहेंगे, आंधी-पानी के साथ बाढ़ आयेगी या भीषण सूखा पड़ेगा, तब कोई मांसाहारी याद नहीं करेगा कि इसमें उसके अपने पेट में गये चिकन, मटन या गोमांस का कितना अनावश्यक योगदान है! वह बड़े गर्व के साथ और संभवतः मुंहफट हो कर बॉलीवुड के दिवंगत अभिनेता ऋषि कपूर की तरह यही कहेगा कि मैं क्या खाता हूं, यह मेरा निजी मामला है। दूसरों को इससे कोई मतलब नहीं होना चाहिये। दूसरों को इससे बेशक कोई मतलब नहीं होता, यदि उन पर भी बढ़े हुए तापमान और उन्मत्त मौसम की असह्य मार नहीं पड़ती।
कार वाले भी यही सोचते हैं कि कार चलाना उनका स्वतंत्र निर्णय व निजी अधिकार है। पर उनकी कार से निकले धुंए की मार बिना कार वाले उन सब लोगों के फेफड़ों को भी बीमार करती है, जिन्हें स्वच्छ हवा में जीने का जन्मसिद्ध अधिकार है।