एक सौ आठ दिन, नौ राज्यों का भ्रमण और करीब 3 हजार किमी से ज्यादा की पैदल यात्रा। इतना समय और इतनी दूरी तय कर के राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा शनिवार को दिल्ली पहुंची। इन नौ राज्यों की यात्रा के दौरान राहुल गांधी की कई लुभावनी और मनमोहक तस्वीरें सामने आईं, जिसमें वे किसी के साथ सेल्फी ले रहे हैं तो कहीं बच्चों को दुलार रहे हैं। पूरी यात्रा के दौरान राहुल का एक मानवीय पक्ष उभरकर सामने आया। इसमें कोई संशय नहीं कि तमाम राजनीतिक धूर्तता के बीच उनके पास एक संवदेनात्मक एप्रोच है। कांग्रेस समर्थक तो उनमें एक नया नायक देखने लगे हैं।
(हालांकि भारतीय जनता जितनी जल्दी में अपना नायक गढ़ती है, उतनी ही तेजी से वो उसे ध्वस्त कर विदा भी कर देती है।)
बहरहाल, मैं मानता हूं कि पैदल यात्रा आदमी को योगी बना देती है, कई साधू- संत पैदल चलने को अपनी साधना का हिस्सा मानते हैं। यह शरीर और मन दोनों को बदल सकता है, पैदल चलना एक योग है। शायद महात्मा गांधी इस रहस्य को जानते होंगे, तभी अपने जीवन में ज्यादातर दूरी उन्होंने पैदल ही नापी। उम्मीद की जाना चाहिए कि राहुल गांधी के साथ भी ऐसे ही कुछ बदलाव देखने को मिले।
पैदल चलते हुए पसीने में तरबतर राहुल ने कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष खड़गे को संबोधित करते हुए यह भी कहा है कि हमारे नेताओं को महीने में कम से कम एक दिन इन सड़कों पर चलना चाहिए। धक्के खाने चाहिए, गिरना चाहिए, घुटने छिलने चाहिए।
एक आदमी को यह समझ में आ जाए कि धक्के खाकर, गिरकर और घुटने छिले बगैर कुछ नहीं मिलता, तो यह समझना चाहिए कि पैदलगीरी ने राहुल के व्यक्तित्व को कहीं न कहीं झकझोरा है।
यात्रा के दिल्ली पहुंचते ही एक हैरान करने वाली खबर आई है कि राहुल गांधी भाजपा के पूर्वज राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी के समाधि स्थल भी जाएंगे। यह सत्य है कि अटल बिहारी वाजपेयी देश के एक उदार नेता थे, लेकिन वे महात्मा गांधी की तरह उतनी बड़ी सर्वमान्य शख्सियत भी नहीं थे कि कांग्रेस के एक अग्रज नेता के रूप में राहुल गांधी भाजपा के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की समाधि पर माथा टेकने जाए। लेकिन फिर भी राहुल का यह फैसला कुछ चौंका देता है। क्या यह माना जाना चाहिए राहुल गांधी के राजनीतिक मायने बदल रहे हैं, वे कुछ कुछ समझने लगे हैं कि कैसे राजनीति करना है। क्या यह पैदलगीरी का चिंतन है।
दूसरी तरफ इस यात्रा को बहुत मोटे-तौर पर देखें तो यह अब तक कुछ ही हद तक सफल नजर आती है, वो भी इस लिहाज से कि बिल्कुल सुप्त, उत्साहहीन और नैराश्य में डूबी कांग्रेस के शरीर में एक झुरझुरी की अनुभूति हुई है। उसके माथे पर पसीने की बूंदे चमक रही हैं। इस यात्रा को लोगों को प्यार मिला, राहुल को स्नेह मिला, लेकिन राजनीतिक रूप से मिलने वाले परिणाम अभी सामने नहीं आए हैं, ये परिणाम भविष्य में ही नजर आएंगे। जो भीड़ उनके साथ दिख रही है, वो उनके लिए राजनीतिक रूप से कितनी फायदेमंद होगी और वोट में कितना कन्वर्ट होगी, यह वक्त ही बताएगा।
सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि इस यात्रा के बाद राहुल गांधी क्या करेंगे, क्या वे अपने वातानुकूलित घर में आराम करेंगे? या अब वे अपना असल काम शुरू करेंगे, जो वास्तव में यात्रा के बाद शुरू होना चाहिए। मसलन, संगठन और पार्टी के स्तर पर उन्हें सक्रिय होना। 2023 के चुनावों की रणनीति बनाना। टूटी हुई कांग्रेस को एकजुट करना। राज्यों की भीतरघात और आपसी अदावत को खोजकर उसे दूर करना। क्या यह सब राहुल गांधी ने सोच रखा है, या वे सिर्फ यात्रा के बहाने अपने खोए हुए अस्तित्व को टटोलने की कोशिश कर रहे थे। क्या इस यात्रा का उनके पास कोई क्लियर कट दृष्टिकोण और उदेश्य है कि वे भारत जोड़ो यात्रा से अपने राजनीतिक भविष्य और कांग्रेस के अस्तित्व को कहां और कैसे देखना चाहते हैं?
जब भी मैं राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बारे में सोचता हूं, मुझे टॉम हैंक्स की 90 की दशक की फिल्म फॉरेस्ट गम्प याद आती है। फॉरेस्ट गम्प अमेरिका के अल्बामा में रहता है। उसकी रीढ़ की हड्डी टेड़ी है, जिससे वो ठीक से चल नहीं पाता है, उसका आईक्यू लेवल भी कम है। कम बुद्धि और कमजोर होने की वजह से हर कोई उसे मारता-और परेशान करता है। कॉलेज में मार खाने से बचने के लिए उसकी प्रेमिका जेनी उसे भागने की सलाह देती है, और फॉरेस्ट भागने लगता है। वो इतना दौड़ता है कि दौड़ना उसकी ताकत हो जाती है, दौड़ते हुए वो फुटबॉल भी खेलता है, दौड़ते हुए आर्मी में भी शामिल होता है। अंत में वो एक सफल बिजनेसमैन भी है। वो अपने एक जीवन में बहुत कुछ हो जाता है, फॉरेस्ट गम्प के जीवन में कई चीजें घटती हैं, उसे किसी एक चीज या घटना के लिए याद नहीं किया जा सकता।
हो सकता है इस यात्रा से राहुल के भीतर कोई बड़ा बदलाव हो जाए, ठीक फॉरेस्ट गम्प की तरह, लेकिन क्या वे अपनी राजनीति बदल पाएंगे। क्योंकि राहुल गांधी के पास न फुटबॉल खेलने का और न ही आर्मी में जाने का कोई विकल्प है। उनके सामने सिर्फ एक ही रास्ता है राजनीति... या तो उनके जीवन में राजनीति होगी, या फिर नहीं होगी।