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Last Updated :नई दिल्ली , बुधवार, 4 जनवरी 2017 (18:48 IST)

अजब 'साइकलों' की गजब कहानी

अजब 'साइकलों' की गजब कहानी | similarity between samajwadi party and telgudesham
नई दिल्ली। समाजवादी के नाम पर मुलायमसिंह यादव की परिवारवादी पार्टी में जो कुछ उठापटक चल रही है वे 22 वर्ष पहले प्रसिद्ध तेलगू बिड्‍डा, अभिनेता और तेलुगुदेशम पार्टी के संस्थापक एनटी रामाराव के परिवार की उथल-पुथल और उससे हुए राजनीतिक बदलाव की याद दिलाती है। अगर कहा जाए कि दोनों की स्थिति में बहुत समानता है और सपा प्रमुख मुलायमसिंह यादव भी उसी राह पर आगे बढ़ते दिख रहे हैं, जिस पर कभी तेलुगु सिनेमा के सुपरस्टार एनटी रामाराव की राह पर जाते दिख रहे थे?
आज जो यादव परिवार में हो रहा है, वह सभी एक समय पर आंध्रप्रदेश के पूर्व मुख्‍यमंत्री रामाराव के परिवार के साथ भी होता हुआ देखा गया था। जिस तरह से उत्तरप्रदेश की सत्ताधारी समाजवादी पार्टी को नियंत्रित करने वाले मुलायमसिंह यादव के परिवार में उठापटक चल रही है, उसने दो दशक पहले एनटी रामाराव परिवार में चली उथल-पुथल की यादें ताजा कर दी हैं। दोनों परिवारों के आंतरिक झगड़ों में कई समानताएं हैं। रामाराव से सत्ता छीनने वाले उनके दूसरे दामाद चंद्रबाबू नायडू थे तो सपा के मामले में पिता को गद्दी से हटाने का काम अखिलेश यादव ने किया है। 
 
सपा में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने पिता और पार्टी अध्यक्ष मुलायमसिंह यादव के खिलाफ झंडा उठा लिया है, वहीं रामाराव परिवार में यह काम उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू ने किया था। यह भी संयोग देखिए कि एनटी रामाराव जिस तेलुगुदेशम पार्टी के सर्वेसर्वा थे, उसका चुनाव चिन्ह भी साइकल ही था और समाजवादी पार्टी का चुनाव चिन्ह भी साइकल ही है। 
 
अब यह जानने की कोशिश करते हैं कि तब एनटी रामाराव परिवार में क्या हुआ था? और क्यों समाजवादी पार्टी के झगड़े से किसी को भी उनकी याद आ सकती है। रामाराव का फिल्मी करियर लगभग समाप्त हो गया था और वे पूरी तरह से राजनीति में आने के बाद 1983 में पहली बार आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। वे तीन बार मुख्यमंत्री रहे और वर्ष 1985 में उनकी पहली पत्नी का कैंसर से देहावसान होने के बाद से वे भगवा कपड़े पहनने लगे थे। वैसे यह उनकी फिल्मी छवि के अनुरूप था, क्योंकि उन्होंने ज्यातादर पौराणिक, धार्मिक फिल्मों में अभिनय किया था। उनके सात बेटों और तीन बेटियों में से एक बेटा और दो दामाद तेलुगुदेशम पार्टी की राजनीति में सक्रिय थे।
 
रामाराव परिवार में उथल-पुथल की शुरुआत लक्ष्मी पार्वती के आने से हुई। दो बच्चों की मां और अपने पति को छोड़ चुकी लक्ष्मी पार्वती पढ़ाया करती थीं। तब उन्होंने तय किया कि वे रामाराव की जीवनी लिखेंगी। इसलिए रामाराव की जीवनी लिखने के सिलसिले में लक्ष्मी पार्वती उनसे मिलीं और फिर दोनों में प्रेम हुआ। 1993 में दोनों ने शादी कर ली क्योंकि पत्नी के निधन के बाद रामाराव खुद को अकेला महसूस करते थे। अधिक उम्र के रामाराव का 38 वर्षीय लक्ष्मी पार्वती से प्यार होना स्वाभाविक ही था। एनटी रामाराव ने लक्ष्मी पार्वती से शादी तो कर ली तो तब रामाराव की उम्र 70 साल से अधिक हो गई थी। स्वाभाविक है कि इस शादी से रामाराव के बेटे, दामाद और बेटियां खुश नहीं थे और वे लक्ष्मी पार्वती को भी पसंद नहीं करते थे। 
 
लेकिन तब रामाराव जीवित थे और वे पूरी तरह से लक्ष्मी पार्वती के साथ खड़े थे और उन्हें भी लगता था कि एनटीआर (नंदमूरि तारक रामाराव) की राजनीतिक विरासत की उत्ताधिकारी बनेंगी, लेकिन उनके बेटों और दामादों ने उनके खिलाफ बगावत कर दी। इस बगावत की अगुवाई चंद्रबाबू नायडू कर रहे थे जो उस वक्त रामाराव सरकार में मंत्री थे और रामाराव की दूसरी बेटी के पति थे।
 
1994 के विधानसभा चुनाव में चुनाव प्रचार के दौरान लक्ष्मी पार्वती हमेशा रामाराव के साथ रहा करती थीं। जब चुनावों में 294 में से 214 सीटें तेलुगुदेशम पार्टी को मिलीं तो इस जीत का श्रेय भी लक्ष्मी पार्वती की भूमिका को दिया जाने लगा। ऐसे समय में उन्हें लगने लगा कि अब राजनीति में उनकी भी कोई भूमिका हो सकती है और वे राज्य की कमान अपने हाथ में लेकर आंध्रप्रदेश की राजनीति में मुख्यमंत्री बन सकती हैं। इसी दौरान एनटीआर को लकवा मार गया था और उन्हें दिनोंदिन लक्ष्मी पार्वती पर आश्रित रहना पड़ा। रामाराव की लक्ष्मी पार्वती पर निर्भरता ने उन्हें अपना राजनीतिक जमीन तैयार करने को प्रेरित किया। 
 
इसी दौरान जब रामाराव ने अपनी पारंपरिक सीट तेकाली खाली की तो सीट की दावेदारी को लेकर भयंकर विवाद हुआ। इस सीट पर जहां लक्ष्म‍ी पार्वती चुनाव लड़ना चाहती थीं, वहीं रामाराव के बेटे
हरिकृष्ण ने भी इस सीट पर दावा ठोंक दिया। लेकिन हरिकृष्ण और परिवार के अन्य सदस्यों को लगा को लगा कि अगर लक्ष्मी पार्वती उनके पिता की पारंपरिक सीट से चुनाव लड़ीं और जीत गईं तो वे ही रामाराव की स्वाभाविक उत्तराधिकारी मान ली जाएंगी।
 
लेकिन एनटीआर खुद हरिकृष्ण की बजाय लक्ष्मी पार्वती को ही चुनाव लड़ाना चाहते थे। उन्होंने तब दिए अपने एक बयान में कहा था कि हरिकृष्ण तो पार्टी के सदस्य भी नहीं हैं। अंत में इस टकराव को दूर करते हुए रामाराव ने किसी तीसरे को उस सीट पर चुनाव लड़ाया। लक्ष्मी पार्वती जब तक राजनीति से दूर और रामाराव परिवार तक सीमित रहीं तब तक पार्टी के विधायकों और सांसदों में उनका सम्मान बना रहा लेकिन जब वे पार्टी की राजनीति और सरकार के कामकाज में दखल देने लगीं तो उन्हें ‘अम्मा’ कहने वाले विधायक और सांसद उनके खिलाफ खड़े हो गए।
 
लेकिन इस दौर में भी रामाराव पूरी तरह से लक्ष्मी पार्वती के साथ खड़े रहे तो उनके बेटों और दामादों ने उनके खिलाफ बगावत कर दी। इस बगावत की अगुवाई चंद्रबाबू नायडू कर रहे थे जो उस वक्त रामाराव सरकार में मंत्री थे। वे एक-एक कर टीडीपी विधायकों को तोड़ रहे थे तो बातचीत में वे हमेशा एनटी रामाराव के दोनों बेटों हरिकृष्ण और बालकृष्ण को शामिल रखते थे। इससे विधायकों में यह विश्वास जगा कि परिवार अब रामाराव के खिलाफ हो गया है और परिवार में जो नेता है, अंततः उसी के हाथ में पार्टी भी रहेगी।
 
समाजवादी पार्टी के झगड़े में कुछ लोग अमरसिंह को 'लक्ष्मी पार्वती' या 'बाहरी आदमी' बता रहे हैं तो कुछ लोगों को मुलायमसिंह यादव की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता यादव, 'लक्ष्मी पार्वती' लगती हैं। इस तरह से पार्टी विधायक एक-एककर चंद्रबाबू नायडू के पाले में शामिल होते चले गए। जिस पार्टी के आजीवन अध्यक्ष रामाराव थे और जिसे अकेले अपने बूते पर उन्होंने खड़ा किया, न सिर्फ उसी पार्टी की सरकार के प्रमुख के तौर पर चंद्रबाबू नायडू ने उन्हें बेदखल किया बल्कि उससे उन्हें पार्टी से भी निकाल दिया। उस दौरान 214 में से बमुश्किल दो दर्जन विधायक ही रामाराव के साथ खड़े दिखाई देते थे। ठीक ऐसा ही हाल आज मुलायमसिंह यादव का है जिन्हें शिवपाल, अमरसिंह और कुछेक विधायकों का ही समर्थन हासिल है।
 
इसके बाद रामाराव ने अपने परिवार से सार्वजनिक रूप से संबंध तोड़ लिया था और वे चंद्रबाबू नायडू को ‘पीठ में छुरा घोंपने वाला धोखेबाज’ और औरंगजेब कहते थे। वे चंद्रबाबू नायडू को सबक सिखाने के लिए लोकसभा चुनावों की तैयारी कर रहे थे, लेकिन इससे पहले ही उनका निधन हो गया। वे कहते थे कि उन्होंने चंद्रबाबू नायडू को अपनी बेटी दी थी लेकिन वह तो उनकी कुर्सी, सरकार ले गया। लक्ष्मी पार्वती को एनटीआर के परिजनों ने न केवल पार्टी वरन घर से भी बाहर निकाल दिया।
 
सपा के ही एक विधायक का कहना है कि अखिलेश की सौतेली मां, साधना गुप्ता सत्ता हथियाने के लिए मुलायमसिंह यादव से अखिलेश के खिलाफ साजिश करा रही हैं। वे चाहती रही हैं कि पार्टी में उनके बेटे प्रतीक यादव और उनकी बहू अपर्णा यादव का भी प्रभाव हो और इसलिए वे सत्ता की चाभी अपने विश्वस्त और मुलायमसिंह यादव के छोटे भाई शिवपाल यादव के हाथों में ताकत देखना चाहती हैं। 
 
इस बार साधना गुप्ता और मुलायम सिंह के सौतेले बेटे प्रतीक (गुप्ता) यादव की पत्नी अपर्णा यादव भी राजनीति में उतर गई हैं और पार्टी ने उन्हें लखनऊ कैंट सीट से उम्मीदवार भी घोषित किया है। कहा तो यह भी जा रहा है कि साधना गुप्ता और उनकी बहू की बढ़ती राजनीतिक दिलचस्पी की वजह से मुलायम परिवार दो खेमे में बंट गया है। अखिलेश यादव के साथ जहां पार्टी के ज्यादातर विधायक, पदाधिकारी और मुलायम के दूसरे चचेरे भाई रामगोपाल यादव हैं और ये सभी लोग साधना गुप्ता के बढ़ते प्रभाव के खिलाफ हैं। लेकिन मुलायमसिंह यादव अभी भी अपनी दूसरी पत्नी साधना गुप्ता यादव के साथ खड़े दिख रहे हैं। 
 
यादव परिवार के जो लोग साधना गुप्ता का विरोध कर रहे हैं, वही लोग अमरसिंह का भी विरोध कर रहे हैं क्योंकि एक राय यह भी है कि मुलायमसिंह यादव और साधना गुप्ता की मुलाकात अमरसिंह ने ही कराई थी। उत्तरप्रदेश में कहा तो यह भी जा रहा है कि मुलायम की पहली पत्नी और अखिलेश की मां के निधन के बाद लखनऊ के सचिवालय में एक क्लर्क के तौर पर काम करने वाली साधना गुप्ता को मुलायम परिवार में शामिल कराने में अमरसिंह की अहम भूमिका थी। 
 
अखिलेश जिन वजहों से अमरसिंह से नाराज रहते हैं, उनमें एक वजह यह भी बताई जाती है और उनका मानना है कि बाप-बेटे के बीच फूट डालने का काम भी अमरसिंह का किया धरा है। दोनों मामलों में एक समानता और है। एनटीआर खुद को सत्ता से बेदखल करने वाले चंद्रबाबू नायडू को 'पीठ में छुरा घोंपने वाला औरंगजेब' कहते थे, मुलायमसिंह (या नेताजी) समर्थक अखिलेश यादव को भी इसी तरह के विशेषणों सुशोभित कर रहे हैं। विदित हो कि मुलायम‍सिंह को घर और बाहर 'नेताजी' के नाम से ही संबोधित किया जाता है।
 
जिस तरह से लक्ष्मी पार्वती का सार्वजनिक बचाव रामाराव करते थे, उसी तरह से अमरसिंह और साधना गुप्ता का बचाव मुलायमसिंह यादव कर रहे हैं। रामाराव भी लक्ष्मी पार्वती से शादी के बाद फिर से राजनीति में मजबूत होने का श्रेय लक्ष्मी पार्वती को देते थे, वहीं मुलायमसिंह यादव भी पार्टी को आगे बढ़ाने का और खुद को जेल जाने से बचाने का श्रेय सार्वजनिक तौर पर अमरसिंह को देते हैं। इसलिए उन्होंने अखिलेश यादव की मौजूदगी में यह बात साफ-साफ कर दी है कि चाहे जो हो जाए वे अमरसिंह, शिवपाल को नहीं छोड़ सकते।
 
दोनों मामलों में सबसे बड़ा फर्क यह है कि चंद्रबाबू नायडू ने एनटीआर को बेदखल करने का काम पार्टी के चुनाव जीतने के ठीक बाद शुरू कर दिया था। इसलिए वे तख्तापलट करके भी मुख्यमंत्री बने रहे,  वहीं उत्तरप्रदेश में अखिलेश यादव पहले से ही मुख्यमंत्री हैं और चुनाव थोड़े ही दिनों में होने अपना कार्यकाल पूरा करने वाले हैं।
 
लेकिन ज्यादातर लोग यह निष्कर्ष निकालते हैं कि आने वाले समय में अगर अखिलेश यादव ने अपने राजनीतिक पत्ते सावधानी से चले तो उनकी स्थिति चंद्रबाबू नायडू से बेहतर होगी और मुलायमसिंह यादव की हालत एनटी रामाराव जैसी हो सकती है। यह कहना गलत न होगा कि जो हालत पहली पार्टी, तेलुगुदेशम की साइकल का हुआ, वही हाल समाजवादी पार्टी की साइकल का हो सकता है। अखिलेश चाहें तो कोई दूसरा चुनाव चिन्ह ले सकते हैं और साइकिल के स्थान पर मोटरसाइकल भी ले सकते हैं लेकिन इस हालत में समाजवादी पार्टी की सरकार बनना बहुत मुश्किल हो सकता है और इसका सीधा लाभ भाजपा को मिलेगा।