शुक्रवार, 25 अप्रैल 2025
  • Webdunia Deals
  1. खबर-संसार
  2. समाचार
  3. राष्ट्रीय
  4. National News, Supreme Court, Indian woman judge
Written By

आजादी के 77 वर्ष बाद भी कोई महिला भारत की प्रधान न्यायधीश नहीं बन पाएगी

National News
- शोभना जैन

नई दिल्ली। आजादी के 77 वर्ष बाद यानी नवंबर 2024 तक भी कोई महिला भारत के उच्चतम न्यायालय में प्रधान न्यायधीश नहीं बन पाएगी। उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता तथा महिला, बाल कानूनी अधिकारों के प्रखर लेखक व जेंडर जस्टिस मुद्दे से सक्रिय रूप से जुड़े अरविंद जैन ने वीएनआई के साथ एक विशेष साक्षात्‍कार में बताया कि गणतंत्र के विगत 66 सालों में अभी तक सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश की कुर्सी तक कोई भी महिला नहीं पहुंच पाई या ऐसी परिस्थतियां बनी ही नहीं कि वे इस पद पर आसीन हो सकें। 
वर्तमान स्थिति के अनुसार, नवम्बर 2024 तक कोई महिला मुख्य न्यायधीश नहीं बन सकती। जैन बताते हैं यही नहीं, आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि इन 66 सालों में भारत के कानून मंत्री (डॉ. भीमराव अम्बेडकर से लेकर शिवानन्द गौड़ा तक), राष्ट्रीय विधि आयोग और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष के पद पर भी कोई महिला नहीं नियुक्त हुई, भारत के ‘अटॉर्नी जनरल’ या ‘सॉलिसिटर जनरल’ के पद पर भी यही स्थिति रही अलबत्ता कुछ समय पहले सुश्री इंदिरा जयसिंह 'अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल’ अवश्य बन सकीं। 
 
जैन ने बताया कि वकीलों की अपनी संस्थाओं में भी महिलाएं सर्वोच्च कुर्सी पर नहीं आ पाई हैं। बार कौंसिल ऑफ इंडिया के अभी तक सभी अध्यक्ष पुरुष अधिवक्ता ही रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ही नहीं, दिल्ली हाईकोर्ट बार एसोसिएशन, दिल्ली बार एसोसिएशन (तीस हजारी कोर्ट), नई दिल्ली बार एसोसिएशन (पटियाला हाउस), रोहिणी बार एसोसिएशन, शाहदरा बार एसोसिएशन, साकेत बार एसोसिएशन और द्वारका बार एसोसिएशन तक के अध्यक्ष और महामंत्री भी पुरुष ही चुने जाते रहे हैं। जैन के अनुसार, अपवाद के तौर पर एक-दो बार स्त्रियां, सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन की महामंत्री और नई दिल्ली बार एसोसिएशन (पटियाला हाउस) के अध्यक्ष पद का चुनाव जरूर जीती हैं, लेकिन सफर तो बहुत लंबा है। 
 
संविधान बनने के लगभग 40 साल बाद न्यायमूर्ति फातिमा बीबी को (6, अक्टूबर, 1989) सर्वोच्च न्यायालय की पहली महिला न्यायधीश बनाया गया था, जो 1992 में रिटायर हो गईं। इसके बाद न्यायमूर्ति सुजाता वी. मनोहर (1994), न्यायमूर्ति रूमा पॉल (2000), न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्रा (2010), न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई (2011) और न्यायमूर्ति श्रीमती आर. बानूमथि (2014) सर्वोच्च न्यायालय की न्यायधीश बनीं। कुल मिलाकर 66 सालों में 219 (41 रिटायर्ड मुख्य न्यायधीश, 150 रिटायर्ड न्यायधीश और 28 वर्तमान न्यायधीश) में से 6 (2.7%) महिला न्यायधीश रहीं। 
 
जैन ने बताया कि एक बार अवश्य सन् 2000 में महिला प्रधान न्यायाधीश बनने की स्थि‍ति बनी जरूर थी, लेकिन तब ऐसी स्थितियां बनीं कि तब भी वह अवसर आते-आते रह गया। वर्ष 2000 में जब सुप्रीम कोर्ट का स्वर्ण जयंती वर्ष मनाया जा रहा था और उसी साल 29 जनवरी को मुख्य न्यायधीश एएस आनंद द्वारा तीन नए न्यायमूर्तियों को शपथ दिलाई जानी थी, सब कुछ तो तय था, मगर शपथ दिलाने की तारीख 29 जनवरी की बजाय 28 जनवरी कर दी गई। वैसे कहा यह गया कि उच्चतम न्यायालय के स्वर्ण जयंती दिवस के चलते यह समारोह एक दिन पहले करने का फैसला किया गया। 
 
न्यायामूर्ति सर्वश्री दोरईस्वामी राजू और वाईके सभरवाल को 28 जनवरी, 2000 की सुबह-सुबह शपथ दिलाई गई और तीसरी न्यायमूर्ति सुश्री रूमा पॉल को दोपहर के बाद। जैन ने बताया कि कहा यह गया कि न्यायमूर्ति दोरईस्वामी राजू और न्यायमूर्ति वाईके सभरवाल को दिल्ली में रहने की वजह से समय रहते कार्यक्रम में बदलाव की सूचना मिल गई थी, परंतू न्यायमूर्ति रूमा पाल को समय से सूचना ही नहीं मिली और जब वो दोपहर कोलकाता से दिल्ली पहुंचीं, तब तक दोनों शपथ ले चुके थे और न्यायमूर्ति पॉल ने तीसरे क्रम में शपथ ली।
 
जैन के अनुसार, उसी दिन तय हो गया था कि अगर सब कुछ यूं ही चलता रहा तो न्यायमूर्ति दोरईस्वामी राजू एक जनवरी 2004 को रिटायर हो जाएंगे और मुख्य न्यायधीश आरसी लाहोटी के सेवानिवृत्‍त होने के बाद एक नवम्बर 2005 को न्यायमूर्ति वाईके सभरवाल भारत के नए मुख्य न्यायधीश बनेंगे और 13 जनवरी 2007 तक मुख्य न्यायधीश रहेंगे और न्यायमूर्ति रूमा पॉल 2 जून 2006 को सुप्रीम कोर्ट की न्यायमूर्ति के रूप में ही रिटायर हो जाएंगी।  
 
न्यायमूर्ति रूमा पॉल के शपथ लेने में कुछ घंटों की देरी से देश के न्यायिक इतिहास की धारा बदल गई और देश पहली प्रधान न्यायाधीश पाते-पाते रह गया। जैन ने कहा कि रगीना गुहा के मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने 1916 में और सुधांशु बाला हजारा के मामले में पटना उच्च न्यायालय ने 1922 में अपना फैसला सुनाते हुए कहा था कि महिलाएं कानून की डिग्री और योग्यता के बावजूद अधिवक्ता होने की अधिकारी नहीं हैं।
 
24 अगस्त, 1921 को पहली बार इलाहाबाद उच्च-न्यायालय ने सुश्री कोर्नेलिया सोराबजी को वकील बनने–होने की अनुमति दी थी और स्त्री अधिवक्ता अधिनियम, 1923 (के अंतर्गत, महिलाओं के विरुद्ध जारी अयोग्यता को समाप्त किया गया था। इस हिसाब से देखें तो महिलाओं को वकालत के पेशे में सक्रिय भूमिका निभाते 100 साल होने को हैं। जैन कहते हैं, 2012 में जब हम इस समानता का शताब्दी वर्ष मनाएंगे तो विश्वास के साथ उम्मीद तो की ही जा सकती है कि 'न्याय यात्रा' के हमराही, लिंगभेद के शिकार नहीं होंगे। (वीएनआई) 
ये भी पढ़ें
मोदीराज में महंगाई के 'अच्छे दिन'