इस दौर की उर्दू शायरी का एक चमकता हुआ नाम है मुनव्वर राना। 'माँ' सहित तमाम रिश्तों को लेकर उन्होंने पर जिस गहराई से शे'र लिक्खे हैं, उनका कोई सानी नहीं। शायरी पसंद करने वाले हर शख़्स की ज़बाँ पर अगर कोई पहला नाम होता है, तो वो होता है मुनव्वर राना का।
मगर इस वक़्त उनका नाम शायरी को लेकर नहीं, बल्कि 'शाहदाबा' के लिए 2014 में मिले साहित्य अकादमी सम्मान लौटाने को लेकर चर्चा में है। साहित्यकार उदय प्रकाश से शुरू हुआ ये सिलसिला अब मुनव्वर राना तक पहुँच गया है। इसी सिलसिले में राना साहब से फोन पर चर्चा हुई। पेश है, बातचीत में सामने आया उनका दर्द।
यूँ तो आप राना साहब की शायरी पढ़-सुन कर भी उनके मिज़ाज के तमाम पहलुओं के साथ-साथ उनकी ख़ुद्दारी का अंदाज़ा भी लगा सकते हैं। और जिन लोगों को उनसे रू-ब-रू होने का मौक़ा मिला है, वो अच्छी तरह समझ सकते हैं कि ख़ुद्दारी उनके लहजे में किसकदर समाई हुई है।
धोखे से आ गया था अवॉर्ड हमारे पास : सम्मान लौटाने की बात पर उनके जवाब की पहली ही पंक्ति थी- ''दरअसल ये सम्मान लौटाने में हमने बहुत देर कर दी। ये तो हमें कभी का लौटा देना चाहिए था। बल्कि सच तो ये है कि ये अवार्ड हमें लेना ही नहीं था। हम इस क़ाबिल थे ही नहीं। हमें तो लगता है कि ये अवॉर्ड धोखे से हमारे पास आ गया था। हमने तो अवॉर्ड के वक़्त भी हैरत जताते हुए इससे नाइत्तिफ़ाक़ी ज़ाहिर की थी।
मैदान में उतरना ही पड़ा हमें : कुछ ही दिनों पहले सम्मान लौटाने वाले अदीबों पर एतिराज़ कर रहे राना साहब से जब उनके इस फ़ैसले के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा- ''हमारे साथी साहित्यकारों की आवाज़ शायद कमज़ोर पड़ रही थी इसलिए हमें भी उनके साथ मैदान में उतरना पड़ा।'' वो एक शे'र है ना-
''ये बारे अमानत न उठा और किसी से,
मैं था जो तेरे ग़म के मुक़ाबिल नज़र आया।''
ग़ैरतमंद हो तो कभी सरकारी सम्मान मत लेना : और फिर हमारी ख़ामोशी को हमारी लाचारी भी समझा जाने लगा था। कुछ लोग तो हमें सरकार का चाटुकार तक कह रहे थे। यह बात हमारी ख़ुद्दारी को बहुत नागवार गुज़री। ये एज़ाज़ लौटाने के साथ-साथ हमने ये अहद भी कर लिया है कि अब कोई सरकारी सम्मान नहीं लेंगे। साथ ही अपने बेटे से भी कह दिया है कि, बेटे! अगर ग़ैरतमंद हो तो कभी कोई सरकारी सम्मान मत लेना।
चाटुकारों और साहित्यकारों में फ़र्क़ होता है : उन्होंने यह भी कहा कि- सरकार के चाटुकारों और साहित्यकारों में फ़र्क़ होता है। सरकार के चाटुकार लक्ष्मी पुत्र होते हैं और साहित्य की आराधना करने वाले सरस्वती पुत्र। लिहाज़ा, हम साहित्यकार होने के नाते सरस्वती पुत्र हुए। सरकार से हमारा कोई सरोकार नहीं। सरकार एक अवार्ड देकर सौ तरह से ज़लील करती है।
हमारी मुहब्बत वेश्या या नेताओं वाली नहीं : साहित्य अकादमी सम्मान पा चुके कई साहित्यकारों द्वारा उक्त सम्मान न लौटाने की बात पर उन्होंने कहा कि ये हम सरस्वती पुत्रों का आपस का मुआमला है। हम एक गमले में खिले दो फूलों की तरह हैं। साथ रहते हैं, मुस्कुराते हैं, हवाओं के इशारों पर लहराते-टकराते हैं। हम में असहमतियाँ हो सकती है, शिकायतें होना भी लाज़िमी है, लेकिन हम आपस में मुहब्बत भी रखते हैं। हमारे मसअले हम समझ लेंगे। हमारी मुहब्बतें वेश्या या नेताओं वाली मुहब्बत नहीं है।