नरेंद्र मोदी सरकार में सांप्रदायिकता ज्यादा सिर उठा रही है, इसे रोका जाना चाहिए
पत्रकारिता में पहले इतनी नंगई नहीं थी, जितनी अब है : ओम थानवी
Om thanvi on politics and journalism : साल 2014 के पहले भी संघ (आरएसएस) कोई निष्क्रिय तो नहीं था। संघ का जन्म 2014 में तो नहीं हुआ। गुजरात में जो दंगे हुए, कत्ले आम हुआ वो तो 2014 के पहले की बात है। महाराष्ट्र में शिवसेना की भी गतिविधियां हमने देखी। यह जो सांप्रदायिक हलचल तो काफी समय से देश में सिर उठा रही थी, लेकिन जबसे केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी, इसके बाद कुछ उन लोगों के हौंसले बढ़ गए जो इस तरह की संकीर्ण और हिंसक सोच से चलते थे। गाय के नाम पर हत्या कर दी, हालांकि नरेंद्र मोदी ने तो नहीं कहा होगा ऐसा करने के लिए, लेकिन उनको प्रश्रय मिला, उन्हें रोका जाना चाहिए था कि किसी भी सूरत में यह बर्दाश्त नहीं होगा। अल्पसंख्यकों के खिलाफ गाय और अन्य घटनाओं के नाम पर बहुत ज्यादा खून-खराबा होने लगा। न्यायपालिका और मीडिया की साख पर भी आंच आई है। पूंजीपतियों द्वारा मीडिया खरीद लिया गया है। पूंजीपति सरकारों के लिए काम कर रहे हैं। लोगों का जानने का हक मार लिया गया है। 2014 के बाद नरेंद्र मोदी सरकार के आने के बाद देश में आए बदलाव को लेकर किए गए सवाल पर जनसत्ता के पूर्व संपादक ओम थानवी ने यह बात वेबदुनिया के साथ विशेष चर्चा में कही। वे इंदौर में एक कार्यक्रम में भाग लेने आए थे। पढिए उनका विस्तृत साक्षात्कार।
सवाल : 1947 से लेकर अब तक राजनीति में क्या बदलाव आए हैं, किस तरह से राजनीति बदली है?
जवाब : यह तो आपने लंबा इतिहास खंगालने जैसे बात कह दी। लेकिन संक्षेप में बात करें तो पहले की राजनीति में मूल्यों को टटोला जा सकता था। मूल्यों पर आधारित राजनीति होती थी। सरदार पटेल, मोलाना अबुल कलाम आजाद, नेहरू जी जैसे कई लोग आए जो मूल्यों पर राजनीति करते थे। बाद के वर्षों में भी विभिन्न पार्टियों में ऐसे नेता आए, जिनमें एक जज्बा था, इमानदारी थी, गैर सांप्रदायिकता थी, संप्रदायों को लड़ाने का काम नहीं करते थे, लेकिन हाल के समय में देश में जातिवाद और सांप्रदायिकता की बहुत बुरी छाया राजनीति में भी आ गई। पहले इतनी ज्यादा सांप्रदायिकता या जातिवाद नहीं थे।
सवाल : इन दिनों मीडिया पर आरोप लगते हैं, गोदी मीडिया काफी ट्रेंड होता है, क्या कांग्रेस के या दूसरी सरकारों के जमाने में सरकार मीडिया पूरी तरह से निष्पक्ष था? जवाब : ऐसा नहीं है, चापलूस पहले भी थे, राजनीति में भी थे और पत्रकारिता में भी थे। गोद में जाकर किसी राजनेता के लिए काम करते थे, लेकिन इतनी नंगई नहीं थी। इतने नंगेपन से लोग नहीं आते थे, बेशर्मी बल्कि कहना चाहिए। पहले आपको ऐसे लोग नहीं मिलेंगे कि 20 लोग एकत्र होकर इंदिरा गांधी या राजीव गांधी के साथ तस्वीरें लेने के लिए मरे जा रहे हों। सेल्फी भले ही मोबाइल की देन है, लेकिन फोटो खिंचवाने का चाव, तस्वीर को अपने घर में टांगने का चाव यह सभी चीजें अभी हुई हैं। अब निसंकोच लोग प्रधानमंत्री के साथ अपनी सेल्फी ले रहे हैं। सुधीर चौधरी को ही देख लीजिए, वे 100 करोड़ की रिश्वत मांगने के आरोप में जेल काट के आए हैं। लेकिन पीएम के साथ सेल्फी ले रहे हैं, उन्हें लेने भी दी जा रही है। गोदी में बैठकर मचल रहे हैं, उनकी वाहवाही कर रहे हैं और दूसरे लोगों की निंदा कर रहे हैं। ये गोदी मीडिया पहले इतनी तादात में नहीं था।
सवाल : आपने बोलने की आजादी पर भी सवाल उठाए हैं कि बोलने नहीं दिया जा रहा है। लेकिन यह बात भी तो आपने यहां एक मंच पर रखी है, आलोचना की है। बोलने की अभिव्यक्ति कहां खत्म हुई है? जवाब : जिन्होंने बुलाया है उनकी दाद देनी चाहिए, मैंने भी अपनी बात कही है, लेकिन कम लोग हैं। कहने के मंच नहीं रहे हैं। इंदौर में तो फिर भी यह परंपरा है, लेकिन दूसरी जगह तो लोग बचने की कोशिश करेंगे। यहां बोलने की आजादी मिली है तो इसका मतलब यह नहीं है कि पूरे देश में ऐसा हो रहा है। मंच नहीं बचे हैं, लोग नहीं है बुलाने वाले। टेलीविजन और अखबार भी अपवाद स्वरुप बचे हैं।
सवाल : आप जनसत्ता के संपादक रहे हैं, हिंदी के लिए आपने काफी काम किया है। सोशल मीडिया के दौर में पत्रकारिता को कहां और कैसे देखते हैं? जवाब : सोशल मीडिया फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम को तो पत्रकारिता नहीं कह सकते। यह व्यक्तिगत भड़ास हैं। भड़ास का मतलब यह भी नहीं कि बुरी चीज ही होगी, आपके अपने विचार हैं। पत्रकारिता में संपादक होता है, चीजों को देखता है, जांचता है, काटता-छांटता है। हालांकि धीमे- धीमे एक वैकल्पिक मीडिया सोशल मीडिया के साथ पनपा है। जिसको पोर्टल, डिजिटल या ऑनलाइन मीडिया आया है, इनका असर भी है और प्रसार भी है, लोग इनको पढ़ रहे हैं, देख रहे हैं। मीडिया का यह पहलू महत्वपूर्ण है।
सवाल : वर्तमान की मोदी सरकार से आपकी क्या अपेक्षाएं हैं। आप क्या सोचते हैं इस सरकार को क्या करना चाहिए? जवाब : देखिए, आजादी बहुत मुश्किल से मिली है। आजादी के साथ में लोकतंत्र में जो संस्थाएं हमें मिली हैं, वे संस्थाएं धीरे-धीरे खत्म हो रही हैं। न्यायपालिका को देखिए, कैसे फैसले हो रहे हैं, कैसे फैसले करने वालों को नवाजा जा रहा है, किसी को सांसद बना देते हैं तो किसी को कहीं का चेयरमेन बना देते हैं। न्यायपालिका का हाल ठीक नहीं है, कॉलेजिमय की गतिविधि निष्पक्ष नहीं रही है। तो लोकतांत्रिक संस्थाओं को मोदी सरकार बचाकर रखे या कोई भी सरकार आए वो इन संस्थाओं को बचाकर रखे तो अच्छा है। कोई चीज आपको नहीं सुहाती है तो उसको रोकने के लिए आप कानून बना देते हैं। लोकतंत्र जिंदा रहे,लोगों में भरोसा लौटे ऐसा कुछ करे सरकार।
सवाल : आपकी नजर में मोदी सरकार ने क्या काम अच्छा किया? जवाब : देखिए, नितिन गडकरी ने सड़कों कों को लेकर अच्छा काम किया है। सरकार जनता की प्रतिनिधि है तो जनता के लिए काम करे। लेकिन विचारधारा के लिए काम करे तो उसमें एक तरह की संकीर्णता आ जाती है। जनता के लिए काम करना दायित्व है कोई अहसान नहीं है। आपको बुलेट ट्रेन चलानी थी तो वंदे भारत की शक्ल बुलेट ट्रेन जैसी बना दी और भेड़िया पर शेर की शक्ल लगा दी।
सवाल : इन दिनों आप क्या कर रहे हैं? जवाब : अभी तो मैं पढ़ने का काम करता हूं, स्वाध्याय करता हूं। यहां बुलाया तो यहां आ गया, गोष्ठियों और सभाओं में जाता हूं, अपनी बात कहता हूं। कभी सोशल मीडिया में भी लिखता हूं।