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Written By अनिल जैन
Last Updated :दिल्ली , शुक्रवार, 5 जनवरी 2018 (12:51 IST)

राज्यसभा चुनाव : 'आप’ भी 'गुप्त रोग’ की शिकार...

राज्यसभा चुनाव : 'आप’ भी 'गुप्त रोग’ की शिकार... - AAP Rajyasabha election
दिल्ली से राज्यसभा की तीन सीटों के लिए इसी महीने होने वाले चुनाव के लिए अपने उम्मीदवारों के नामों का एलान करने के साथ ही न सिर्फ आम आदमी पार्टी एक बार फिर सवालों से घिर गई है, बल्कि यह सवाल भी फिर ताजा हो गया है कि संसद का यह उच्च सदन आखिर किन लोगों के लिए है और यह किसका प्रतिनिधित्व करता है?
 
वैसे तो हर दो साल बाद होने वाला राज्यसभा का चुनाव पिछले कई दशकों से देश में राजनीतिक व्यवस्था के पतन की नई इबारत लिखने का एक अवसर बना हुआ है, जिसमें हर पार्टी अपनी-अपनी क्षमता के मुताबिक 'योगदान’ करती है। हर चुनाव में राज्यसभा के लिए इस या उस दल से निर्वाचित होने वाले विजय माल्या, अमरसिंह और सुभाष चंद्रा जैसे कई चेहरे उस पतन-गाथा के मुख्य किरदार होते हैं। वामपंथी दलों को छोड़कर कोई भी छोटा-बड़ा दल ऐसा नहीं है जिसे देश की सबसे बड़ी पंचायत के इस उच्च सदन को बदशक्ल बनाने के पाप कर्म से बरी किया जा सके। 
 
हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने संविधान की रचना करते समय जब राज्यसभा की अवधारणा पर बहस शुरू की होगी तब उन्हें इसके मौजूदा स्वरुप का अंदाजा भी नहीं रहा होगा। दरअसल, राज्यसभा को लेकर संविधान सभा के सदस्यों की सोच यह थी कि इसमें विशिष्ट राजनेताओं के साथ ही समाज के विभिन्न क्षेत्रों में विशेष अनुभव रखने वाले लोग भी आएंगे। देश के हर राज्य से ऐसे लोगों को कानून बनाने और देश का मार्गदर्शन करने में प्रतिनिधित्व मिल सके, इस मकसद से इसका गठन राज्यों की प्रतिनिधि संस्था के रूप में किया गया और इसे ब्रिटेन के हाउस ऑफ लार्ड्‍स की तरह हाउस ऑफ एल्डर्स का दर्जा दिया गया।
 
लेकिन, पतनशील राजनीति के चलते हमारे नेताओं ने हर व्यवस्था को नाकाम करने के लिए कोई न कोई गली खोज ही ली। आज हालत यह है कि राज्यसभा का न तो राज्यों से सीधा संबंध रह गया है और न ही जनता से। संसद का यह उच्च सदन एक तरह से राजनीतिक दलों के नेतृत्व वर्ग की जेब का खिलौना बन गया है। राज्यसभा के लिए विभिन्न दलों की ओर से प्रत्याशियों के मनोनयन या चयन के तौर-तरीके लगातार संदेहास्पद और विवादास्पद होते जा रहे हैं।
 
पूछा जा सकता है कि जब लगभग सभी पार्टियां राजनीति के हमाम में नंगी हैं तो फिर आम आदमी पार्टी से ही अलग आचरण की उम्मीद क्यों रखी जानी चाहिए; आखिर उस पार्टी के कर्ताधर्ता भी तो हमारे इसी समाज का ही हिस्सा हैं। फौरी तौर पर सवाल वाजिब है। लेकिन आम आदमी पार्टी से सवाल पूछे जाने की ठोस वजह है। आम आदमी पार्टी के बारे में कहा जाता है कि इसका जन्म भ्रष्टाचार के खिलाफ एक आंदोलन की कोख से हुआ था। हालांकि उस आंदोलन की सात्विकता पर कई तरह के सवाल और संदेह थे, जिनका निवारण नहीं हो सका। बहरहाल यह एक अलग बहस का विषय है।

उस तथाकथित भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की परिणामविहीन पूर्णाहूति के बाद आम आदमी पार्टी को वजूद में लाते वक्त इसके कर्ताधर्ताओं का दावा था कि हम इस पार्टी के माध्यम साफ-सुथरी वैकल्पिक राजनीति का आदर्श प्रस्तुत करेंगे। हालांकि यह दावा वैसे तो कई मौकों पर खोखला साबित हो चुका है, फिर भी राज्यसभा का चुनाव एक ऐसा मौका था जब पार्टी नेतृत्व चाहता तो प्रत्याशी चयन के मामले में दूसरे दलों के नक्श-ए-कदम पर चलने से बच सकता था और दूसरों से अलग होने के अपने दावे को दोहरा सकता था, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सका।
 
आम आदमी पार्टी ने अपने जिन तीन उम्मीदवारों के नाम घोषित किए, उनमें पार्टी के वरिष्ठ नेता संजय सिंह के अलावा दिल्ली के एक वरिष्ठ चार्टर्ड अकाउंटेंट नारायण दास गुप्ता और दिल्ली के ही एक बड़े कारोबारी सुशील गुप्ता के नाम शामिल हैं। सुशील गुप्ता कुछ दिनों पहले तक कांग्रेस में थे और वर्ष 2013 में उन्होंने मोतीनगर से कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा का चुनाव लड़ा था।
 
इन तीन उम्मीदवारों में सिर्फ संजय सिंह का ही नाम ऐसा है जिसे लेकर पार्टी के भीतर या बाहर किसी तरह का सवाल नहीं है लेकिन अन्य दो नामों को लेकर पार्टी पार्टी के बाहर ही नहीं, भीतर भी सवाल उठ रहे हैं कि आखिर किन मानदंडों के आधार पर ऐसे लोगों को राज्यसभा का उम्मीदवार बनाया गया, जिनका पार्टी के किसी भी अभियान या उसकी घोषित नीतियों या सिद्धांतों से कभी कोई नाता नहीं रहा।
 
आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल इन सवालों पर मौन है। उनके बचाव में पार्टी में दूसरे और तीसरे दर्जे की हैसियत वाले प्रवक्ता हास्यास्पद दलीलों के साथ दोनों गुप्ताओं का बायोडेटा सोशल मीडिया के जरिये प्रसारित कर उन्हें महान समाजसेवी साबित करने की फूहड़ कोशिश कर रहे हैं।
 
दलील दी जा रही है कि पार्टी ने विभिन्न क्षेत्रों की कई काबिल और प्रतिष्ठित लोगों से संपर्क साधा था और उनसे पार्टी की ओर राज्यसभा की उम्मीदवारी स्वीकार करने का अनुरोध किया था लेकिन उनमें से कोई भी तैयार नहीं हुआ। यह दलील अपनी जगह सही है लेकिन इससे दो 'गुप्ताओं’ को राज्यसभा का उम्मीदवार बनाए जाने का औचित्य साबित नहीं होता।
 
कोई राजनीतिक दल किसे अपना उम्मीदवार बनाए, यह उसका अपना आंतरिक सांगठनिक मामला है लेकिन आंतरिक मामले के सार्वजनिक होने पर उस सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर इन दोनों बाहरी 'गुप्ताओं’ को पार्टी में मौजूद अन्य नेताओं की तुलना में किस आधार पर राज्ससभा की उम्मीदवारी के काबिल माना गया। 
इस सवाल का समाधानकारक जवाब आम आदमी पार्टी के नेतृत्व के पास न तो आज है और न ही कल होगा।
 
लेकिन, इतना तय है कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने अपनी सरकार के कुछ अच्छे कामों से अपनी छवि को जिस तरह से चमकाया था उसकी चमक राज्यसभा की उम्मीदवारी दो 'गुप्ताओं’ को देने से निश्चित ही धुंधली पड़ी है। यही नहीं, इससे यह भी साबित हुआ है कि अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी को एक लोकतांत्रिक राजनीतिक दल के रूप में नहीं बल्कि अपने निजी व्यावसायिक प्रतिष्ठान या एनजीओ की तरह चला रहे हैं।
 
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