क्या है राइट टू रिजेक्ट..?
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राइट टू रिजेक्ट' अर्थात नकारात्मक मतदान पर उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले के बाद एक नई बहस छिड़ गई है। आखिर इसका आम आदमी पर क्या असर होगा और इसके आने से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में किस तरह के चुनाव सुधार होंगे? हालांकि 'दिल्ली अभी दूर है' क्योंकि राजनीतिक पार्टियां शीर्ष अदालत के इस अहम फैसले को दरकिनार करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगी। आखिर है क्या राइट टू रिजेक्ट, आइए देखते हैं....राइट दू रिजेक्ट का मतलब है अगर कोई व्यक्ति वोट देते समय मौजूदा उम्मीदवारों में से किसी को नहीं चुनना चाहता है तो वह 'नान ऑफ दीज' बटन (फिलहाल मतदान मशीन में इसकी व्यवस्था नहीं है) का प्रयोग कर सकता है। इस अधिकार का अर्थ मतदाताओं को इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में वह सुविधा और अधिकार देना जिसका इस्तेमाल करते हुए वे उम्मीदवारों को नापसंद कर सकें। यदि मतदाता को चुनाव में खड़ा कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं हो तो वह इस विकल्प को चुन सकता है।
कब से चल रही है राइट टू रिजेक्ट की मांग... पढ़ें अगले पेज पर...
2009
में अन्ना हजारे की टीम ने दिल्ली में भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन करते समय सरकार से राइट टू रिजेक्ट और राइट टू रिकॉल जैसे विषय पर संसद में प्रस्ताव पारित कर इन्हें लागू करने की मांग की थी, जिसका सरकार को छोड़ सभी दलों ने समर्थन किया था। 2009 में ही भारतीय चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट से चुनाव में राइट टू रिजेक्ट विकल्प को लागू करने की मांग की थी, जिसका सरकार ने काफी विरोध किया था। बढ़ते अपराध और भ्रष्टाचार के मामलों से जनता का भरोसा नेताओं पर से उठ रहा है। इसलिए जनता ऐसे कानूनों के पक्ष में दिख रही है। हालांकि यह अधिकार जनता को कब तक मिल पाएगा, अभी कहना काफी मुश्किल है। ...और क्या कहता भारतीय संविधान... पढ़ें अगले पेज पर...
भारतीय चुनाव अधिनियम 1961 की धारा 49-ओ के तहत संविधान में बताया गया है कि यदि कोई व्यक्ति वोट देते समय मौजूद उम्मीदवारों में से किसी को भी नहीं चुनना चाहता है, तो वह ऐसा कर सकता है। यह उसका वोट देने या ना देने का अधिकार है। हालांकि यह धारा किसी प्रत्याशी को रिजेक्ट करने की अनुमति नहीं देती है। उल्लेखनीय है कि नकारात्मक मतदान की अवधारणा 13 देशों में प्रचलित है और भारत में भी सांसदों को संसद भवन में मतदान के दौरान ‘अलग रहने’ के लिए बटन दबाने का विकल्प मिलता है। अत: चुनावों में प्रत्याशियों को खारिज करने का अधिकार संविधान द्वारा भारतीय नागरिकों को दिए गए बोलने एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हिस्सा है।
क्या होगा इसके लागू होने के बाद...पढ़ें अगले पेज पर...
कानून के जानकारों के अनुसार राइट टू रिजेक्ट अगर लागू हो जाता है तो वोटर अपने वोट का सही प्रयोग कर सकते हैं। अगर लोकसभा क्षेत्र में ज्यादा से ज्यादा वोटर राइट टू रिजेक्ट बटन का प्रयोग करता है तो चुनाव आयोग राइट टू रिजेक्ट की संख्या ज्यादा होने की स्थिति में उस क्षेत्र के उम्मीदवारों का चुनावी पर्चा खारिज कर सकता है। राइट टू रिजेक्ट का प्रतिशत अधिक होने पर चुनाव खारिज हो जाता है। इसके लागू होने पर प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जनप्रतिनिधियों की जिम्मेदारियां जनता के प्रति और बढ़ जाती हैं। ऐसी स्िथति में वहां उपचुनाव कराया जा सकता है। राइट टू रिजेक्ट लागू होने के बाद सभी दलों को अपने उम्मीदवारों का चयन करते समय काफी दबाव रहेगा और वे दागियों को चुनाव में टिकट देने से बचने का प्रयास करेंगे, जिससे राजनीति में साफ-सुथरी छवी वाले नेता आ सकते हैं। चुनाव के बाद भी जनप्रतिनिधियों पर अपने क्षेत्रों में ज्यादा से ज्यादा कार्य करने का दबाव होगा, नहीं तो अगले चुनाव में वोटर उन्हें रिजेक्ट कर सकते हैं।
राइट टू रिकॉल की शुरुआत कहां से... पढ़ें अगले पेज पर...
भारत में राइट टू रिकॉल की बात सबसे पहले लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने 4 नवंबर 1974 को संपूर्ण क्रांति के दौरान कही थी। ऐसा माना जाता है कि पुरातन समय में यूनान में एंथेनियन लोकतंत्र में राइट टू रिकॉल कानून लागू था। स्विट्जरलैंड, अमेरिका, वेनेजुएला और कनाडा में भी राइट टू रिकॉल कानून लागू है। अमेरिका में इस कानून की बदौलत ही कुछ गर्वनरों और मेयरों को हटाया जा चुका है। सबसे पहले स्विट्जरलैंड ने इसे अपनाया। स्विट्जरलैंड की संघीय व्यवस्था में छह प्रांतों ने इस कानून को मान्यता दे रखी है।1903
में अमेरिका के लॉस एंजिल्स,1908 में मिशिगन और ओरेगान में पहली बार राइट टू रिकॉल प्रांत के अधिकारियों के लिए लागू किया गया। हालांकि अमेरिका में 1631 में ही मैसाचुसेट्स बे कॉलोनी की अदालत में इस कानून को मान्यता मिल गई थी, लेकिन इसे पहली बार मिशिगन और ओरेगान में लागू किया गया। कनाडा ने 1995 में इस कानून को लागू किया।