पेशे की शर्त : संवेदना...
सभी पेशों की अपनी एक नियमावली होती है, जो उस पेशे को अद्वितीय बनाती है, जैसे पुलिस या कानून से जुड़े पेशे के लिए सत्यता और निष्पक्षता सर्वोपरि होती है तभी यह पेशा सार्थक होगा। और भी बहुत से पेशे ऐसे हैं जिनकी अपनी अलग शर्तें या नियमावली होती हैं जिन्हें हर हाल में मानना ही होता है। ऊपरी तौर पर दिखावे के लिए जैसे आवश्यक नहीं कि उसका आचरण भी व्यक्ति द्वारा किया जाए। सब अपनी आवश्यकता के हिसाब से आचरण करते हैं।
मैं समझता हूं कि पूरे ब्रह्मांड में ईश्वर के बाद यदि जीवन देने या कहें कि बचाने की क्षमता किसी के पास है तो वो केवल डॉक्टरों के ही पास होती है इसलिए उन्हें दूसरा भगवान कहा जाता है। परंतु मेरे विचार से डॉक्टरी के पेशे की आचरण प्रणाली सबसे कठोर होती है जिसकी सबसे जरूरी शर्त होती है कि डॉक्टर होने वाले व्यक्ति को थोड़ा कठोर हृदय होना चाहिए अर्थात उसे मरीज का इलाज करते समय अपनी संवेदनशीलता को एक ओर उठाकर रख देना चाहिए जिससे कि यदि रोगी का ऑपरेशन इत्यादि करते हुए कहीं ये संवेदनाएं डॉक्टर के हृदयपटल पर आ गईं तो रोगी की शल्यक्रिया बाधित हो सकती है।
अपने देश में अधिकतर ग्रामीण इलाकों में लोग डॉक्टरों को 'कसाई' भी कहते हैं। हो सकता है कि यह उनके पेशे से संबंधित शल्यक्रिया में होने वाले चीरफाड़ की वजह से हुआ हो! बेशक डॉक्टर के पेशे में संवेदना की कोई जगह नहीं है, परंतु क्या वाकई ऐसा होना चाहिए?
आज डॉक्टरों को मरीज से कोई सरोकार है ही नहीं। अमूमन आज ठीक-ठाक डॉक्टर 500 रुपए फीस लेता है। खींच के 5 मिनट में पर्चा लिखकर मरीज बाहर और नया मरीज तैयार! लाइन लगी हुई है। सरकारी अस्पतालों के तो और भी बुरे हाल हैं।
आज ही गोरखपुर के बाबा रघुवरदास मेडिकल कॉलेज में 30 से ज्यादा मासूम बच्चों की मौत की खबर आ रही है। इसमें अस्पताल प्रशासन के अधिकारियों को दोषी बताया जा रहा है और वे हैं, बिलकुल हैं। पर ये भी तो देखिए कि वे अपने पेशे की मूलभूत शर्त 'संवेदनहीनता' को कैसे दरकिनार कर सकते थे? उन्होंने अपने पेशे के अनुरूप ही तो आचरण किया है। संवेदनाओं को अपने पास तक फटकने नहीं दिया। 30 से ज्यादा बच्चों की लाश अस्पताल में रहते हुए और भयंकर चीत्कार करते परिवारीजनों के बीच मूलभूत संसाधनों के अभाव में भी वे अपना कर्तव्य निभाते रहे। आंसू की तो छोड़िए, एक पानी की बूंद तक नहीं आने दी किसी डॉक्टर ने अपनी आंख में। ये संवेदनहीनता की पराकाष्ठा ही तो है, जो उन्होंने बखूबी निभाई।
पर वे भूल गए कि उन्हें अपनी संवेदना कब अलग करनी होती है और कब साथ रखनी है। बस, पेशे की इसी शर्त ने 30 से ज्यादा मासूमों को असमय परमधाम पहुंचा दिया और पीछे रह गए उनके बिलखते परिवार और हम-आप आम लोग (इनमें राजनीतिक व्यक्ति तो कतई शामिल नहीं हैं) जिनकी संवेदनाएं कभी भी अलग नहीं हो सकतीं।
तो आइए, अब हम अपनी संवेदनाओं को उन मृत बच्चों को समर्पित करते हुए ईश्वर से उन्हें मोक्ष प्रदान करने की प्रार्थना करें और उनके वियोग में परिवारीजनों को ईश्वर उन्हें शक्ति दें कि वो इस पीड़ा को सहन कर सकें।
डॉक्टरों ने अपने 'पेशे की शर्त' का ही आचरण तो किया है बस।