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Written By Author स्वरांगी साने

…और बाँस से बनी राखियाँ

…और बाँस से बनी राखियाँ - Rakhi, Raksha Bandhan festival, BambooRakhi
उनका पता बता दूँ आपको, गाँव लवादा, कस्बा दुनी, तहसील धारणी, जिला अमरावती, राज्य महाराष्ट्र। यह पता है उन आदिवासियों का जो मेलघाट के घने जंगलों में रहते हैं। ये इतने दुर्गम भाग में रहते हैं कि उन तक पहुँचना भी एक दुर्दम्य बात है। उनकी जीविका के साधन नगण्य हैं, ऐसे में अन्य सुख-सुविधाओं का तो सवाल ही नहीं उठता। उनके आसपास उनका पर्यावरण है, जंगल है और कल्पनाओं की अनंत उड़ान है। उन्हें उनके ही घर में काम मिल सके, काम का सही मेहनताना मिल सके इसलिए पिछले 21 सालों से निरुपमा देशपांडे और सुनील देशपांडे जुटे हुए हैं। पिछले चार सालों से वे इन हाथों को बाँस से बनी राखियाँ सीखा रहे हैं, उनकी बनी राखियों को बाज़ार दिला रहे हैं। 
ये आदिवासी गाँवों के भीतर बसे गाँवों में रहते हैं। हज़ारों सालों से अपनी आदिवासी कला को सहेजे। संपूरण बाबू केंद लवादा (मेलघाट) और वेणु शिल्पी औद्योगिक सहकारी संस्था मर्यादित लवादा के संयुक्त तत्वावधान में 'सृष्टी बंध' नाम से राखियाँ बनाने का प्रोजेक्ट किया जा रहा है। निरुपमा कहती हैं, हमारे सारे उत्सव, वार-त्योहार, रस्मो-रिवाज़ इसीलिए बने हैं ताकि लोक कलाओं का जतन-संवर्धन हो सके। पर्यावरण की रक्षा भी हो और कलाकारों के हाथों को काम भी मिले। रक्षाबंधन पर बहन अपने भाई की कलाई पर जो राखी बाँधे वह प्राकृतिक हो, सुंदर हो और हटकर हो। प्लास्टिक-थर्मोकोल आदि गैर परंपरागत वस्तुओं से बनी राखियाँ पर्यावरण को नुकसान पहुँचाती हैं जबकि यह परंपरा को सहेजती है। वे कहती हैं, राखियों को बनाने में 450 आदिवासियों ने मेहनत की है। राखी के अलावा दिवाली से पहले हम ठाणे (महाराष्ट्र) में एक बड़ा मेला आयोजित करते हैं, ताकि आदिवासियों की वस्तुओं की बिक्री हो सके। 
दो सालों से पुणे की संस्था ज्ञानप्रबोधिनी में यह राखियाँ बिक्री के लिए आ रही हैं, इस साल पिंपरी-चिंचवड़ में भी इन राखियों को बिक्री के लिए रखा गया है। कार्यकारिणी सदस्य अल्पिता पाटणकर बताती हैं, इन राखियों की कीमत 15 से 40 रुपए तक है। यदि कोई एक राखी भी खरीदता है तो एक आदिवासी परिवार का एक दिन का खाना निकल आता है। गाँवों तक गाँवों के लिए काम करने की उनकी ललक है कि वे हर साल रान भाजी (जंगली सब्जी) महोत्सव के तहत दो-तीन दिन का हॉलिडे स्टे भी आयोजित करती हैं। इस बार आहुपे और कुकड़ेश्वर (महाराष्ट्र के दो गाँव) में यह यात्रा रखी गई है कि लोग गाँवों में जाकर न केवल जैव विविधता के दर्शन करें, बल्कि गाँववालों के साथ रहकर उन्हीं की सब्जियों का आस्वाद लें।
 
सुनील-निरुपमा देशपांडे : दोनों ने एमएसडब्ल्यू (समाज कार्य) किया है। सुनील नागपुर से हैं और नागपुर की ही निरुपमा ने मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट से पढ़ाई पूरी की। दोनों ने उसी दौरान तय कर लिया था कि वे आदिवासियों के साथ काम करेंगे। दोनों के प्रेम विवाह को परिवारों ने अनुमति दी और उनके काम को भी पूरा सहयोग दिया। मेलघाट में आदिवासियों की कला को बढ़ावा देने के लिए वे कार्यरत हैं। उनके द्वारा बनाए गए बाँस की टोपलियाँ, कान के झुमके, ग्रीटिंग कार्ड आदि को वे बाज़ार देते हैं। 
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