बाल जीवन के आनंद और कल्पनाशीलता का कोई ओर-छोर नहीं है। भारत और एशिया के बच्चों के खेलकूद की सादगी और कल्पनाशीलता का कोई सानी नहीं है। 'अष्ट चंग पे' ये कोई चीनी साम्राज्य के पुराने राजा का नाम नहीं है। ये नाम है पुरानी पीढ़ी के भारत और एशिया के कई देशों के असंख्य बच्चों में अति लोकप्रिय खेल का। इस खेल ने भारत ही नहीं, एशिया के कई देशों के बच्चों को कई पीढ़ियों तक मिल-जुलकर खेलने का पाठ पढ़ाया।
'अष्ट चंग पे' ये हिन्दी नाम है। इसका अर्थ है आठ-चार। एक इस खेल ने बच्चों को मिल-जुलकर बैठे-बैठे खेल का आनंद लेते हुए जीते रहने का पाठ सिखाया है। इमली के 2 बीजों को खड़ा कर पत्थर के एक छोटे से टुकड़े से सीधी पर तेज चोट से 2 हिस्सों में बांटने की कला छोटे-छोटे बच्चों के खेल को शुरू करने की पहली चुनौती होती थी। पहली ही चोट में 2 हिस्से में इमली के बीज यानी चीये का 2 हिस्सों में विभाजित हो जाना बाल खिलाड़ी की पहली उपलब्धि हुआ करती थी और अपनी इस सफलता पर वह बालक फूला नहीं समाता था। यदि ऐसा नहीं हो पाया तो खेलने वाले सारे बच्चे नहीं 'फूटी नहीं फूटी' का ऐसा हल्ला मचाते कि कुछ पूछो ही मत। खेल के दौरान हल्ला-गुल्ला और हंसी-ठट्ठा न हो तो बच्चे खेले ही क्या!
धरती पर फैली चीजें और मनुष्य की सोच-समझ और विचारशीलता ने कई खेल गतिविधियों को जन्म दिया। मनुष्य स्वयं अपने निजी और सामूहिक आनंद का जन्मदाता है। जीवन आनंद में बाहरी साधनों का प्रवेश या परावलंबन तो बाजार की सभ्यता के उदय के बाद का है।
मानव सभ्यता के प्रारंभ से ही मानव समूहों ने अपने अपने तरीकों से कई खेलों को खोज कर विकसित किया, जो वैश्विक स्तर पर भी लोकजीवन में अपना स्थान रखते हैं। मनुष्य और धरती इन दोनों मूलभूत आधारों से ही खेलकूद ही नहीं, जीवन की अंतहीन सृजनशीलता का विकास हुआ है। बिना पैसे और बिना बाजार जीवन को कितना खिलखिलाहटभरा, मौज-मस्तीपूर्ण और गतिविधिवान बनाया जा सकता है, यह मनुष्य मन का एक रोमांचक आयाम है।
आज की आधुनिक तथाकथित विकसित दुनिया के मनुष्य साधन या पैसे के अभाव मात्र से गतिविधिहीन हो चले हैं। जीवन में गतिविधियों का जन्म बैठे-बैठे और अभावों को रोते रहने से नहीं होता। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के पास आनंद और सृजनशीलता का प्रवाह पहुंचना जब रुक जाता है तो मनुष्य और धरती की जुगलबंदी के सारे तार और सुर एकाएक मंद हो जाते हैं।
शायद आज की दुनिया का आज का सबसे बड़ा दु:ख यह है कि मनुष्य के जीवन आनंद की सहज प्राकृतिक यात्रा रुक-सी गई है। आनंद ही जीवन का जीवंत स्वरूप होने का मूल भाव मनुष्य जीवन की मूल समझ है जिसका दिन-प्रतिदिन अभाव होता जा रहा है। इस स्थिति ने कई सवाल मानव समाज के मन में खड़े किए हैं। इन सवालों का पका-पकाया या बना-बनाया समाधान हम में से किसी के पास नहीं है। पर घर-परिवार व समाज में जो आपसी समझ और व्यवहार से जीवन में सहज आनंद और सहज हलचलों की उपस्थिति थी, उसमें काफी हद तक कमी आज के कालखंड में आई है।
जीवन आनंद का मूल गुण यह है कि वह बांटने से बढ़ता है और बटोरकर अपने तक ही सीमित करने से जीवन आनंद का सहज विस्तार मंद या लुप्त होने लगता है। इसी से दुनियाभर के लोकजीवन में जो खेल विकसित हुए, वे सहज आनंद की प्राकृतिक अभिव्यक्ति थी। उसमें प्रतिस्पर्धा या व्यावसायिक सफलता का आयाम ही नहीं था।
वैसे देखा जाए तो जीवन भी एक खेल ही है, जो इस धरती पर हमें मन और तन के सहारे जीवनभर खेलना होता है। यदि हमारा मन एकाकी हो तो हमारे जीवन की हलचलें एकाएक कम होने लगती हैं। जीवन की हलचलों में एक लय बनाए रखने के लिए ही मानव मन ने कई खेलों की रचना की है। खो-खो और कबड्डी जैसे खेल सामूहिक हलचल और सतर्क गतिशीलता के खेल हैं जिसमें धरती और तन-मन की सतर्कता और चपलता की ही मूल भूमिका होती हैं। जीवन के खेल का प्राकृतिक मूल स्वरूप भी तन-मन और धरती के बीच सदैव एकरूपता का बना रहना ही है। इस तरह देखें तो जीवन और खेल दोनों ही जीवन का आनंदमय साकार स्वरूप हैं जिसे हम जानते तो हैं, पर हमेशा मानते नहीं।
जीवन आनंद हमारे जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा है, जो जीवन के हर क्षण हमें देते रहना होती है जिसमें परीक्षा और परिणाम सांस लेने जैसा सनातन प्राकृतिक क्रम की तरह हर क्षण बना रहता है। 'अष्ट चंग पे' में भी हर चाल अनिश्चित होती है, वहीं हाल हर क्षण भी हमारे जीवन का भी है। अनिश्चित चालें जीवन के खेल को रोमांचक बनाती हैं। यही जीवन का आनंददायी रोमांच है, जो हर क्षण कायम रखना ही जीवन की मूलभूत समझ है।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)