पिछले सप्ताह 27 अप्रैल को कोरियाई प्रायद्वीप में इतिहास बन गया जब उत्तरी कोरिया के युवा तानाशाह ने शिखर वार्ता के लिए दक्षिण कोरिया की जमीन पर पैर रखा। 65 वर्षों बाद पहली बार उत्तरी कोरिया का कोई शासक दक्षिण कोरिया में शिखर वार्ता के लिए पहुँचा। दोनों देशों के बीच एक असैनिकीकरण किया हुआ एक क्षेत्र है जहाँ यह शिखर वार्ता हुई।
कुछ समय से पश्चिमी दुनिया का ध्यान उत्तरी कोरिया के क्रूर शासक पर केंद्रित है क्योंकि वह एक मंजे हुए कूटनीतिज्ञ की तरह एक के बाद एक चालें चल रहा है और दूसरी तरफ दुनिया के दिग्गज और धुरंधर नेता अपनी चौकड़ी भूल चुके हैं।
पहले तो तानाशह किम जोंग उन ने एक के बाद एक परमाणु विस्फोट किए और मिसाइलें उड़ाई। दुनिया के सामने अपने आप को न केवल निडर साबित किया बल्कि राष्ट्रपति ट्रम्प जैसे नेताओं से बराबरी से मुँहजोरी की। फिर अचानक बौखलाए दक्षिण कोरिया और उसके बाद बड़बोले अमेरिका को बातचीत का प्रस्ताव देकर स्तब्ध कर दिया। या कहिये शोर करते हुए बच्चों को लाली-पॉप दिखा कर अचानक चुप कर दिया।
दोनों ही देश के नेता वार्ता के प्रस्ताव पर ऐसे झपटे जैसे यह एक सुनहरा मौका है जो दुश्मन ने खुद होकर उनकी झोली में डाल दिया हो किन्तु कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि तानाशाह ने बहेलिये की तरह दाना डालकर दोनों नेताओं को अपने जाल में फ़ांस लिया है। उधर चीन और जापान को समझ में नहीं आ रहा है कि वे इस प्रक्रिया में छूट गए हैं या छोड़ दिए गए हैं याने तानाशाह ने बिना मिसाइल चलाये ही उनका शिकार कर दिया।
शिखर वार्ता से पहले ही युवा तानाशाह अपनी तरफ से एक के बाद एक घोषणा कर रहा है। परमाणु बम और मिसाइलों के परिक्षण पर स्वयं ने ही प्रतिबन्ध लगा लिया है। अपने परमाणु परीक्षण सुविधा केंद्र को ध्वस्त करने की घोषणा भी कर दी है। राष्ट्रपति ट्रम्प शायद सोच रहे थे कि इस तरह के प्रतिबन्ध का वादा लेकर वे ख्याति प्राप्त करेंगे किन्तु तानाशाह ने वार्ता के पहले ही खुद पर प्रतिबंधों की घोषणा कर दी। अतः निश्चित ही श्रेय ट्रम्प को नहीं मिलेगा।
उलटे अब शिखर वार्ता में राष्ट्रपति ट्रम्प को घोषणा करनी पड़ेगी कि इन घोषणाओं के बदले में वे कौनसे आर्थिक प्रतिबन्ध कोरिया से हटाएंगे? अर्थात वार्ता में उन्हें केवल देना है, जो लेना था वह तो खुद किम पहले ही घोषणा कर चुका है। यद्यपि ट्रम्प यह बताने से पीछे नहीं हट रहे हैं कि उनके कठोर क़दमों और प्रतिबंधों के परिणामस्वरूप किम जोंग को वार्ता की मेज़ पर आना पड़ा।
तानाशाह के मन में क्या है समझ में नहीं आ रहा। दूसरे देशों विशेषकर प्रजातान्त्रिक देशों में रहस्य नाम से कुछ नहीं रहता। विदेश नीति पारदर्शक होती है जहाँ सभी को सभी चीजें मालूम होती है। यहाँ तो अकेला तानाशाह है जिसके मन में जो विचार होंगे वही उत्तरी कोरिया की विदेश नीति होगी। शिखर वार्ता में उसे मालूम है कि उसे क्या करना है। मुसीबत तो दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून और ट्रम्प की है क्योंकि उनको सलाह देने वालों की कमी नहीं है। खतरा यह भी रहेगा कि यदि वार्ता असफल होती है तो जिम्मेवार भी वे ही ठहरा दिए जायेंगे। तानाशाह के पास खोने की लिए कुछ नहीं है उसे तो हर स्थिति में पाना ही पाना है।
तानाशाह की इन चालों की वजह से अमेरिका और दक्षिण कोरिया का कूटनीतिज्ञ विभाग ओवर टाइम कर रहा है अपनी चालें तय करने के लिए। मीडिया अटकलें लगा रहा है। दक्षिण कोरिया ने उत्तरी कोरिया के विरुद्ध अपने प्रसार माध्यमों से आलोचना बंद कर दी है। दोनों ही देशों ने अपने अपने सीमावर्ती क्षेत्रों में लाउड स्पीकर लगा रखे थे जिनकी आवाज़ सीमा पार जाती थी और उन पर ये दोनों देश एक दूसरे के विरुद्ध विषवमन करते थे। शिखर वार्ता से पहले ये लाउड स्पीकर्स निकाल लिए गए ताकि माहौल को शिखर वार्ता के लिए तैयार किया जा सके।
जाहिर है कहानी का आरम्भ तानाशाह ने किया और भूमिका भी खुद ही लिख रहा है। निर्देशक की तरह सूत्र भी उसने अपने हाथों में रखे हुए हैं। दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून और राष्ट्रपति ट्रम्प अभी तो उसके ढोल की थाप पर नाच रहे हैं।
देखना यह है कि उत्तरी कोरिया क्या अपने आप को एक परमाणु शक्ति के रूप में मान्यता दिलवाकर फिर अमेरिका की शर्तों को स्वीकार करता है? यदि ऐसा होगा तो अमेरिका और विश्व के पल्ले में कुछ नहीं होगा। इन सब के बीच जापान ने बड़ी सावधानीपूर्वक अपनी प्रतिक्रिया दी क्योकि उसके अनुसार उत्तरी कोरिया ने आज तक कोई वादा नहीं निभाया है अतः उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
उत्तरी कोरिया की सबसे कम रेंज की मिसाईल भी जापान पर गिराई जा सकती है अतः जापान को तो हर हाल में सचेत रहना है। इन महाशक्तियों के अपने अलग अलग स्वार्थ हैं किन्तु शेष विश्व जो परमाणु युद्ध के आसन्न खतरों से डरा हुआ था वह जरूर राहत की साँस लेगा। हम तो इस प्रकरण के शांतिपूर्ण निपटारे की कामना करते हैं।