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चीन से दुनिया की नफरत, भारत में जगी नई हसरत

चीन से दुनिया की नफरत, भारत में जगी नई हसरत - india and china
चीन की नीयत में कब खोट नहीं थी वह तो हमारी उदारता थी जो बार-बार दोस्ती का हाथ बढ़ाया। कभी हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा दिया तो कभी पलक पांवड़े बिठा उसे झूला तक झुलाया। लेकिन उस चीन से क्या उम्मीदें की जा सकती हैं जिसने समूची दुनिया को वुहान के रास्ते मौत के मुहान तक पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

दुनिया पर अपने व्यापार का सिक्का जमाने की अंधी होड़ से अब उसकी नीयत दुनिया का थानेदार बनने की भी झलकने लगी है। इसी कारण वह पिद्दी सा नेपाल जो भारत का सबसे करीबी दोस्त, हमदर्द और सुख-दुख का साथी बनता था एकाएक आंखें दिखाने लगा।

जब तमाम दुनिया का ध्यान वुहान लैब की करतूत, इंसानी हाथों बने वायरस की तोड़ और इससे मौत के सच का सामना कर रही है तब चीन अपने चंद टुकड़ों के जरिए बुरी तरह से गरीबी झेल रहे उस छोटे से देश से भारत को आंखे दिखवा रहा है जो बस एक हुंकार भर का है। भारत के खिलाफ चीन की चाल को थोड़ा समझना होगा, जिसने हमेशा पाकिस्तान को भारत के खिलाफ इस्तेमाल किया। चीनी वायरस के चलते पाकिस्तान की पहले ही लगभग दीवालिया हो चुकी अर्थव्यवस्था बुरी तरह से बदहाली के कगार पर जा पहुंची है।

ऐसे में चीन के लिए भारत के खिलाफ पाकिस्तान को मदद देकर अहसानों की झोली से दबा देने की उदारता भविष्य की उसकी बदनीयती के शानदार मौके से कम नहीं है। अलबत्ता नेपाल जैसे देश की हालिया करतूतों ने न केवल हमारी बल्कि समूची दुनिया की आंखें भी खोल दी और एक संदेश भी जरूर दे दिया कि कोविड-19 के साथ, छद्म युध्द बल्कि कह सकते हैं कि तीसरे विश्व युध्द की विभीषिका की चीनी नीयत से इंकार नहीं किया जा सकता।

हालांकि यह भी सच है कि कोरोना की आड़ में चीन ने पहले ही अघोषित बॉयोलॉजिकल वर्ल्ड वार छेड़ रखा है जिसमें लाखों जिन्दगियां जा चुकी हैं तथा मौतों की रफ्तार का सिलसिला 6-7 महीने के बाद भी थम नहीं रहा है। यह जैविक युध्द साल के अंत तक बल्कि आगे भी चल सकता है। इस लंबी चलने वाली चीनी महामारी बनाम अघोषित तीसरे विश्व युध्द का अंजाम समूची दुनिया देख रही है जो अपने लोगों की जान बचाने के चक्कर में समझकर भी अंजान है। हां चीन को उसकी करतूतों के चलते जहां सारी दुनिया नफरत की निगाहों से देखने लगी है वहीं यह तो समझ आने लगा है कि ऐसी अनदेखी अब आगे नहीं चल पाएगी। बहरहाल चीन की नीयत और चाल दोनों को समझना जरूरी है। बस यहीं से शुरू होता है चीन के लालच और हवस का एक नया अंतहीन सिलसिला जिसको रोकने के लिए दुनिया की महाशक्तियां निश्चित रूप से न केवल जाग गईं हैं बल्कि चीनी हथकण्डों सरीखे तरीकों से अलग फॉर्मेट में जवाब देने की तैयारियों में भी हैं।

2008 में आई अभूतपूर्व वैश्विक मंदी का असर अभी भी दिखता है बल्कि कहें कि और विकराल हो गया है तो गलत नहीं होगा। यह भी समझना होगा कि कोविड 19 से उबरने के बाद चीन और अमेरिका के बीच ट्रेड वार तय है जिसमें भारत की भूमिका खास होगी। इसके अलावा 5जी, सोलर तकनीक का विस्तार व पहुंच, तेल उत्पादों के मूल्य नियंत्रण, पर्यावरण सुधार, कार्बन उत्सर्जन की नई पॉलिसी के साथ सबकी निगाहें दक्षिण कोरिया, अफ्रीका, एशिया, लातिन अमेरिकी देशों पर भी होंगी जो अपनी निर्भरता अमेरिका और चीन दोनों पर ही कम करेंगे। बस यहीं से भारत के लिए नए रास्ते खुलेंगे।

यह मौका भारत के लिए निश्चित रूप से धाक और साख दोनों बढ़ाने का होगा। अमेरिका में यदि समय पर चुनाव हो जाते हैं तो काफी कुछ वहां की लीडरशिप पर भी निर्भर होगा और यदि ट्रम्प फिर चुने जाते हैं तो भी उनकी तुनक मिजाजी, मुंहफट्ट बयान, ट्वीट वार भारत के गंभीर, सौम्य और समझदारी पूर्ण बयानों के आगे बौने होंगे। निश्चित रूप से दुनिया के तरक्कीशुदा मुल्कों के मुकाबले भारत का संभावित सस्ता प्रोडक्शन व लेबर कास्ट, क्वालिटी मैटेरियल जो चीन के मुकाबले बहुत ज्यादा टिकाऊ और भरोसेमन्द हो वो बेहतरीन प्रॉडक्ट देते हैं जो दुनिया भर में पहले से ही अपनी अलग व खास पहचान रखते हैं।

जाहिर है चीन को यह सब समझ आ रहा है। हो सकता है कि उसको भीतर ही भीतर यह डर भी सताने लगा हो। इसीलिए अपनी नीयत और दुनिया की हालत के हालात से डरे, सहमें चीन ने नेपाल का इस्तेमाल कर महामारी के बीच ध्यान भटकाने और अपनी दादागीरी दिखाने की कुटिल चाल भी चल दी हो। लेकिन चीन से ज्यादा नेपाल भारत की हैसियत समझता है। फिर भी बीते बरस भारत ने नेपाल को पेट्रोलियम प्रॉडक्ट्स की सप्लाई के लिए एक पाईपलाईन दी जो करीब 324 करोड का प्रोजेक्ट था ताकि नेपाल को पेट्रोल, डीजल, केरोसिन सस्ती कीमत में मिले।

लेकिन उसी दिन नेपाल में इस पाईपलाईन से ज्यादा चीन के द्वारा एक अस्पातल को दिए गए 25 हजार टेंट की चर्चा होती रही जो बताती है कि नेपाल का रुख किस ओर है। दुनिया भर को पता है कि भारत, नेपाल का रिश्ता बेटी और रोटी का है। लेकिन इसमें भी दूरी दिखने लगी है। जहां नेपाल में चीनी भाषा मेण्डरिन सिखाने का खर्चा चीन उठा रहा है जिससे  नेपालियों को चीन में रोजगार की ज्यादा संभावनाएं दिखने लगीं। ऐसे तमाम कारण हैं जिनके चलते नेपाल भारत से ऐतिहासिक रिश्तों के बावजूद चीन की कठपुतली बन एक नई जंग के लिए आंखें दिखा रहा है। बीते दो हफ्तों में चीन ने गलवान घाटी में अपनी मौजूदगी मजबूत कर करीब 100 टेंट लगा दिए हैं और बंकर्स बनाने के लिए मशीनें ला रहा है।

कुल मिलाकर चीन की नीयत साफ दिखने लगी है। 2017 में भी डोकलाम में 73 दिनों तक टकराव चला था तब भी परमाणु संपन्न 2 देशों के बीच युद्ध की आशंका बनी थी। चीन के इशारे पर ही नेपाल ने कुटिलता दिखाई इसी 20 मई को भारत के कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधूरा समेत 372 वर्ग किमी. क्षेत्र को अपना हिस्सा बताते हुए नया नक्शा जारी कर इसे राजनीतिक और प्रशासनिक रुप से संवैधानिक मान्यता देकर एक तरह से चीन की शह पर खुली चुनौती दे ही दी। इसी 8 मई को लिपुलेख तक जाने वाली सड़क के भारत द्वारा उद्घाटन करने के बाद से यह विवाद गरमाया हुआ है। वहीं नेपाल के विकास पर आज भी चीन लगातार कई वर्षों से 6 करोड़ डॉलर हर साल खर्च कर रहा है तथा हजारों नेपाली विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति और दर्जनों छोटी-बड़ी परियोजनाओं में सहायता पहुंचा रहा है। जाहिर है नेपाल, चीन के अहसान के बोझ तले बुरी तरह से दब चुका है।

चीन को चुनौती देने खातिर भारत को तत्काल अपने श्रम कानूनों, एक्जिट पॉलिसी, लाइसेंस प्रक्रिया और उद्योगों में बचे, खुचे इंसपेक्टर राज को पूरी तरह से सुधारना होगा। साथ ही यह भी याद रखना होगा कि मालदीव और श्रीलंका भी एक वक्त चीन के करीब हो गए थे क्योंकि उन देशों को दौलत के दम पर उसने आकर्षित किया था। हालांकि अब दोनों का रुख बदला हुआ है। ध्यान रखना होगा कि श्रीलंका ने चीन को हम्बन टोटा पोर्ट जिन हालातों में दिया वैसे दोबारा न बनें ताकि हिन्द महासागर के करीब चीन को गतिविधियां बढ़ाने का मौका न मिले। हालाकि अब श्रीलंका का झुकाव फिर से भारत की ओर है और वक्त का तकाजा भी है कि सभी पड़ोसियों से भारत संबंध को और भी मजबूत करे। बीते जून में वहां के तत्कालीन राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरीसेना न केवल भारत आए बल्कि 2 वर्षों की लगातार मेहनत से तैयार समाधिस्थ बुध्द प्रतिमा देकर अपना रुख भी जताया। वहीं नए राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे बीते साल चुने जाने के बाद पहली सरकारी यात्रा भारत में कर बड़ा संकेत दिया।

चीन के कोरोना की आड़ में रचे छद्म युध्द से बहुत ही चतुराई और कूटनीति से लड़, भारत को दुनिया में आर्थिक, सामरिक, व्यापारिक महाशक्ति बनने के लिए एक-एक कदम फूंक-फूंककर रखना होगा और रुस, अमेरिका, फ्रान्स जैसे यूरोपियन देश, जापान, ब्राजील, दक्षिण कोरिया, अरब मुल्कों के साथ दोस्ती और व्यापारिक संबंधों को बढ़ाना होगा ताकि दुनिया की महाशक्ति बनने में चीन की कुटिलता का उसी की भाषा में जवाब दिया जा सके जिससे भारत बुध्द के संदेश के रास्ते शांति और व्यापार के मौके फैला दुनिया को सुखी और समृध्द मानवता को नई राह दिखा सके।

नोट: इस लेख में व्‍यक्‍त व‍िचार लेखक की न‍िजी अभिव्‍यक्‍त‍ि है। वेबदुन‍िया का इससे कोई संबंध नहीं है।