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हाथरस से बलरामपुर तक : टूट गई है व्यवस्था की 'कमर'

हाथरस से बलरामपुर तक  : टूट गई है व्यवस्था की 'कमर' - Hathras gang rape case
हाथरस में आधी रात को जली कन्या की चिता की राख में चिंगारी सुलग ही रही थी कि एक और वहशियाना वारदात बलरामपुर में हुई, बलरामपुर की डिटेल्स मिल भी न सकी थी कि भोपाल, फिर होलागढ़, बुलंदशहर, खरगोन, अजमेर, अलवर की खबरें तैरती हुई आ गई.... सब आपस में मिल गई... 
 
देश की अस्मिता के साथ यह कैसा तमाशा है... अस्मत लूटी जा रही है, जुबान काटी जा रही है, कमर तोड़ी जा रही है, गर्दन दबाई जा रही है, गला घोंटा जा रहा है... खत्म ही कर दिया जा रहा है, जला दिया जा रहा है.... 
 
नहीं, हाथरस में लड़की नहीं जली है देश की अस्मिता जली है, बलरामपुर में लड़की की कमर नहीं तोड़ी गई है देश की प्रशासनिक व्यवस्था की कमर टूट गई है, बुलंदशहर में लड़की की गर्दन नहीं बल्कि दबाई गई है सुरक्षा की गर्दन, दम घोंटा गया है सम्मान का...खत्म किया जा रहा है आधी आबादी को यूं नोंच-खसोट कर...और हम तमाशबीन बने हैं...हमेशा की तरह  
Justice delayed is justice denied 
 
निर्भया ने दोषियों को फांसी देने में इतनी अड़चनें आई, इतने झोल आए, इतनी देर हुई कि वह फैसला भी महिलाओं के प्रति अपराध में कमी नहीं ला सका, विकृत मानसिकता वाले युवाओं में डर नहीं बैठा सका... हैदराबाद एनकाउंटर पर अपराधियों के पक्ष में इतने मानवाधिकारवादियों की आवाजें निकली कि तत्काल और त्वरित न्याय का वह पहलू भी कटघरे में खड़ा कर दिया गया... अपराधियों के प्रति उपजती इन गलीज सहानुभूतियों ने ही घृणित सोच वाले आदतन अपराधियों के हौसले ही बढ़ाए हैं। 
 
जब तक यह एक बच्ची, एक लड़की, एक स्त्री का नहीं बल्कि देश की हर औरत का दुख, हर औरत की तकलीफ नहीं बन जाती तब तक कोई सुधार नहीं होगा....हमने देखा निर्भया मामले में जब देशव्यापी आवाज उठी तो न्याय मिलकर ही रहा... पर निर्भया से जुड़ी बात फिर वही कि न्याय का सिर्फ होना काफी नहीं है न्याय का तत्काल, तुरंत और त्वरित होना जरूरी है, न्याय का होते हुए दिखना भी जरूरी है.. न्याय महसूस हो, न्याय राहत दे, न्याय ताकत दे, न्याय अपराधियों में खौफ पैदा करे तब जाकर हम सही दिशा पकड़ पाएंगे... 
माहौल का असर 
बदलते परिवेश में चैनल्स पर आ रही नग्नता की बाढ़, गालियों की भरमार और नशे की बहती नदियों के बीच हम अपने घरों में संस्कारों को रोपने में असमर्थ हैं... नैतिकता की पोथियों के पन्ने फट चुके हैं...बुजुर्गों की सीख आश्रमों में सिसक रही है... बेटी, बहन, मां, पत्नी के प्रति सम्मान कहां से आएगा जब सारी फिजाओं में बस एकमात्र लड़की की देह घूम रही है... 
 हम सब दोषी 
सरकार, प्रशासन, पुलिस, समाज, संस्थान और परिवार सब कटघरे में है, सब के सब दोषी हैं, निर्लज्जता और निकृष्टता का आलम यह है कि लगता नहीं कि हम एक सभ्य, सुशिष्ट और सुसंस्कारित देश में रह रहे हैं..... क्या न्याय प्रणाली में कहीं कोई गलियारे नहीं बचे हैं जहां एक स्त्री खुलकर सांस ले सके....अपने लिए सम्मान से सुरक्षा के साथ सांस लेने की आजादी भी उसे नहीं... अपनी छोटी सी नौकरी पर जाते हुए भी अगर वह महफूज नहीं, अपनी झुग्गी के मटमैले आंगन में भी अगर वह दौड़कर ति‍तली न पकड़ सके, अपनी टूटी खाट पर अकेली बैठ न सके...तो इसी वक्त शर्म के चुल्लू भर पानी में डूब कर मर जाना चाहिए हमें...
 
ना उम्र का लिहाज है, न वर्ग, जाति का भेद है बस एक स्त्री है और उसका शरीर है... बॉलीवुड पर हम लानत भेजें लेकिन एक बार टटोलें कि हमारे अपने गिरेबान ‍कितने पाक साफ हैं? उन्हें क्लीन चिट नहीं दे सकते पर यह एक जगह की बात नहीं है अब पूरे देश की अस्मिता का प्रश्न है... हाथरस हो या हैदराबाद, भोपाल हो या बलरामपुर, इंदौर हो या बैंगलोर....कहां किस कोने में नारी की इज्जत सुरक्षित है? नशा, गालियां, उत्पीड़न कहां नहीं हैं?
नहीं चाहिए राजनीति 
किसी भी मामले में राजनीति को दूर रखें, हर स्त्री के न्याय की आवाज को समान स्वर मिले तब ही हमारा लिखना, बोलना और नारे लगाना सार्थक है... वरना तो शहरों की बहुत लंबी सूची है आज हाथरस है कल हरियाणा होगा, आज बलरामपुर है कल रामपुर होगा... कितने सांकेतिक नाम लेकर आएंगे... 
 
कितनी गुड़िया हैं, कितनी निर्भया हैं, कितनी दामिनियां हैं... कानून और व्यवस्था की इसी तरह कमर तोड़ी जाती रही, जुबान काटी जाती रही, गर्दन दबाई जाती रही तो एक दिन आएगा हमें एक ही सांकेतिक नाम के आगे गिनती और शहर का नाम लगाना होगा....  
बस अब बहुत हुआ...
दुष्कर्म का यह दुष्चक्र अब थमना बहुत जरूरी है। सरकार को चाहिए कि नीचे से लेकर ऊपरी स्तर तक ऐसे अभियान चलाए जिनसे महिलाओं में जागरूकता बढ़ने से ज्यादा पुरुषों के विकारों में कमी आए। बहुत जरूरी है कि महिलाओं को सक्षम बनाया जाए पर उससे भी ज्यादा जरूरी है अपराधियों पर नकेल कसना, अपराध से जुड़े हर तत्व चाहे वह नशाखोरी हो, बेकारी-बेरोजगारी या फैलती ‍डिजिटल विकृतियां हर स्तर पर प्रयास बढ़ाने होंगे....बेटियों को बचाना है तो पारिवारिक मूल्यों और संस्कारों को बचाना होगा...