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Last Updated : बुधवार, 1 अक्टूबर 2014 (15:31 IST)

ओम थानवी : सरल हृदय संपादक

ओम थानवी : सरल हृदय संपादक - Om Thanvi, celebrity editor
ओम थानवी 'जनसत्ता' दैनिक के यशस्वी संपादक हैं। वे अच्‍छे लेखक भी हैं। 'अनंतर' स्तंभ में वे अच्‍छे वृत्तांत लिखते हैं। वे सा‍हित्यिक कृतियों का संपादन भी अच्‍छा करते हैं। उनके द्वारा दो खंडों में संपादित 'अपने-अपने अज्ञेय' इस बात का अनुपम उदाहरण है।

कई संस्मरणों को उन्होंने तारतम्यता दी है और प्रामाणिकता के लिए पुष्टि की है। इसलिए इनमें अज्ञेय की एक निखरी हुई छवि तो बनती ही है, शोधार्थियों के लिए भी ये पुस्तक उपयोगी बन पड़ी है। संपादक, लेखक, कवि, पत्रकार अज्ञेय का भी स्वरूप इस पुस्तक से अच्‍छा बन पड़ा है। ओम थानवी से मेरा परिचय तीस बरस से अधिक का है, जब वे जयपुर में रहकर 'इतवारी' पत्रिका का संपादन कर रहे थे। पढ़ाई पूरी कर आठवें दशक के लगते न लगते वे 'राजस्थान पत्रिका' के साप्ताहिक 'इतवारी पत्रिका' में काम करने जयपुर आ गए थे।

छह माह में ही समूह के संस्थापक-संपादक कर्पूरचंद कुलिश ने उन्हें साप्ताहिक इतवारी का जिम्मा सौंप दिया। वे तब केवल 23 वर्ष के ओमप्रकाश थानवी थे। 'इतवारी पत्रिका' के राजनीतिक स्वरूप में भी उन्होंने संस्कृति, साहित्य, कला, रंगमंग, संगीत-नृत्य, दर्शन, शिक्षा आदि की सामग्री दी। साप्ताहिक 'इतवारी' की 20 हजार प्रतियां बिकती थीं राजस्थान में। पर लिखने वाले बाहर के बहुत लोग थे, जैसे राजकिशोर, रमेशचंद्र शाह, बनवारी, पंकज आदि। रघुवीर सहाय, प्रयाग शुक्ल और वागीश कुमार सिंह नियमित स्तंभ लिखते थे। अज्ञेय, निर्मल वर्मा और इला डालमिया भी इसमें लिखती थीं।

ओम थानवी की किताब 'मुअनजोदड़ों' हमारे सामने सभ्यता और संस्कृति के कई महत्वपूर्ण सवाल खड़े करती है- एक तो यही कि जिसे हम 'मोहनजोदड़ो' कहते हैं- वह दरअसल 'मुअनजोदड़ों' है- यानी 'मुर्दों का टीला' है। सिंधु घाटी की सभ्यता की खोज 'मुअनजोदड़ों' से होती है। 'मुअनजोदड़ों' में कभी एक संपन्न नगर बसता था। उसके नीचे एक जीता-जागता शहर सांस लेता था। वहां घर थे, कुएं थे, कुंड थे, खेत थे, कोठर थे, पथ-चौराहे थे, सार्वजनिक स्नानागार थे। ‍नालियां थीं, कच्ची-पक्की ईंटों से बनी दीवारें थीं। ये नगर एक योजनाबद्ध तरीके से बसा था। इस नगर में मूर्तिकार और कलाकार भी रहते थे। सिंधु घाटी का काल और समाज निर्धारण तो हमने कर लिया, लेकिन सिंधु लिपि अब तक हमारे लिए अबूझ बनी हुई है। इस छोटी-सी किताब में, जो केवल 118 पृष्ठों की है, कई महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए हैं। कई विचार-बिंदु लेखक ने विद्वानों के विचार-विमर्श के लिए छोड़ दिए हैं। वे सिंधु घाटी से जुड़े रामविलास शर्मा, वासुदेव शरण अग्रवाल और राहुल सांकृत्यायन के निष्कर्षों को तर्क की कसौटी पर कसते हैं। (मीडिया विमर्श में राजेन्द्र उपाध्याय)