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Written By WD

मीडिया पर हिन्दी पुस्तकों का बाजार बढ़ा

मीडिया पर हिन्दी पुस्तकों का बाजार बढ़ा -
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प्रकाशन की दुनिया में राजकमल प्रकाशन एक अग्रिम पंक्ति का नाम है। इस प्रकाशन समूह के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक अशोक माहेश्वरी ने मीडिया दुनिया के लिए प्रकाशन और मीडिया से जुड़े मुद्दों पर खुलकर चर्चा की। पिछले दशक में हिंदी प्रकाशन और प्रकाशक दोनों ही तेजी से बदले हैं। उन्होंने कहा कि पिछले दशक में हिंदी प्रकाशन और हिंदी प्रकाशक दोनों ही तेजी से बदले हैं। प्रस्तुत है माहेश्वरी से बातचीत के मुख्‍य अंश...

-पिछले एक दशक में ऐसे कौन से बदलाव हैं जो हिंदी प्रकाशकों के लिए महत्वपूर्ण रहे हैं?
*पिछले दशक में हिंदी प्रकाशन और हिंदी प्रकाशक दोनों ही तेजी से बदले हैं। उनका सौन्दर्यबोध विकसित हुआ है। पुस्तकों की गुणवत्ता देखने और पढ़ने में गुणात्मक रूप से बढ़ी है। विषयों में विविधता आई है। प्रकाशकों ने पाठक को ध्यान में रखते हुए पुस्तकों का प्रकाशन शुरू किया है। प्रकाशकों ने जो पहले पेपरबैक पुस्तकें नहीं छापते थे, पुस्तकों के पेपरबैक संस्करण निकाले हैं।

राजकमल प्रकाशन की मीडिया संबंधी पुस्तकों की सूची

पुस्तक मेले और साहित्योत्सव जगह-जगह होने लगे हैं। इससे प्रकाशकों, लेखकों और पाठकों के बीच सीधा संवाद अधिक हुआ है। इससे तीनों की आपस में समझदारी विकसित हुई है। यह समय हर क्षेत्र में प्रतियोगी है। प्रकाशन के क्षेत्र में भी प्रतियोगिता तेजी से बढ़ी है। प्रकाशक अपने अपने तरीके से स्वस्थ प्रतियोगिता में लगे हैं। इसका प्रभाव पुस्तकों पर सीधे देखा जा सकता है।

-हिंदी मीडिया की किताबों को लेकर बाजार की मांग पर कैसा असर पड़ा है?
*हिंदी में मीडिया विषयक पुस्तकें पहले से अधिक लिखी और प्रकाशित हो रही हैं। इनका बाज़ार बढ़ा है। विभिन्न विश्वविद्यालयों और संस्थानों ने जनसंचार माध्यमों (मीडिया) को अपने पाठ्यक्रम में शामिल किया है। कई संस्थान तो ऐसे खुले हैं जिनमें केवल जनसंचार माध्यमों की ही पढ़ाई होती है। इन सबके चलते मीडिया विषयक पुस्तकों के बाज़ार में विस्तार हुआ है। हमारे दैनंदिन जीवन में चाहे वह समाज सापेक्ष हो या राजनीति से प्रभावित मीडिया का हस्तक्षेप बढ़ा है। इसी के चलते आम जन की मीडिया के प्रति उत्सुकता बढ़ी है। हाल ही में हुए संसदीय चुनाव में मीडिया के बड़े हस्तक्षेप को बहुत आसानी से लक्षित किया जा सकता है।

-देश के प्रतिष्ठित जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल से लेकर अंतरराष्ट्रीय मेले तक सब जगह हिंदी की किताबों की धूम है, लेकिन इसका लेखक और प्रकाशक के रिश्तों पर क्या असर पड़ा है?
*मेले और साहित्योत्सव लेखकों और पुस्तकों के प्रति उत्सुकता बढ़ाते हैं। लेखकों को सैलिब्रिटी स्टेटस देते हैं। पाठकों को उनकी किताबें देखने और पढ़ने के लिए उत्सुक करते हैं। हमारे यहां अभी लिटरेचर फेस्टिवल का चलन है। इनमें अंग्रेजी पुस्तकों, लेखकों और प्रकाशकों की धूम है। इनको अभी साहित्योत्सव बनना है। इनके साहित्योत्सव बनने तक यही रहेगा। साहित्योत्सव बनते ही इनमें हिंदी और भारतीय भाषाओँ की धूम मचेगी। हमारा विश्वाश है। पुस्तक मेले और साहित्योत्सव लेखक, प्रकाशक और पाठकों को नजदीक लाते हैं। आपस में मिलने का शुभ अवसर यहाँ खुलकर मिलता है।

पिछले दिनों हमने देखा एक पुस्तक के प्रकाशन को ही उत्सव या कहें की उत्सवों में कैसे बदला जा सकता है, यह काम सुश्री विमला मेहरा और सुश्री वर्तिका नंदा ने किया। इनकी संपादित पुस्तक ‘तिनका तिनका तिहाड़’ हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओँ में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक का प्रकाशन अनेक उत्सवों में तब्दील हो गया। पुस्तक में, जेल में बंद चार स्त्रियों की कविताए हैं। इन कवियों ने इनमें अपनी संवदेनाओं को व्यक्त किया है। इस पुस्तक में इन्हीं कवियों के जेल जीवन के फोटोग्राफ्स भी शामिल हैं। पुस्तक की प्रस्तुति अभिनीत ने की है जो देखने योग्य है। हाथ में लिए बिना इस पुस्तक और इसका विचार समझा ही नहीं जा सकता।

पहले यह पुस्तक देशभर के पुलिसकर्मियों के एक बड़े आयोजन में गृहमंत्री द्वारा विज्ञान भवन में आयोजित एक आयोजन में जारी की गई। फिर इस पुस्तक की कविताओं का गायन और मंचन हैबिटेट सेंटर में एक रंगारंग कार्यक्रम में किया गया। इसमें सभी प्रस्तुतियां तिहाड़ के कैदियों द्वारा की गईं। शायद विश्वभर में ऐसा पहली बार हुआ। यह एक अनूठा आयोजन था। विश्व पुस्तक मेलों में भी इस पुस्तक को केंद्र में रखकर एक बड़ा आयोजन किया गया। इस पुस्तक पर केन्द्रित यह आयोजन संपादकों का पुस्तक और पुस्तक के विचार के प्रति लगाव और समपर्ण का ही द्योतक है।
ज्ञातव्य है कि ‘तिनका तिनका तिहाड़।’ की एक संपादक सुश्री विमला मेहरा तिहाड़ जेल की अधीक्षक हैं। कैदियों की भलाई के लिए वह कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार रहती हैं। इस पुस्तक के माध्यम से भी उन्होंने यही किया। कहने की बात नहीं है कि सुश्री वर्तिका नंदा के स्त्रियों के लिए वैचारिक समर्पण और सहयोग के बिना यह सब संभव नहीं था। विमला जी और वर्तिका जी ने इस पुस्तक की कविताओं के अंश जेल की बाहरी दीवारों पर भी लिखवा दिए ताकि जेल के आसपास से गुजरने वाले भी इनसे प्रेरणा ले सकें।

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वर्तिका जी ने अपनी कविता पुस्तक ‘थी..हूँ..रहूंगी’ के साथ भी ऐसा ही किया। उन्होंने इस पुस्तक के लिए थीम सांग (Theme song) तैयार किया। इसकी संगीतमय प्रस्तुति ऑडियो, वीडियो रूप में तैयार की और इसे जगह-जगह विभिन्न कार्यक्रमों में दिखाया। यह सब कहने का तात्पर्य है कि यदि हम सभी लेखक और प्रकाशक अपनी पुस्तक से इतना प्यार करें तो कोई कारण नहीं है कि हमारी पुस्तकें, हिंदी की पुस्तकें, हर किसी के हाथ में न आएं।

-मीडिया में मौजूदा लेखन पर आपकी टिप्पणी?
*हिंदी में मीडिया पर गंभीर विमर्शात्मक लेखन कम हुआ है। पुस्तकें तेजी से लिखी और प्रकाशित हो रही हैं। कुछ लोग अच्छा काम कर रहे हैं। इधर आई पुस्तकों में दिलीप मंडल का काम महत्वपूर्ण है। पिछले दिनों सुश्री वर्तिका नंदा की अपराध पत्रकारिता पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित हुई। मुकेश कुमार और श्याम कश्यप भी एक अच्छी पुस्तक श्रृंखला तैयार कर रहे हैं। मीडिया के सर्वव्यापी विस्तार को देखते हुए हिंदी में इस विषय की पुस्तकों की भारी जरूरत है। मीडियाकर्मियों की अपनी व्यस्तताएं हैं। उन्हें लिखने से ज्यादा दिखना होता है।

-ई-बुक्स का क्या असर पड़ेगा?
*हिंदी में फ़िलहाल ई-बुक्स का कोई बुरा असर पड़ता नज़र नहीं आता। अभी तो ई-बुक्स हिंदी में एक नया बाज़ार है। जो लोग स्थानाभाव या अन्य किसी भी कारण से पुस्तकें रख नहीं पाते या साथ लेकर चल नहीं पाते वे ई-बुक्स के माध्यम से इन्हें पढ़ रहे हैं। ऑडियो बुक्स भी शुरू हो चुकी हैं। यह उन लोगों की मदद करेंगी जो पुस्तकें पढ़ने के लिए समय नहीं निकाल पाते। चलते-चलते सफ़र में पुस्तकें सुनकर वे पुस्तकों का आनंद ले सकेंगे। हिंदी में अभी ‘किताब’ को इन सबसे कोई खतरा नहीं है। पुस्तकों के पाठक बढ़े हैं। उनकी रुचि में विस्तार हुआ है और खरीदने की क्षमता में भी।

-मीडिया की किताबों का भविष्य कैसा है?
*इस प्रश्न पर हम ऊपर विचार कर चुके हैं। फिर दोहराना चाहूंगा कि मीडिया की किताबों की आवश्यकता बहुत है। जरूरत व्यवस्थित योजना बनाकर पुस्तकें लिखने और प्रकाशित करने की है।