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Written By WD

गंगा बहती हो क्यों..?

-ओमप्रकाश दास

गंगा बहती हो क्यों..? -
नदियां और सभ्यता संस्कृति के बीच संबंधों को लेकर सबने कुछ न कुछ जरूर पढ़ा-सुना होगा। स्कूलों में तो भूगोल कि किताबों में बार-बार गंगा का मैदान पढ़ने को मिला था और पटना का होने के नाते मैं थोड़ा बहुत समझ भी पाता था। उत्तर बिहार में तो नदियों का जाल उसकी मिट्टी से बनते मैदान तो अनुभव को हर साल सींचते रहे थे। लेकिन जब गंगा को लेकर पिछले 5 सालों में ख़ासकर जब गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी (2009) बनी तो राष्ट्रीय स्तर पर कुछ-कुछ फोकस बनने लगा था, इस बीच कई आंदोलन भी सामने आए।
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वैसे तो राजीव गांधी ने गंगा एक्शन प्लान ने 20 हज़ार करोड़ खर्च करके भी गंगा को निर्मल तो क्या अविरल तक न बना पाए। ऐसी नदी जो कुल मिलाकर 50 करोड़ लोगों को सीधे प्रभावित करती हो और बाकी के 50 करोड़ लोगों को आध्यात्मिक स्तर पर भिगोती हो, उसकी हालत दिन-ब-दिन ख़राब होना धीमे-धीमे मुद्दे को ज्वलंत बनाता गया।

गंगोत्री से लेकर गंगा सागर तक गंगा में हर 500 किलोमीटर पर समस्याओं का रूप बदल जाता है, तो समाधान भी तो बदलेगें ही। अगर गंगा पथ पर यात्रा करें तो साफ पता चलता है कि कानपुर तक आते आते गंगा का 90 फीसदी पानी, टिहरी बांध, भीमगौड़ा बराज, नरौरा का बराज जैसे अवरोधों के कारण बंट जाता है। कानपुर में अगर गंगा का पानी काला दिखता है तो इसका यही कारण है कि यहां तक गंगा का पानी नहीं बल्कि शहरों-कारखानों का पानी आपको दिखता है। बाकी की 10 फीसदी गंगा जैसे तैसे आगे बढ़ती सहायक नदियों के पानी से जीवन पाती बनारस पहुंचते-पहुंचते हांफने लगती है।

मैंने बिहार में गंगा के सफर में देखा कि हांफती नदी मां गंगा सरकने लगती है। जिसे थोड़ा जीवन तब मिलता है जब गंडक, सोन और पुनपुन जैसी नदियां गंगा में समाहित हो जाती हैं। तथ्य ये है कि गंगा और उसकी सहायक नदियां दुनिया के सारी नदियों के मुकाबले सबसे ज्यादा गाद यानी सिल्ट अपने साथ हिमालय के लेकर मैदानों में जमा करती हैं, लगभग 4 फीसदी। पूरी दुनिया की नदियों के मुकाबले 4 फीसदी का आंकड़ा काफी ज्यादा है। ये आंकड़ा बढ़ेगा, क्योंकि हिमालय में मिट्टी को जकड़कर रखने की क्षमता कम हो रही है, मनुष्य की जरूरतों के कारण पेड़ों की कटाई हो या हिमालय में लगातार होती भूगर्भीय हलचल। हिमालय के कई हिस्से अभी भी निर्माण के दौर से गुज़र रहे हैं। हालांकि बिहार में जानकार कहते हैं कि गाद तो गंगा हज़ारों सालों से ढो रही है, लेकिन गंगा में पानी की कमी उस गाद को आगे बंगाल की खाड़ी तक नहीं पहुंचा पाती।
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पटना जैसे महानगर में गंगा किनारों से 4 किमी तक दूर हो गई है, मुख्यधारा के दर्शन करने के लिए तो और ज्यादा सफर करना होगा। पटना से आगे बढ़ते ही गंगा के शोषण का नायाब रुप दिखता है, सैकड़ों की संख्या में ईंट भट्टे जिनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। स्थानीय लोग बताते हैं कि ये एक बड़ी मिलीभगत का फल है, क्योंकि सूखते गंगा के पानी और मिट्टी का बेधड़क इस्तेमाल बीमारी बढ़ा रहा है। लेकिन इस सूखती नदी के जरा आर्थिक पहलू पर नज़र डालिए। मछुआरे दिन-ब-दिन बदहाली की ओर जा रहे हैं। क्योंकि पानी कम तो मछली कम, प्रदूषण ज्यादा तो मछलियों की प्रजातियां कम।

पटना के डॉल्फिन मैन कहे जाने वाले प्रो. आरके सिन्हा बताते हैं कि मछलियों की प्रजाति तो 50 फीसदी तक कम हो चुकी है। भागलपुर और कहलगांव के मछुआरों ने मुझे बताया कि 20 साल पहले जितनी मछलियां दो-तीन घंटों में पकड़ में आ जाया करती थीं वो अब दिन भर में भी नहीं मिल पातीं। समस्या सिर्फ इतनी नहीं, अब रोज़ी रोटी के दबाव ने छोटी या नवजात मछलियों को पकड़ने पर मजबूर कर दिया है, यानी जब मछली बड़ी होगी ही नहीं तो मिलेगी कैसे। भागलपुर के एक मछुआरे राजा सैनी कहते हैं कि उनके इलाके वाले कई लोग अब गुजरात, राजस्थान, दिल्ली और पंजाब में मज़दूरी के लिए चले गए हैं।

राजा कहते हैं कि वो भी छोटी मछलियों को मारकर ही ज़िंदा हैं, लेकिन, बिहार में मोकामा और उससे पहले से ही जानकार-विशेषज्ञ सिल्ट यानी गाद की समस्या के लिए पश्चिम बंगाल के फरक्का बराज पर निशाना साधने लगते हैं। कहा जाता है कि 1971 में बने इस बराज ने अकेले ही गाद को आगे बढ़ने पर रोक दिया है, इस बढ़ती गाद ने सिर्फ नदी की गहराई ही नहीं कम की बल्कि इसने गंगा की तलहटी पर पैदा होने वाले उस शैवाल को भी ढंक दिया जो प्रकाश-संशलेषण के कारण गंगा को ऑक्सीज़न मुहैया कराती थी तो गंगा की क्षमता से ज्यादा प्रदूषण बैक्टीरियोफाज नामक सफाई के लिए ज़िम्मेदार बैक्टीरिया की क्षमता को ख़त्म कर रहा है। नतीजा यह हुआ की गंगा जो ख़ुद को साफ करती थी, उस आत्मशुद्धि की क्षमता ख़त्म हो रही है।

बंगाल में तो विनाश की अलग ही लीला है... पढ़ें अगले पेज पर....


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बिहार के बाद जैसे ही मैंने बंगाल में प्रवेश किया तो विनाश की एक अलग ही लीला दिखाई दी। मालदा के माणिकचक, पंचानंदपुर में भूगोल पिछले 20 सालों में इतना बदला है, जितना पिछले सैकड़ों सालों में भी नहीं हुआ होगा। दर्जनों गांव गंगा की कटान में समा चुके हैं। कारण क्या था, कारण वही गाद थी, जिसे फरक्का बराज आगे बढ़ने नहीं देती। नतीजा, नदी की गहराई कम होती जा रही है और वो किनारों का अतिक्रमण कर गांवों को लीलती जा रही है। ये लीला जारी है, लेकिन उपाय नहीं है।

डराने वाली बात ये है कि गंगा में उल्टी बाढ़ आ जाने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। जो बिहार और बंगाल में नदी की सुनामी ला सकती है, इसका एक उदाहरण हम 2008 के कोसी के बाढ़ में देख चुके हैं, जहां पानी को बहने के लिए रास्ता ही नहीं मिला। ये साफ है कि यह स्थिति एक जल-प्रलय इंतज़ार कर रही है।
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फरक्का बराज के दोनों ओर विशाल जल राशि आपको एक स्वस्थ नदी का आभास देगी, लेकिन इस जल राशि का एक बड़ा भाग पद्मा के रूप में बांग्लादेश की ओर जाता है हमारे पास एक धारा रह जाती है, जो लगभग 40 हजार क्यूसेक पानी आगे जाकर हुगली नदी में मिलती है और गंगा हुगली के रूप में आगे पहुंचती है कोलकाता, लेकिन गंगोत्री से कोलकाता के इस सफर में गंगा, 50 से ज्यादा छोटे बड़े शहरों का ज़हरीला रसायन ज़मीन में छोड़ती जाती है।

आर्सेनिक एक ऐसा ही पदार्थ है, जो गंगा से रिस-रिसकर भूगर्भीय जल में मिलता जा रहा है। मुर्शिदाबाद के 90 फीसदी इलाके इस आर्सेनिक की मार झेलने को मजबूर हैं, मैं ऐसे ही एक गांव में गया, मेहंदीपाड़ा। इस गांव में हर घर में आर्सेनिक का कहर दिखता है, मैं 11 सदस्यों वाले एक घर में गया जहां 9 सदस्य अर्सेनिकजनित किसी न किसी बीमारी से जूझ रहे हैं। किसी की लिवर में समस्या है तो किसी को भयानक चर्म रोग। जीवनदायनी गंगा का ये रूप चौंकाने के लिए काफी था।

गंगा आगे बढ़ते-बढ़ते जब कोलकाता पहुंचती है तो वही पुरानी कहानी शहरों का प्रदूषण फिर से उसे अपने आगोश में ले लेता है। नाले नहरों की शक्ल में गंगा मिलन करते कई जगहों पर दिख जाएंगे। कुछ समाजशास्त्री कहते हैं कि कोलकाता वाले गंगा/हुगली के प्रदूषण को लेकर ज्यादा चिंतित नहीं होते क्योंकि उन्हें लगता है कि अब गंगा को तो समुंदर में ही जाना है, लेकिन हुगली में प्रवाह दिखता है, दावा है कि फरक्का बराज के बाद जो फीडर नहर हुगली को सींचती है वो इतना पानी लाती है कि डायमंड हार्बर पर से गाद यानी समुद्री सिल्ट तो धकेल देती है। लेकिन विशेषज्ञ इस दावे को कोरा बकवास बताते हैं।

उनका मानना है कि गंगा में इतना पानी है ही नहीं, क्योंकि 40 की जगह गंगा में अब सिर्फ 20 से 22 हजार क्यूसेक पानी ही डायमंड हार्बर तक पहुंच पाता है। यानी फरक्का का बनना व्यर्थ हो गया, हालांकि इसका अभी वैज्ञानिक अध्ययन होना बाकि है। लेकिन, कोलकाता में एक अलग पहल ने मेरा ध्यान खींचा।

क्या कहते हैं रिवर क्रूज चलाने वाले व्यवसायी... पढ़ें अगले पेज पर...


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राजस्थान के एक व्यवसायी गंगा में 2009 से ‘रिवर क्रूज़’ चला रहे हैं, कोलकाता से बनारस तक। उनका रिवर क्रूज़ करीब करीब पांच सितारा होटल ही था। लेकिन अभी तक इसके सवार सिर्फ यूरोपीय पर्यटक ही थे। जो 9 से 10 दिनों में कोलकाता से बनारस और बनारस से फिर दूसरा पर्यटकों का दल कोलकाता आता था, इस सफर के दौरान किनारों पर लगने वाले शहरों की सैर भी शामिल थी।

मैंने बिहार में नदी की कम गहराई की बात पूछी तो क्रूज़ के मालिक विष्णु शर्मा ने बताया कि इसमें हमारी मदद इनलैंड वाटर अथ़ॉरिटी कर रही है जो पहले पानी की गहराई का सर्वे करती है और इससे हमारा सफर आसान हो जाता है, लेकिन कई बार इतना बड़ा जहाज़ गंगा के बालू में फंसता रहता है। यहीं पता चला कि ब्रह्मपुत्र में तो ऐसे क्रूज पहले से ही चल रहे हैं। लगा कि गंगा एक नए रूप में हमारे सामने मौजूद है, जिसमें एक बिज़नेस मॉडल भी छिपा है। ऐसे और मॉडल हो सकते हैं, बिना उसकी आत्मा के साथ छेड़छाड़ किए।
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बहरहाल, मैं कोलकाता के बाद करीब 100 किमी के सफर के बाद पहुंचा काकद्वीप। काकद्वीप यानी मुख्यभूमि का आख़री सिरा। यहां से करीब 40-45 मिनट का सफर स्टीमर के ज़रिए करना होगा जो आपको ले जाएगा सागर द्वीप पर। ये समुंद्र में ही सफर करने के बराबर था। मैं अब जा पहुंचा सागर द्वीप जहां से फिर 40 किमी का सफर आपको उस बिंदु पर पहुंचाएगा जहां पर है बंगाल की खाड़ी और हिंदुओं का महान तीर्थ गंगा सागर।

गंगा सागर के बारे में कहते हैं कि सारे तीर्थ बार बार, गंगा सागर एक बार। और सच में यहां पहुंचने का दुष्कर सफर एक बार से ज्यादा इजाज़त शायद देता भी न। हम गंगा सागर के जिस भूभाग पर खड़े थे, वहां से करीब 5 किमी आगे समंदर में कपिल मुनि के तीन मंदिर थे, जो पिछले 100 सालों में सागर में समा चुके थे यानी समंदर सागर द्वीप को काट रही है वो भी तेज़ी से। हालांकि कपिल मुनि का नया मंदिर बन रहा है, लेकिन स्थानीय लोग मानते हैं कि 2 लाख की आबादी वाला ये सागर द्वीप एक दिन अपना अस्तित्व बचा नहीं पाएगा। लेकिन समुद्री गाद से बना ये द्वीप जा कहां रहा है, जवाब तुरंत ही मिला, सैकड़ों डेल्टाओं का समूह सुंदरवन बन बिगड़ रहा है, गंगा सागर में अगर कटान हो रहा है, तो नए डेल्टा उभर भी रहे हैं।

गंगा की यात्रा यहां समाप्त होती है, लेकिन वो उन सवालों को एक बार फिर सामने रखती है, जो मालदा से लेकर टिहरी तक पूछे जाते रहे हैं। विशाल जलराशि आपको अहसास नहीं होने देता कि अंदर क्या चल रहा है।

इस लेख को साझा किया है, ओम प्रकाश दास ने। आईआईएससी, दिल्ली के छात्र रहे ओमप्रकाश, मनजीत ठाकुर और रोहण सिंह ने दूरदर्शन के लिए गंगा के ताजा हाल पर खूब मन लगाकर काम किया और एक शोधपरक फिल्म तैयार की। -वर्तिका नन्दा, संपादक, मीडिया दुनिया