धर्म और प्रेम का पर्व मकर संक्रांति
मकर संक्रांति विशेष
बेनीसिंह रघुवंशी भारतीय संस्कृति में मकर संक्रांति आपसी मनमुटाव को तिलांजलि देकर प्रेम बढ़ाने हेतु मनाई जाती है। इस दिन की आने वाली धार्मिक कृतियों के कारण जीवों में प्रेमभाव बढ़ने में और नकारात्मक दृष्टिकोण से सकारात्मक दृष्टिकोण की ओर जाने में सहायता मिलती है। इस निमित्त पाठकों के लिए ग्रंथों से प्राप्त मकर संक्रांति की जानकारी दे रहे हैं।कर्क संक्रांति से मकर संक्रांति तक के काल को दक्षिणायन कहते हैं। सूर्य के दक्षिणायन आरंभ होने को ही ब्रह्मांड की सूर्य नाड़ी कार्यरत होना कहते हैं। ब्रह्मांड की सूर्य नाड़ी कार्यरत होने से सूर्य के दक्षिणायन में ब्रह्मांड में विद्यमान रज-तमात्मक तरंगों की मात्रा अधिक होती है। मकर संक्रांति के दिन सूर्य का उत्तरायन आरंभ होता है। सूर्य के उत्तरायन आरंभ होने को ही ब्रह्मांड की चंद्र नाड़ी कार्यरत होना कहते हैं। ब्रह्मांड की चंद्र नाड़ी कार्यरत हो जाने से सूर्य के उत्तरायन में ब्रह्मांड में विद्यमान रज-सत्तवात्मक तरंगों की मात्रा अधिक होती है।
इस कारण यह काल साधना करने वालों के लिए पोषक होता है। ब्रह्मांड की चंद्र नाड़ी कार्यरत होने से इस काल में वातावरण भी सदा की तुलना में अधिक शीतल होता है। इस काल में तिल भक्षण अधिक लाभदायक होता है। तिल के तेल में सत्व-रिंगें ग्रहण करने की क्षमता अधिक होती है। इसके अतिरिक्त तिल भक्षण से शरीर की चंद्र नाड़ी कार्यरत होती है।इससे जीव वातावरण से तुरंत समन्वय साध सकता है, क्योंकि इस समय ब्रह्मांड की भी चंद्र नाड़ी ही कार्यरत होती है। जीव के शरीर का वातावरण व ब्रह्मांड का वातावरण एक हो जाने से साधना करते समय जीव के सामने किसी भी प्रकार की अड़चन नहीं आती।साधना की दृष्टि से महत्व मकर संक्रांति के दिन सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक वातावरण में अधिक मात्रा में चैतन्य होता है। साधना करने वाले जीव को इसका सर्वाधिक लाभ होता है। इस चैतन्य के कारण जीव में विद्यमान तेज तत्व के बढ़ने में सहायता मिलती है। इस दिन रज-तम की अपेक्षा सात्विकता बढ़ाने एवं उसका लाभ उठाने का प्रत्येक जीव प्रयास करे। मकर संक्रांति का दिन साधना के लिए अनुकूल है। इसलिए इस काल में अधिक से अधिक साधना कर ईश्वर एवं गुरु से चैतन्य प्राप्त करने का प्रयास करें।
(संदर्भ : सनातन संस्था द्वारा प्रकाशित ग्रंथ-त्योहार धार्मिक उत्सव व व्रत)।