भगवान महावीर का अहिंसा दर्शन
महावीर का धर्म प्राणीमात्र के लिए मंगल-
प्रो. महावीर सरन जैन
मोक्ष प्राप्ति के लिए क्या करणीय है- इसकी व्यवस्था अत्यंत स्पष्ट है- 'जो ज्ञानी आत्मा इस लोक में छोटे-बड़े सभी प्राणियों को आत्मतुल्य देखते हैं, षटद्रव्यात्मक इस महान लोक का सूक्ष्मता से निरीक्षण करते हैं तथा अप्रमत्तभाव से संयम में रत रहते हैं, वे ही मोक्ष प्राप्ति के अधिकारी हैं।
इस प्रकार भगवान महावीर का धर्म प्राणीमात्र के लिए उत्कृष्ट मंगल है। उनकी वाणी ने प्राणीमात्र के जीवन में मंगल प्रभात का उदय किया। जो साधक सच्चे मन से धर्माचरण करता है, अपने भीतर की विकृतियों पर विजय प्राप्त कर लेता है, अपने प्रसुप्त दिव्यभाव को जगा लेता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं- 'देवा वि तं नमंसन्ति, जस्स धम्मे सयामणो'। आत्मा का अस्तित्व, प्रत्येक आत्मा की अस्तित्व दृष्टि से स्वतंत्रता तथा आत्मा एवं कर्म का संबंध- इनके संबंध में भगवान महावीर ने इन्द्रभूति तथा अग्निभूति की शंकाओं का समाधान किया। इसकी विवेचना की जा चुकी है। सामान्य जन को भी भगवान ने इन प्रश्नों का उत्तर दिया। आत्मा तथा शरीर एवं मन आदि पुद्गगल की भिन्नता का प्रतिपादन किया।
जब भगवान से यह जिज्ञासा व्यक्त की गई कि आत्मा आंखों से क्यों नहीं दिखाई देती? तथा इस आधार पर आत्मा के अस्तित्व के संबंध में शंका व्यक्त की गई तो भगवान ने उत्तर दिया : '
भवन के सब दरवाजे एवं खिड़कियां बंद करने के बाद भी जब भवन के अंदर संगीत की मधुर ध्वनि होती है, तब आप उसे भवन के बाहर निकलते हुए नहीं देख पाते। आंखों से दिखाई न पड़ने के बावजूद संगीत की मधुर ध्वनि बाहर खड़े श्रोताओं को आच्छादित करती है। संगीत की ध्वनि पौद्गलिक (भौतिक द्रव्य) है। फिर भी आंखों को दिखाई नहीं देती। आंखें अरूपी आत्मा को किस प्रकार देख सकती हैं? अमूर्त्तिक आत्मा को इन्द्रिय दर्शन नहीं होता, अनुभूति होती है।प्रत्येक आत्मा में परम ज्योति समाहित है। प्रत्येक चेतन में परम चेतन समाहित है। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में स्वतंत्र, मुक्त, निर्लेप एवं निर्विकार है। प्रत्येक आत्मा अपने पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकती है। शुद्ध तात्विक दृष्टि से जो परमात्मा है, वही मैं हूं और जो मैं हूं वही परमात्मा है। इस तरह मैं ही अपना उपास्य हूं। अन्य कोई मेरा उपास्य नहीं है :
'य: परमात्मा स एवाऽहं स परमस्तत:।
अहमेव मयोपास्यो, नान्य: कश्चिदिति स्थिति:।।
अपने को सुधारना अपने ही हाथ है। मनुष्य अपने सत्कर्म से उन्नत होता है। भगवान महावीर ने स्पष्ट रूप से प्रत्येक व्यक्ति को मुक्त होने का अधिकार प्रदान किया। मुक्ति दया का दान नहीं है, यह प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है। '
बन्धप्पमोक्खो तुज्झज्झत्थेव (बंधन से मुक्त होना तुम्हारे ही हाथ में है)' सत्कर्म वही है, जो जगत के सभी प्राणियों को सुख और शांति प्रदान करे। जो आत्मा बंध का कर्ता है, वही आत्मा बंधन से मुक्ति प्रदाता है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता है। मनुष्य अपने भाग्य का नियंता है।