जैन धर्म के 24वें और अंतिम तीर्थंककर भगवान महावीर जैन धर्म के संस्थापक नहीं प्रतिपादक थे। उन्होंने श्रमण संघ की परंपरा को एक व्यवस्थित रूप दिया।
भगवान महावीर का जन्म चैत्र शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को 27 मार्च 598 ई.पू. अर्थात 2618 वर्ष पहले वैशाली गणतंत्र के कुंडलपुर के क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ के यहां हुआ। उनकी माता त्रिशला लिच्छवि राजा चेटकी की पुत्र थीं। भगवान महावीर ने सिद्धार्थ-त्रिशला की तीसरी संतान के रूप में चैत्र शुक्ल की तेरस को जन्म लिया।
उनका जन्म नाम वर्धमान है। वर्धमान के बड़े भाई का नाम नंदिवर्धन व बहन का नाम सुदर्शना था। वर्धमान का बचपन राजमहल में बीता। आठ बरस के हुए, तो उन्हें पढ़ाने, शिक्षा देने, धनुष आदि चलाना सिखाने के लिए शिल्प शाला में भेजा गया।
श्वेताम्बर संघ की मान्यता है कि वर्धमान ने यशोदा से विवाह किया था। उनकी बेटी का नाम था अयोज्जा या अनवद्या। जबकि दिगम्बर संघ की मान्यता है कि उनका विवाह हुआ ही नहीं था। वे बाल ब्रह्मचारी थे।
महावीर की उम्र जब 28 वर्ष थी, तब उनके माता-पिता का देहान्त हो गया। बड़े भाई नंदिवर्धन के अनुरोध पर वे दो बरस तक घर पर रहे। बाद में तीस बरस की उम्र में वर्धमान ने श्रमण परंपरा में श्रामणी दीक्षा ले ली। वे 'समण' बन गए। अधिकांश समय वे ध्यान में ही मग्न रहते। इस प्रकार से तीस वर्ष का कुमार काल व्यतीत हो जाने के बाद एक दिन स्वयं ही भगवान् को जाति स्मरण हो जाने से वैराग्य हो गया। भगवान महावीर को उनके 34 जन्म (भव) का ज्ञान था।
एक समय वर्धमान उज्जयिनी नगरी के अतिमुक्तक नामक शमशान में ध्यान में विराजमान थे। उन्हें देखकर महादेव नामक रूद्र ने अपनी उनके धैर्य और तप की परीक्षा लेनी। उसने रात्रि के समय ऐसे अनेक बड़े-बड़े वेतालों का रूप बनाकर भयंकर ध्वनि उत्पन्न किया लेकिन वह भगवान् को ध्यान से नहीं भटका पाया तब अन्त में उसने भगवान् का ‘महति महावीर’ यह नाम रखकर अनेक प्रकार की स्तुति की।
भगवान महावीर ने 12 साल तक मौन तपस्या तथा गहन ध्यान किया। अन्त में उन्हें वैशाख शुक्ल 10 (रविवार 23 अप्रैल ई.पू. 557) को बिहार में जृम्भिका गांव के पास ऋजुकूला नदी-तट (बिहार) पर 'कैवल्य ज्ञान' प्राप्त हुआ। कैवल्य ज्ञान प्राप्त होने के बाद भगवान महावीर ने जनकल्याण के लिए शिक्षा देना शुरू की। अर्धमगधी भाषा में वे प्रवचन करने लगे, क्योंकि उस काल में आम जनता की यही भाषा थी।
भगवान महावीर ने कैवल्य ज्ञान मार्ग को पुष्ट करने हेतु अपने अनुयायियों को चार भागों में विभाजित किया- मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका। प्रथम दो वर्ग गृहत्यागी परिव्राजकों के लिए और अंतिम दो गृहस्थों के लिए। यही उनका चतुर्विध-संघ कहलाया। महावीर के हजारों शिष्य थे जिनमें राजा-महाराजा और अनेकानेक गणमान्य नागरिक थे। लेकिन कुछ प्रमुख शिष्य भी थे जो हमेशा उनके साथ रहते थे। इसके अलावा भी जिन्होंने नायकत्व संभाला उनमें भी प्रमुख रूप से तीन थे।
महावीर का निर्वाण काल विक्रम काल से 470 वर्ष पूर्व, शक काल से 605 वर्ष पूर्व और ईसवी काल से 527 वर्ष पूर्व 72 वर्ष की आयु में कार्तिक कृष्ण (अश्विन) अमावस्या को पावापुरी (बिहार) में हुआ था। निर्वाण दिवस पर घर-घर दीपक जलाकर दीपावली मनाई जाती है।
महावीर के निर्वाण के पश्चात जैन संघ का नायकत्व क्रमश: उनके तीन शिष्यों ने संभाला- गौतम, सुधर्म और जम्बू। इनका काल क्रमश: 12, 12, व 38 वर्ष अर्थात कुल 62 वर्ष तक रहा। इसके बाद ही आचार्य परम्परा में भेद हो गया। श्वेतांबर और दिगंबर पृथक-पृथक परंपराएं हो गईं।
उनके सिद्धांतों में प्रमुख पंच महाव्रतों का खास महत्व है। भगवान महावीर ने कैवल्य ज्ञान हेतु धर्म के मूल पांच व्रत बताए- अहिंसा, अचौर्य, अमैथुन और अपरिग्रह। उक्त पंचमहाव्रतों का पालन मुनियों के लिए पूर्ण रूप से और गृहस्थों के लिए स्थूलरूप अर्थात अणुव्रत रूप से बताया गया है। हालांकि महावीर का धर्म और दर्शन उक्त पंच महाव्रत से कहीं ज्यादा विस्तृत और गूह्म है।
अहिंसा, अनेकांतवाद, अपरिग्रह और आत्म स्वातंत्र्य। मन, वचन और कर्म से हिंसा नहीं करना ही अहिंसा है। अनेकांत का अर्थ है- सह-अस्तित्व, सहिष्णुता, अनुग्रह की स्थिति। इसे ऐसा समझ सकते हैं कि वस्तु और व्यक्ति विविध धर्मी हैं। अपरिग्रह अर्थात जो हमारे जीवन को सब तरफ से जकड़ लेता है, परवश/पराधीन बना देता है वह है परिग्रह। सभी का त्याग कर देना ही है अपरिग्रह। आत्म स्वातंत्र्य का अर्थ है अकर्तावाद या कर्मवाद। अकर्तावाद का अर्थ है किसी ईश्वरीय शक्ति से सृष्टि का संचालन नहीं मानना। वस्तु का परिणमन स्वतंत्र/स्वाधीन है। मन में कर्तव्य का अहंकार ना आए और ना ही किसी पर कर्तव्य का आरोप हो। बस यही धर्म का चतुष्टय भगवान महावीर स्वामी के सिद्धांतों का सार है।
अनेकांतवाद अर्थात वास्तववादी और सापेक्षतावादी बहुत्ववाद सिद्धांत और स्यादवाद अर्थात ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धांत। उक्त दोनों सिद्धांतों में सिमटा है भगवान महावीर का दर्शन। दर्शन अर्थात जो ब्रह्मांड और आत्मा के अस्तित्व के प्रारंभ और इसकी स्थिति तथा प्रकार के बारे में खुलासा करता हो।
महावीर स्वामी का संक्षिप्त परिचय
*नाम : वर्द्धमान, सन्मति, वीर, अतिवीर, महावीर।
*पिता का नाम : सिद्धार्थ
*माता का नाम : त्रिशला (प्रियकारिणी)
*वंश का नाम : ज्ञातृ क्षत्रिय वंशीय नाथ
*गोत्र का नाम : कश्यप
*चिह्न : सिंह
*गर्भ तिथि : अषाड़ शुक्ल षष्ठी (शुक्रवार 17 ई.पू. 599)
*गर्भकाल 9 माह 7 दिन 12 घंटे।
*जन्मतिथि : चैत्र शुक्ल-13 27 मार्च ई.पू. 598
*दीक्षा तिथि : मंगसिर वदी 10 (सोमवार 29 दिसंभवर ई.पू. 570)
*कुमार काल : 28 वर्ष 7 माह, 12 दिन।
*तप काल : 12 वर्ष, 5 मास, 15 दिन
*देशला काल : 29 वर्ष 5 माह 20 दिन
*कैवल्य ज्ञान प्राप्ति : वैशाख शुक्ल 10 (रविवार 23 अप्रैल ई.पू. 557)
*ज्ञान प्राप्ति स्थान : बिहार में जृम्भिका गांव के पास ऋजुकूला नदी-तट (बिहार)
*प्रथम देशना : श्रावण कृष्ण प्रतिपदा (शनिवार 1 जुलाई ई.पू. 557), स्थान राजगृह नगर, विपुलाचल पर्वत।
*केवली उपदेश काल : 29 वर्ष 5 मास, 20 दिन
*निर्वाण तिथि : लगभग 72 वर्ष की आयु में कार्तिक कृष्ण अमावस्या-30 (प्रत्यूषवेला मंगलवार 15 अक्टूबर ई.पू. 527)
*निर्वाण भूमि : पावापुरी उद्यान (बिहार)
*महावीर के भव : भव अर्थात पूर्वजन्म जो 34 हैं।
*मुख्य सिद्धांत : पंच महाव्रत
*उपदेश भाषा : अर्धमगधी, पाली, प्राकृत
*तत्व ज्ञान : अनेकांतवाद, स्यादवाद
*उनके समकालिन : भगवान बुद्ध
*कुल उम्र योग : 71 वर्ष 6 माह 23 दिन 12 घंटे।