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महाभारत की कथा जुड़ी हुई है हस्तिनापुर से और सत्यवती शांतनु की पत्नी बनी थी ऐसे में इन सबको समझने के लिए आपको कुरुवंश को समझना ज़रूरी है। व्यास के शिष्य वैशंपायनजी जन्मेजय को महाभारत सुनाते है और आदि पर्व के 96वें अध्याय में शांतनु के जन्म से जुड़ी बाते ज्ञात होती है। दरअसल इक्ष्वाकुवंश में महाभिष नाम के राजा हुए थे। उन्होनें बड़े कर्म किये और देवताओं को प्रसन्न कर स्वर्ग लोक प्राप्त किया। एक काल में सभी देवता ब्रह्मा जी की सेवा में थे। उसी दौरान महाभिष भी वही बैठे थे। कुछ समय बाद गंगा का वहां आगमन हुआ।
एक हवा के झोंके से मां गंगा का वस्त्र थोड़ा ऊपर की और उठा, सबने आंखें नीची कर ली लेकिन गंगा और महाभिष एक दूसरे को देखते रहे। ब्रह्मा जी से यह देखा नहीं गया और वो क्रोधित हो गए। उन्होंने श्राप देते हुए कहा कि तुम फिर मृत्यु लोक में जन्म लोगे और यही गंगा तुम्हारे विपरीत आचरण करेगी। इस श्राप को सुनने के बाद महाभिष ने सभी का चिंतन किया और आखिर उन्होंने राजा प्रतीप का पुत्र बनकर जन्म लेने की सोची। दरअसल यही महाभिष महाभारत के मुख्य पात्र शांतनु हुए। अब इसके बाद 97वें अध्याय में शान्तनु के पिता प्रतीप की कथा आती है। प्रतीप एक बार हरिद्वार में साधना कर रहे थे।
उसी समय गंगा युवती के रूप लेकर उनके पास आयी और उनकी दाहिनी जांघ पर बैठ गयी। गंगा ने स्वयं को प्रतीप को सौंपते हुए कहा कि राजन आप मुझे स्वीकार करे क्योंकि मैं स्वयं आपके पास आयी हूं लेकिन प्रतीप ने इंकार कर दिया। उन्होंने कहा कि कामवश आयी हुई और परायी स्त्री को मैं स्वीकार नहीं कर सकता। आगे गंगा ने कहा, राजन, मैं सर्वगुण संपन्न हूं। ना मैं अयोग्य हूँ और ना ही कोई मुझ पर कलंक लगा सकता है। आप मुझे स्वीकार करे। लेकिन प्रतीप ने कहा कि गंगे, धर्म के विरुद्ध आचरण करने से धर्म ही मनुष्य का नाश कर देता है। तुम मेरी दायीं जांघ पर आ बैठी हो जो की पुत्री तथा पुत्र वधू का आसन है।
पुरुष की बायीं जंघा ही उसकी कामिनी के योग्य होती है। ऐसा कहकर उन्होंने गंगा से कहा कि तुम मेरी बहू बनोगी। ऐसा कहकर गंगा को उन्होंने विदा किया। गंगा ने उनकी स्तुति की और पुत्रवधू बनना स्वीकार किया। इसके बाद शांतनु के जन्म की कथा आदिपर्व के 97वें अध्याय में ही आती है। इसके बाद प्रतीप पत्नी के साथ तप करने लगे और शांतनु का जन्म हुआ। शांतनु जैसा की मैं आपको बता चुका हूं महाभिष का अगला जन्म था। शांत पिता की संतान होने से उनका नाम शांतनु हो गया था।
समय बीतता गया और एक दिन शांतनु युवा हुए। पिता ने गंगा से हुआ सारा वार्तालाप पुत्र से कहा और राज्य सौंप कर वन में चले गए। उन्होंने शांतनु से यह भी कहा कि बेटा उससे कोई प्रश्न मत करना बस विवाह करना। इसके बाद शांतनु गंगा तट पर विचरण करते और एक दिन गंगा जी आयी। उनके रूप और सौंदर्य को देखकर शांतनु का शरीर पुलकित हो उठा। गंगा का रूप देखकर वो आश्चर्य से भर उठे और उसे ठीक उसी प्रकार देखते रहे जैसे पिछले जन्म में देख रहे थे। उन्होंने गंगा को अपनी पत्नी बनने का प्रस्ताव दे दिया।
आगे 98वे अध्याय में वैशंपायन जी जनमेजय को बताते है कि पूर्व जन्म की सभी बाते स्मरण करते हुए और प्रतीप के वचन को सार्थक करने के लिए गंगा ने हां कह दी और यह भी वचन लिया की आप मुझे कोई भी कर्म करने से रोक नहीं सकते। जिस दिन आपने मुझे टोका मैं चली जाउंगी। प्रतीप नामक राजा ने गंगा को अपनी पुत्रवधू के रूप में स्वीकार किया और समय आने पर शांतनु और गंगा का मिलन हुआ।
पिछले जन्म की बातों को स्मरण कर गंगा ने प्रेम विवाह के प्रस्ताव को स्वीकार किया और शांतनु से इस शर्त पर विवाह किया कि वो उसे कभी भी कोई भी कार्य करने से रोक नहीं सकते। समय बीता और गंगा ने एक पुत्र को जन्म दिया। शांतनु बड़े प्रसन्न हुए लेकिन उन्हें हैरानी तब हुई जब वो अपने खुद के पुत्र को नदी में बहा आयी। शांतनु हैरान थे लेकिन वचन में होने के कारण कुछ पूछ नहीं पाते थे। इस रहस्य का खुलासा महाभारत के आदि पर्व के 96वें अध्याय में होता है।
दरअसल जब ब्रह्मा जी ने महाभिष को श्राप दिया था उसके बाद गंगा पृथ्वी लोक पर लौट रही थी। इसी दौरान उन्होंने आकाश मार्ग से 8 वसुओं को गिरते हुए देखा। वो स्वर्ग से नीचे गिर रहे थे। मलिन वस्त्र हो गए थे और रूप भी दिव्य ना रहा था। अब जब गंगा ने उन्हें इस हाल में देखा तो पूछा की भई ये कैसे हुआ ? प्रश्न के उत्तर में वसुओं ने जवाब दिया की ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में एक बार पृथु आदि वसु तथा सम्पूर्ण देवता आये हुए थे।
उनकी पत्नियां उपवन में घूम रही थी और उसी समय घो नामक वसु की पत्नी ने उनकी धेनु को देख लिया और वो उस पर मोहित हो गयी। उसने अपने पति को वह गाय दिखाई। वो दिव्य थी। उसे ऋषि ने बड़ी तपस्या से पाया था। उसकी खासियत यह थी कि जो भी उसका दूध पीएगा वो 10 हज़ार साल जियेगा और युवा रहेगा। वसु की पत्नी को मृत्यु लोक में अपनी एक सखी जितवती का स्मरण हुआ जो कि उशीनर की बेटी थी।
उसने वसु से कहा की आप जैसे भी करके वो गाय ले आइये, मैं उसे मेरी सखी को दूंगी ताकि वो उसका दूध पी सके। ऐसा करने से वो चिरकाल तक युवा रहेगी। ऐसे मधुर वचन सुनकर और अपनी पत्नी की बातों में आये उस वसु ने गाय चुरा ली। ऋषि ने दिव्य दृष्टि से सब पता लगाया और आठ वसुओं को मनुष्य के रूप में जन्म लेने का श्राप दे दिया। यही घो भीष्म हुए और अपनी पत्नी के कहने पर उन्होंने गाय की चोरी की थी तो मृत्यु लोक में पत्नी रहित हुए। यह सारी कथा आदि पर्व के 99वें अध्याय में विस्तार से वैशम्पायन जी ने जनमेजय को सुनाई है। वसुओं ने गंगा से कहा कि बस उन्ही के श्राप के कारण हम स्वर्ग से पतित हो गए है और गिरते ही जा रहे है।
उधर महाभिष को श्राप मिल चुका था की गंगा तुम्हारे विपरीत आचरण करेगी। वसुओं ने अपना कल्याण करने के लिए गंगा को समझाया। उन्होंने कहा की अगर हम शांतनु की संतान बने और आप हमारी मां बने तो आप जन्म लेते ही हमे बहा देना जिससे हम तुरंत मृत्यु लोक से मुक्त हो जायेगे। इससे ब्रह्मा जी और ऋषि वशिष्ठ दोनों के श्राप का मान रह जाएगा। गंगा ने उन्हें वचन दे दिया की ठीक है मैं तुम्हारी मां बनकर तुम्हे श्राप से मुक्त करुंगी। इसके बदले में वसुओं ने उनसे भी एक वादा किया। वसुओं ने कहा की हम सब अपने अपने तेज का एक अंश देंगे और जो आखिरी वसु होगा वो शांतनु के अनुकूल होगा लेकिन उसकी संतान नहीं होगी और वो पत्नी रहित होगा।
यही कारण था कि एक एक करके वो वसुओं को अपने ही जल में बहा देती थी। अब इसी आदि पर्व के 98वें अध्याय में भीष्म के जन्म की कथा आती है। जैसे ही गंगा आठवें वसु को जल में बहाने लगी राजा ने उसे रोक लिया और प्रश्न पूछा कि तुम ऐसा क्यों करती हो ? गंगा ने कहा कि हे राजन ! अब मेरा समय यही समाप्त हो गया है। मुझे बस यही तक अपना काम करना था।
ऐसा कहकर शांतनु को गंगा ने पिछले जन्म की सभी बाते विस्तार से कह दी और यह भी बोला की इस पुत्र में महान गुण होंगे। इससे बड़ा कोई योद्धा ना संसार में हुआ है ना होगा। मैंने और आपने वसुओं को श्राप से मुक्त किया है इसलिए सभी वसुओं का इसमें तेज है। हे राजन इसका नाम "गंगादत्त" होगा और आपके कुल का आनंद बढ़ाने वाला होगा। एक से एक महान सम्राटों को ये जीतेगा, महान् व्रतधारी होगा और हस्तिनापुर की सदैव रक्षा करेगा। अभी यह बालक है तो मैं इसे अपने साथ लेकर जा रही हूं। समय आने पर यह वापस आएगा।