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नजरिया: उपचुनाव में कांग्रेस की हार से कमलनाथ के सियासी सफ़र की अवसान बेला

वरिष्ठ पत्रकार डॉ. राकेश पाठक का नजरिया

नजरिया: उपचुनाव में कांग्रेस की हार से कमलनाथ के सियासी सफ़र की अवसान बेला - OPINION :Expiration of the political journey of Kamal Nath
मध्यप्रदेश की 28 विधानसभा सीटों पर धमाकेदार जीत के साथ भारतीय जनता पार्टी ने अगले तीन साल के लिये सत्ता में रहने की चाभी हासिल कर ली है। दलबदल पर ठप्पा लगा कर जनता ने भाजपा और शिवराज को बेख़टके राज करने का मौका दे दिया है। कांग्रेस के लिये होली जिस तरह बेरंग हो गई थी उसी तरह दिवाली भी काली रहेगी।
 
इस क़ामयाबी में कांग्रेस सरकार गिराने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया का योगदान भी शामिल है। यक़ीनन सिंधिया अब भाजपा में एक समानांतर सत्ता केंद्र बनकर उभरेंगे। हां उनके लिये यह ज़रूर चिंता की बात होगी कि वे अपने ही गढ़ में साख़ नहीं बचा सके हैं।
 
2018 में कांग्रेस सरकार की कमान सम्हालने वाले कमलनाथ अपने राजनैतिक जीवन की अवसान बेला में इस करारी मात के बाद अब करने को कुछ बचा नहीं है। अपने आधी सदी के राजनैतिक जीवन में सरकार को खो देना और अब उपचुनाव में हार के बाद वे शायद ही कभी इस सदमे से उबर पाएं।
 
मार्च में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने 22 समर्थकों के साथ कमलनाथ सरकार की नैया डुबो कर भाजपा का गमछा गले में डाला था। बाद में तीन और कांग्रेस विधायक फुट लिए। तीन सीटें विधायकों की मृत्यु का कारण ख़ाली हुईं। कुल 28 सीटों पर उपचुनाव में 19 सीटें जीत कर भाजपा-शिवराज ने अगले तीन साल के लिए प्रदेश पर निर्द्वन्द राज करने का जनादेश हासिल कर लिया है। 
भाजपा की जीत में शिवराज,सिंधिया,नरेंद्र तोमर,वीडी शर्मा और पार्टी के संगठन की जमीनी मेहनत का बराबर योगदान रहा है। इस जीत में जितना शिवराज,भाजपा संगठन का योगदान है उतना ही नए नवेले भाजपाई ज्योतिरादित्य सिंधिया का भी है। उपचुनाव में न केवल उनकी साख़ दांव पर लगी थी बल्कि उनके आगे के सियासी सफ़र का रास्ता भी इसी नतीजे से निकलना था। कोई शक नहीं कि अब उनके केंद्र में मंत्री बनने की राह आसान हो गयी है।
 
सिंधिया के गढ़ में हारे समर्थक- सरकार बचाये रखने के बावज़ूद सिंधिया के लिये चिंता की बात उनके अपने गढ़ में भाजपा की हार है। सिंधिया के कुल 7 समर्थक हारे हैं जिनमें ज्यादातर ग्वालियर-चम्बल की सीटें हैं। हारने वालों में तीन मंत्री शामिल हैं।
 
चम्बल के मुरैना की पांच में से तीन सीटें कांग्रेस ने जीत ली हैं। हारने वालों में सिंधिया कोटे के मंत्री एदल सिंह कंसाना,गिर्राज दंडोतिया शामिल हैं। मुरैना जिले में तीन सीटों पर हार इसलिये भी चौंकाने वाली है क्योंकि यह केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का संसदीय क्षेत्र हैं और भाजपा प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा भी मुरैना के ही हैं। मुरैना में किसान कांग्रेस के नेता द्वारा शिवराज को भूखा,नँगा कहा गया था। भाजपा ने इसे ख़ूब मुद्दा बनाया इसके बावज़ूद मुरैना सीट भी भाजपा हार गई। भिंड की दो में से एक सीट गोहद पर सिंधिया समर्थक रणवीर जाटव हार गए। दूसरी सीट पर उनके कोटे के मंत्री ओपीएस भदौरिया जीत गए हैं।
चौंकाने वाले नतीजे ग्वालियर से भी आये। जिले की तीन में से दो सीटों पर सिंधिया के कट्टर समर्थक मंत्री इमारती देवी और मुन्नालाल गोयल हार गए। मुन्नालाल तो उस ग्वालियर पूर्व सीट से प्रत्याशी थे जहां से ख़ुद सिंधिया,केंद्रीय मंत्री नरेंद्र तोमर,पूर्व मंत्री मायासिंह,जयभान सिंह पवैया वोटर हैं।
 
इमरती देवी पिछला चुनाव 57 हज़ार से जीतीं थीं। पिछले तीन चुनाव लगातार जीतती रहीं हैं लेकिन इस बार कांग्रेस के सुरेश राजे से हार गईं। कमलनाथ द्वारा इमरती को 'आयटम' कहने पर भाजपा ने इसे जबरदस्त मुद्दा बनाया था। ख़ुद सिंधिया ने डबरा की सभा में 'मेरी इमरती' कह कर उनके सम्मान के हुंकार भरी थी फिर भी वे हार गईं।

सिंधिया के अपने संसदीय क्षेत्र शिवपुरी की करैरा सीट पर भी भाजपा प्रत्याशी को हार का सामना करना पड़ा है। सिंधिया राजवंश के सनातन प्रभाव क्षेत्र आगर में कांग्रेस के विपिन वानखेड़े जीत गए हैं। यहां 22 साल बाद कांग्रेस जीती है। 

कुल मिलाकर सिंधिया के लिये अपने ही प्रभाव क्षेत्र में समर्थकों को नहीं जिता पाना उनके लिये चिंता की बात होगी। ख़ास तौर पर तब जब कि वे पूरे चुनाव में साफ कहते रहे कि यह सिंधिया घराने की इज्ज़त का सवाल है। नतीज़े बताते हैं कि ग्वालियर-चंबल के लोगों को उनका दलबदल रास नहीं आया।
कांग्रेस की हार का ठीकरा ‘नाथ’ के सिर- उपचुनाव में कांग्रेस की करारी हार का ठीकरा निश्चित तौर पर पूर्व मुख्यमंत्री, प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ के सिर पर ही फूटेगा।  2018 में सरकार बनने के बाद उसे बचाये रखने में नाकाम रहे नाथ इस हार के बाद अपने सियासी जीवन की सबसे मात का दोष किसी और के मत्थे मढ़ने की हालत में भी नहीं हैं। दुबारा सरकार में आने के लिये पार्टी आला कमान ने उन्हें पूरी तरह फ्री हैंड दिया था। उम्मीदवारों के नाम तय करने से लेकर पूरे चुनाव अभियान में वे 'एकला चलो' की नीति पर डटे रहे।

चंबल से लेकर मालवा तक,निमाड़ से लेकर बुंदेलखंड तक सब जगह अकेले ही दौड़ते रहे। रस्म अदायगी को दिग्विजय सिंह, सुरेश पचौरी,अजय सिंह,अरुण यादव आदि का साथ लिया। दिग्विजय सिंह को चुनाव प्रचार के आख़िरी तीन चार दिन में मैदान में भेजा गया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उपचुनाव में चेहरा भी वही थे, मुद्दा भी वही। नारे भी उन पर भी,हरकारे भी उनके ही। अगर जीतते तो जीत का सेहरा उनके ही सिर बंधता। हारे हैं तो हार का हार भी उन्हें अपने गले में ही पहनना होगा।
इस हार के बाद कांग्रेस आत्म मंथन करेगी और मज़बूत विपक्ष की भूमिका अदा करेगी तो उसका कल्याण होगा और लोगों का भी। उसके पास मज़बूत विपक्ष लायक आंकड़ा तो आज भी है। उसे जनादेश को सिर माथे लेकर अपनी भूमिका निभाना ही होगी।
 
सरकार के स्थायित्व के लिये दिया वोट - इस उपचुनाव में जनता ने स्थायी सरकार के लिये खुले हाथ से भाजपा और शिवराज को वोट दिया है। पिछली दफ़ा 2018 में कांग्रेस और कमलनाथ को कम सीटें देने का खामियाज़ा देख चुकी जनता ने इस बार इतनी सीटें दे दीं हैं कि अगले तीन साल कोई रस्साकसी नहीं हो। यहाँ तक कि भाजपा अब सिंधिया के दवाब में भी आसानी से नहीं आयेगी। जनता ने दलबदल,बिकाऊ,ग़द्दार,वफ़ादार सारे नारे बलाये ताक रख कर अपने लिये ऐसी सरकार को मजबूती दे दी है जो रोज रोज के भयादोहन से मुक्त होकर काम कर सके।
 
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