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Last Modified: बागली , बुधवार, 19 जुलाई 2017 (14:03 IST)

पापी पेट का सवाल है...

साल में 8 माह घर से दूर रहता है कोल्ही समुदाय

पापी पेट का सवाल है... - bagli news
-कु. राजेन्द्रपालसिंह सेंगर (कुसुमरा)
बागली (देवास)। प्रवास कुछ लोगों के लिए रोमांच और प्रसन्नता का विषय हो सकता है। लेकिन यदि यही प्रवास रोजी-रोटी की जुगाड़ के  लिए किया जाए तो इसे प्रकृति की कृपणता नहीं मनुष्य का अन्याय ही कहा जाएगा।
 
मामला है देवास जिले की बडी पंचायतों में से एक पोलाखाल के कोल्ही समुदाय का, जो कि रोजगार के अवसरों के अभाव में एक वृहद  वन क्षेत्र में 8 माह तक पलायन करने के लिए विवश है। देवास जिला मुख्यालय से 98 और बागली अनुभाग मुख्यालय से लगभग 38  किमी की दूरी पर उदयनगर तहसील का गांव पोलाखाल बसा है। 
 
जानकारी के अनुसार वर्ष 1942 में धार रियासत के तत्कालीन महाराज ने वनों से वनोपज प्राप्त करने के लिए इस गांव को बसाया था।  ग्रामीण मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर थे। लेकिन असिंचित और पथरीली कृषि भूमि होने के कारण इन्होंने पलायन करके वनोपज प्राप्त  करने को ही अपना मुख्य धंधा बनाया, जो आजादी के बाद से बदस्तूर जारी है। स्वतंत्रता के बाद रियासतों के विलय ने इन ग्रामीणों की  कमर तोड़ के रख दी और ये बाजार के महाजनों की शोषण प्रक्रिया का हिस्सा होकर दर-दर की ठोकरें खाने के लिए विवश हैं। 
 
ग्राम की सामुदायिक स्थिति के अनुसार ग्राम की कुल आबादी का लगभग 70 प्रतिशत भाग कोल्ही (अजा) है और 12 प्रतिशत  आदिवासी हैं। वास्तव में ये ही 82 प्रतिशत लोग मौसमी पलायन करते हैं। गांव में कुल कृषक 420 हैं। जिसमें से 4 हेक्टैयर कृषि भूमि  से अधिक पर खेती करने वाले केवल 80 कृषक है। कुल कृषि क्षेत्रफल 1045.80 हेक्टैयर है। जिसमें से सिंचित कृषि भूमि केवल  313.50 हेक्टैयर ही है। कोल्ही समुदाय के लगभग 500 से अधिक परिवार यहां निवास करते हैं। जिसमें से 90 प्रतिशत से अधिक के  पास कृषि भूमि है। लेकिन अधिकांश कृषि भूमि असिंचित और पथरीली है। इस कारण ये खरीफ की फसल ही प्राप्त करते है। जिसमें  भी खाद्यान्न के रूप में काम आने वाली मक्का, ज्वार और बाजरे की फसलें ही अधिक होती है।
 
300 किमी तक के दायरे में होता है पलायन : आमतौर पर खरीफ की फसल के बाद ग्रामीण पलायन आरंभ करते है। जिसमें वे देवास  जिले के जोशीबाबा, भामर, लेंडवा व उमरिया आदि वनों सहित होशंगाबाद, बैतुल और खंडवा आदि क्षेत्रों के वनों में अगले 5 से 8  महिनों के लिए भटकते हैं। इस दौरान ग्राम में केवल बुजुर्ग और अपना ख्याल रख सकने वाले किशोर ही शेष बच जाते हैं। वनों में ये  मुसली, आंवले, महुए, चारोली, गोंद व तेंदुपत्तों का संग्रह करते हैं। प्रवास की इस अवधि में ये समस्त सरकारी योजनाओं की पहुंच से  दूर होते हैं। औसतन 40 बच्चे प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा से वंचित हो जाते है। साथ ही वनक्षेत्र में बीमारियों व हिंसक पशुओं के  हमले या आकस्मिक कारणों से औसतन 15 स्त्री-पुरूष अपनी जान भी गंवा देते हैं। 
 
पलायन का सिलसिला अगस्त माह से आरंभ होकर अप्रैल व मई तक चलता रहता है। कडी मेहनत और जोखिम के बाद भी ये लोग  केवल इतना ही अर्जन कर पाते हैं जितना कि जीवन निर्वाह के लिए जरूरी माना जा सकता है। कुछ वर्ष पूर्व देवास व खंडवा जिलों के  वन परिक्षेत्र का कुछ हिस्सा औंकारेश्वर अभयारण्य घोषित हो जाने के बाद नजदीकी वनों से इनकी गुजर चलना भी मुश्किल हो गई है।  अगस्त माह में ये लोग वनों से मुसली प्राप्त करते हैं। मालवा व निमाड़ में सोयाबीन कटाई के बाद ये वनों से आंवले प्राप्त करते हैं।  नवंबर से फरवरी तक के समय में कृषि मजदूरी, लकड़ी आदि प्राप्त करना और मार्च से मई तक वनों से गोंद, चारोली, महुए और  तेंदुपत्ता संग्रहण का काम करते हैं।
 
कई बार शव भी घर नहीं ला पाते है : ग्राम के शैतानसिंह, सुरेश, दरतु साहेब और बाबूभाई बताते हैं कि वनों में कई बार बीमारियां भी  होती हैं, लेकिन वहां पर डॉक्टर या वैद्य नहीं होते है। गांव के पास होते हैं तो गांव में आ जाते है। लेकिन यदि गांव से दूर होते है और  गंभीर बीमारी या हादसों का शिकार हो जाते हैं तो शव को घर भी नहीं लाया जा सकता है। पोखर या नदी आदि का पानी साफ करके  हम लोग पीते हैं। वनों में भालु, तेंदुए, कोलकुत्ते, सियार, सांप और बिच्छु आदि जान के दुश्मन होते हैं। शेर व तेंदुओं से सामना होने  पर केवल झूंड में ही रहने पर बचा जा सकता है। 
 
12वीं पास केवल तीन : ग्राम में शिक्षा का स्तर बेहद खराब है। जिसमें भी कोल्ही समुदाय की हालत बेहद खस्ता है। क्योंकि बच्चे  बचपन से ही वनों में जाने लगते हैं। इसलिए कई बार वे आरंभिक शिक्षा से ही वंचित रह जाते हैं और किशोरावस्था में स्वयं ही पलायन  करके आय शुरू कर लेते हैं। कोल्ही समुदाय गुजराती-निमाड़ी मीश्रित भाषा बोलता है। इसलिए बच्चों को मानक हिंदी के शब्द सीखने में  भी काफी समय लगता है और बचपन सालर के वृक्ष के आसपास गड्‍ढे खोदने में ही समाप्त हो जाता है। ग्राम में केवल रेवल पिता  लवकुश, राजा पिता विट्ठल और सुरेश पिता रामदास ही कक्षा 12वीं से अधिक शिक्षित हैं। जिनमें दो तो स्कूलों में अतिथि शिक्षक हैं   और एक इंदौर में नौकरी करता है। 
 
नर्मदा जल या कनाड़ का पानी कर सकता है काया पलट : ग्राम के तुकाराम साहिब, विजयसिंह जहांगीर और लवकुश साहेब आदि बताते  हैं सभी के पास कृषि भूमि है, लेकिन सिंचाई के लिए पानी नहीं है। यदि 10 किमी दूर तरानिया नामक स्थान से कनाड़ नदी का पानी  या नर्मदा का जल क्षेत्र में सिंचाई के लिए मिले तो पलायन की यह बरसों पुरानी अलिखित परंपरा बंद हो सकता है। 
 
मनरेगा ऊंट के मुंह में जीरा : समय-समय पर मनरेगा को बहुत महत्वपूर्ण और ग्राम में रोजगार के अवसर उपलब्ध करवाने वाली  योजना बताया जाता है। लेकिन ग्राम में मनरेगा ऊंट के मूंह में जीरे के समान ही है। वर्ष 2016-17 में मनरेगा के तहत ग्राम के 349  परिवारों को जॉबकार्ड जारी हुए थे। जिसमें से 110 परिवारों ने रोजगार मांगा था और केवल 85 को रोजगार मिला था। जबकि 100 दिन  की मजदूरी का भुगतान केवल 1 परिवार को ही हुआ। इसी प्रकार जारी वर्ष में 358 जॉबकार्ड धारी परिवार है। जिसमें से 161 ने काम  मांगा है और केवल 123 को अब तक काम दिया गया है। इसमें भी रिकार्ड वृक्षारोपण के गड्‍ढे खोदने का काम सबसे अधिक है। 
 
रोजगारोन्मुखी कार्य नहीं : बागली आदिवासी बहुत विधानसभा है। प्रदेश में लगातार तीसरी बार भाजपा सरकार के होने का फायदा तो  हुआ है। सड़क, बिजली और पानी के खूब काम हुए, लेकिन रोजगारोन्मुखी कार्य नहीं होने से ग्रामीणों व सीमांत किसानों के पास रोजगार  की कमी हमेशा बनी रहती है। कृषि मजदूरी के अवसर सबसे अधिक है, लेकिन उसमें पारिवारिक विकास की संभावना नहीं है। जनपद  पंचायत के माध्यम से विभिन्न योजनाएं संचालित हैं, लेकिन लाभार्थी पलायन कर जाते हैं। मनरेगा में मशीनों की आमद होने से वह  अप्रभावी साबित हुई है और हितग्राहीमूलक काम ही अधिक हुए है। 
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