प्रेम में जरूरी नए-पुराने रंग
मानसी हेलो दोस्तो! ज्यादातर लोग या तो बिल्कुल परंपरा एवं समाज के लकीर के फकीर बन जाते हैं या फिर समाज से बिल्कुल विपरीत धारा में बहने लगते हैं। उन्हें मौजूदा समाज की कोई भी बात नहीं भाती। सब कुछ गलत लगता है और बेमानी। इस तरह की सोच यदि कई मायने में उन्हें एवं औरों को तर्कसंगत भी लगे फिर भी वे अकेले चल-चलकर थक जाते हैं।ऐसे अति आलोचनात्मक सोच वाले लोग थोड़े होने के कारण उन्हें जीने व खुश होने के लिए समाज से वह ऊर्जा नहीं मिलती जो समाज के प्रति आस्था रखने वालों को मिलती है। उन्हें समाज की हर चाल व व्यवस्था पर आपत्ति रहती है जिसके कारण उनका क्रोध बढ़ता जाता है। ऐसे लोग अपना और अपने चाहने वालों का जीवन बदमजा कर देते हैं।सबसे ज्यादा खुश और मजे में वही लोग रहते हैं जो अपनी नई सोच की शर्तों पर तो जीते हैं पर समाज का भी साथ बनाए रखते हैं। समाज के पूरे पोंगा पंथी सोच के पीछे-पीछे चलने के बजाय समाज से संवाद बनाते हुए अपनी नई सोच का प्रभाव छोड़ते हैं।समझदार लोग वही हैं जो अपनी पसंद की करें पर समाज से पूरा पंगा लेने के बजाय उनकी भी सुनते रहें और उन्हें अपनी ओर झुकाने की कोशिश करें। दरअसल अधिकांश लोग समाज के कठोर रीति-रिवाजों से ग्रस्त ही रहते हैं और वह हमेशा इसे तोड़ने और अगवाई करने वालों के इंतजार में रहते हैं ताकि कुछ मिसाल कायम होने के बाद उसके लिए भी रास्ता आसान हो।ऐसी ख्वाहिश रखने वाले लोग पहल तो नहीं करते पर दूसरों के पहल करने वालों का खामोशी से मन ही मन स्वागत करते हैं। पर, नई सोच वाले कई लोग समाज में हर किसी को रूढ़िवादी विचारों का पुतला मान बैठते हैं। इसलिए जिससे उसे सहयोग मिल सकता है उससे भी वह कट जाता है।प्रेम करने वालों की सोच यही होनी चाहिए कि वे पुरानी परंपरा से खुशियों के रंग भी अपने जीवन में भरें और समाज में प्रचलित कठोर रूढ़ियों को लांघते हुए जीवन को सरल रूप से जीएँ। यदि कोई पुरुष घर में अपनी साथी के हाथ बँटाता है। उससे अपनी तमाम परेशानियों और सफलता पर विस्तार से गपशप करता है तो उसका जीवन परंपरागत रूप से जी रहे पुरुष से अधिक सुखी व चैन एवं सुकून भरा हो जाएगा। ऐसा करने के लिए न तो उसे दोस्त, रिश्तेदारों से कटने की जरूरत है और न ही दूसरे को नीचा दिखाकर भाषण देने की।पर, अपने जीवन में ऐसा कर तमाम आलोचनाओं के बाद भी वह जरूर एक मिसाल बन सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि ऐसे जोड़े की आपसी घनिष्टता और तालमेल काबिले तारीफ होती है। इसी प्रकार जब कोई स्त्री समाज में प्रचलित छवि से अलग हठकर अपने पुरुष साथी का साथ देती है। घर के निर्णयों में हिस्सा लेती है। आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता दिखाती है। प्यार प्रदर्शित करने का पहल और हिम्मत दिखाती है तो साथी पुरुष को भी घर चलाना एक बोझ नहीं लगता। उसे भी घर में मजबूत सहारे का एहसास होता है। पत्नी है इसलिए उसके साथ एक प्रकार का जीवन जी लेना है यह नहीं महसूस होता है बल्कि संग-संग साथ चलने की तृप्ति होती है।समाज में जो भी अवधारणा एक थोपी हुआ बोझ लगे उसे आपसी समझ से कम कर लेना चाहिए। वरना समाज अपनी मान्यताओं की बलि पर आपकी निजी खुशियाँ चढ़ा देता है। समाज के जिन रीति-रिवाजों को जीवन में उतारने से जिंदगी में थोड़ा बदलाव आ सकता है उसे अपनाने और दुहराने में कोई हर्ज भी नहीं है।जो माता-पिता जिस समाज की खुशी के लिए अपने बच्चों के प्रेम विवाह को सहमति नहीं देते हैं और उन्हें दुत्कार कर नाता तोड़ लेते हैं बाद में वे यह देखकर हैरान हो जाते हैं कि उस समय इस शादी का विरोध करने वाले खुद अपने घर में वैसी ही शादी खूब धूमधाम से कर रहे हैं। उन्हें न तो बच्चों से बिछुड़ने का गम, न ही बच्चों से अपमान झेलने की टीस होती है बल्कि समाज में नया व साहसपूर्ण कदम उठाने की वाह-वाही अलग मिलती है।दरअसल, ऐसे लोग चतुर होते हैं जो समाज को शामिल करते हुए नई सोच को व्यवहार में लाते हैं। सही मायनों में वही असली जिंदगी का मजा लेते हैं और समाज को नई राह दिखाते हैं।