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Written By वार्ता
Last Modified: लखनऊ (वार्ता) , गुरुवार, 14 मई 2009 (17:53 IST)

नाम से क्या लेना मेरा काम देखो यारो...

नाम से क्या लेना मेरा काम देखो यारो... -
लोकसभा के लिए इस बार मतदान के घटते प्रतिशत से राजनीतिक दल जहाँ बेचैन दिखे वहीं आयोग ने मतदान के प्रति लोगों में रूझान पैदा करने के लिए जब 'पप्पू' का सहारा लिया तो इस नाम के लोगों को यह नागवार गुजरा और इनमें से अधिकांश का कहना था कि उनको भी आम लोगों की तरह न सिर्फ अपने कार्यक्षेत्र में महारथ हासिल है बल्कि भीषण गर्मी के बावजूद अपने मताधिकार का प्रयोग कर उन्होंने राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह भी किया।

15वीं लोकसभा की 542 सीटों के लिए पाँच चरणों में मतदान की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है और अगले शनिवार होने वाली मतगणना का राजनीतिक दल बेसब्री से इंतजार कर रहे है। इस बार का चुनाव कई मायनों में यादगार रहा जिसमें प्रधानमंत्री पद के लिए कई दलों के आकाओं ने चुनाव पूर्व ही सार्वजनिक रूप से दावा ठोककर नया इतिहास रचा जबकि र्थिक मंदी के दौर में इससे निपटने के उपायों की चर्चा न कर पूरा चुनाव धर्म और स्थानीय मुद्दों की राजनीति तक सिमटा रहा।

चुनाव आयोग के सख्त रवैए ने बैनर, झंडे, पोस्टर और जुलूस के जरिये लोगों के दिलोदिमाग पर कब्जे की राजनीतिक दलों की रणनीति पर पानी फेर दिया। स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान का यह तरीका लोगों को भाया तो बहुत, लेकिन चिलचिलाती गर्मी और जन समस्यायों के प्रति नेताओं के गैर जिम्मेदाराना रवैये की खीझ मतदान केंद्रों पर पसरे सन्नाटे के रूप में उभर कर सामने आ गई।

पहले चरण के मतदान तक पप्पू उदासीन वोटर के रूप में लोगों के बीच अपनी पहचान नहीं बना पाया था, लेकिन दूसरे चरण के मतदान के दौरान इसने टेलीविजन न्यूज चैनलों और अखबारों के जरिये उत्तर भारत के तकरीबन हर घर में अपनी पहचान बना ली। दरअसल पप्पू केन्द्रीय निर्वाचन आयोग का बनाया किरदार नहीं है।

इसका जन्म तो गत वर्ष दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान ही हो गया था जब स्थानीय चुनाव कार्यालय ने मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए इस अनूठे तरीके को इजाद किया था। हालाँकि इस बीच कई प्रदेश स्थानीय लोकप्रिय नामों का सहारा लेकर लोगों से मतदान करने की अपील कर चुके थे।

लोकसभा चुनाव में मतदान केंद्र तक लाने के लिए जब नेताओं के लुभावने शब्दों का कोई असर मतदाताओं पर नही पड़ा तो खबरिया चैनलों ने दिल्ली चुनाव आयोग का यह शगूफा जनता जर्नादन के समक्ष पेश किया। हास्य व्यंग्य पर आधारित एक हल्के, फुल्के वृत्तचित्र के जरिये यह दर्शाया गया कि जो लोग मतदान नहीं करते हैं वह वास्तव में 'पप्पू' है। इसका मकसद सिर्फ लोगों को मतदान के प्रति आकर्षित करना था, लेकिन पप्पू नाम के लोगों को आयोग का यह अंदाज तनिक भी नहीं भाया और उन्होंने इसका मुखर विरोध किया।

राजधानी के अशोक मार्ग क्षेत्र में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में क्षेत्रीय निदेशक के पद पर कार्यरत विपिन अस्थाना आयोग के इस शगूफे को बचकाना करार देते हुए कहते हैं कि हिन्दी फिल्म की इस धुन से आयोग भले ही प्रेरित हो लेकिन वोट न डालने वालों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। घर में पप्पू के नाम से पहचान रखने वाले अस्थाना ने कहा कि फिल्मों और धारावाहिक में भले ही इस नाम का मजाक उड़ाया जाए, लेकिन चुनाव आयोग जैसी देश की जिम्मेदार संस्था से इस कदम की उम्मीद कोई नहीं कर सकता।

अमीनाबाद में चिकन वस्त्रों के व्यवसायी हारून परवेज भी आयोग के इस कदम के अलावा चैनलों पर दर्शाए गए इस वृत्तचित्र को उसकी गरिमा के विपरीत मानते हैं। अपने मित्रों और रिश्तेदारों में पप्पू भाई के नाम से विख्यात हारून ने कहा कि नेताओं के कोरे वादे और बुनियादी समस्यायों की अनदेखी से खफा मतदाता यदि वोट नहीं करते तो इसमें पप्पू का क्या दोष। उन्होंने कहा कि पप्पू का मजाक उड़ाने के बावजूद उन्होंने वोट देकर मुल्क के प्रति अपने फर्ज को अदा किया है।

कानपुर स्थित गणेश शकंर विद्यार्थी मेडिकल कालेज में मेडिसिन विभाग के प्रोफेसर डॉ. एससी शर्मा का कहना था कि चुनाव प्रक्रिया के बीच में आयोग का यह शगूफा कोई असर नहीं दिखा सका बल्कि यह हंसी का पात्र जरूर बन गया।

डॉ. शर्मा ने कहा कि घरेलू नाम पप्पू होने के बावजूद उन्हें आयोग अथवा खबरनवीसों से कोई शिकायत नहीं है। राजनीतिक दलों और आयोग को अब यह समझ लेना चाहिए कि मतदान के घटते प्रतिशत की वजह पप्पू नही बल्कि नेताओं के प्रति जनता का घटता विश्वास है और इसे हासिल करने के लिए उनके पास अब भी पाँच वर्ष का समय है।