रणनीति में कांग्रेस कामयाब रही
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विनोद बंधुबिहार में 40 महीनों की नीतिश कुमार के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के कामकाज के खासे असर के बावजूद लोकसभा के सभी 40 संसदीय क्षेत्रों में मुकाबला काँटे का रहा।एनडीए को बड़ी बढ़त की संभावना है। लेकिन यह भी तय है कि ज्यादातर सीटों पर छोटे अंतर से ही जीत-हार का फैसला होने के आसार हैं। कांग्रेस को किनारे कर आपस में सीटों का तालमेल राजद-लोजपा गठबंधन के लिए ठीक वैसा ही साबित हो सकता है जैसे कालिदास ने पेड़ की उसी शाखा को काटने की कोशिश की थी, जिस पर वे सवार थे। सहयोगी दलों ने औकात बताने की कोशिश की तो कांग्रेस ने बिना समय गँवाए जो गेम प्लान तैयार किया, वह काफी हद तक कामयाब रहा। हो सकता है उसकी सीटें बीते चुनाव की तुलना में न बढ़ें, लेकिन उसका वोट बिहार में काफी बढ़ जाएगा।लोकसभा का बिगुल बजने तक माना जा रहा था कि अंततः यूपीए के सहयोगी दल एक साथ चुनाव लड़ेंगे। जाहिर है राज्य में दो ध्रुवीय चुनाव होने थे। जद-यू से तालमेल के आसार नहीं बनने पर लोजपा के लिए राजद से तालमेल करना एक तरह की मजबूरी भी थी। लेकिन, कांग्रेस को लेकर इन दोनों दलों और कांग्रेस में इनको लेकर क्या खिचड़ी पक रही है, इसकी भनक किसी को नहीं थी।कुछ महीने पहले ही परमाणु करार पर विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव पर जिस तरह राजद और लोजपा ने कांग्रेस के साथ एका का प्रदर्शन किया था वह तास के पत्ते की तरह बिखर जाएगा,इसका अनुमान किसी को नहीं था। राजद और लोजपा ने कांग्रेस के लिए तीन सीटें छोड़कर बाकी सीटें आपस में बाँट ली तो उनका तर्क था कि एक तो कांग्रेस का तीन सीटों पर कब्जा है, दूसरा बिहार में उसका वोट 2.92 प्रतिशत ही है। ऐसे में तीन सीटों पर ही उसका दावा बनता है। जबकि बिहार कांग्रेस के नेताओं ने करीब छः महीने से इस बार 14 सीटों पर चुनाव लड़ने का दबाव केंद्रीय नेतृत्व पर बनाना शुरू कर दिया था।कांग्रेस विधायक दल के नेता डॉ. अशोक कुमार ने तीन महीने पूर्व ही सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी से मिलकर यह प्रस्ताव दिया था। उनका तर्क था कि कांग्रेस को पिछले चुनाव में तालमेल में 4 सीटें मिली थीं और वह तीन पर कामयाब रही। इसलिए इस चार के अलावा राजद और लोजपा की हारी हुई दस सीटें कांग्रेस को चाहिए।तालमेल टूटने के बाद पहले कांग्रेस ने 36 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा की। इसमें सारण और पाटलीपुत्र में लालूप्रसाद, हाजीपुर में रामविलास पासवान और कटिहार में एनसीपी के तारिक अनवर के खिलाफ प्रत्याशी नहीं देने का फैसला किया गया था।लेकिन, पहले चरण के बाद लालू और पासवान ने कांग्रेस पर बाबरी मस्जिद विध्वंस का दोषी होने का आरोप लगाया तो कांग्रेस ने भी रिश्ते-नाते भुलाकर लालू और पासवान के खिलाफ भी प्रत्याशी खड़ा कर दिया।इस तरह चुनाव के दौरान कांग्रेस बिहार में एक तरफ यूपीए के सहयोगी दल राजद और लोजपा से तो दूसरी तरफ एनडीए से वह दो-दो हाथ कर रही थी। कांग्रेस को इसका फायदा यह हुआ कि कम से कम दो दर्जन सीटों पर वह मुकाबले को तिकोना बनाने में कामयाब रही। चुनाव के दौरान ही कांग्रेस ने नेताओं की टीम खड़ी कर ली है, जो भिन्न सामाजिक पृष्ठभूमि के हैं। इस चुनाव से कांग्रेस को यह फायदा तो हुआ ही है कि वह राज्य में फिर से अपनी स्वतंत्र राजनीति शुरू कर सकती है। इस चुनाव में राजद और लोजपा गठबंधन को बड़ा झटका लगेगा, ऐसी स्थिति में राज्य की एक प्रमुख पार्टी के रूप में उभरने का सपना वह देख सकती है।